गणतंत्र से आशय है कि गण यानि समूहों का तंत्र हो, जो कि भारत की मूल संस्कृति विभिन्नता में एकता को दर्शाती है। 26 जनवरी 1950 से लेकर आज 2020 तक इन 71 वर्षो में लोगो की गणतंत्र को लेकर समझ में भी काफी विकास हुआ है।
लेकिन फिर भी जो मूल बात रह गयी है, वह यह कि आज भी बहुसंख्यक जन संविधान के मूल अर्थ को नहीं समझ सके हैं। संविधान केवल राजनीतिक तंत्र को चलाने का नियामक मात्र नहीं है, बल्कि एक ‘यूनिवर्सल’ कांसेप्ट है, जो की एक ‘वेलफेयर स्टेट’ से कहीं ज़्यादा मायने रखता है।
मानव के लिए जीवन मंत्र है संविधान
जिस तरह जीवन की सबसे बड़ी ज़रूरत इसकी गतिमान अवस्था है। ठीक वैसे ही, संविधान की भी सबसे बड़ी खूबसूरती इसका गतिमान होना है। भारत के भाग्य विधाताओं द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों ने 26 नम्बर 1949 को दुनिया को केवल सबसे बड़ा लिखित संविधान ही नहीं दिया, बल्कि एक ऐसा मन्त्र भी दिया, जो मानव समाज की सबसे बड़ी ज़रूरत ‘जीवन’ को परिभाषित भी कर सके।\
जीवन का अर्थ होता है, जो गतिमान है और जो रुक गया, जो स्थिर हो गया, वह केवल मृत्यु है। समय, परिस्थिति, काल के इसी स्वरूप को समझते हुये, भारत की संविधान सभा ने संविधान में आर्टिकल 368 जैसे महत्वपूर्ण बिंदू अंकित किये हैं, जिसकी सहायता से भारत अपने सनातन परंपरा का अनुयायी होकर, जीवन की गतिमान अवस्था से तालमेल बैठा सकता है।
आर्टिकल 368, भारत के भाग्यविधाताओं को यह अधिकार देती है कि वे अपने चुने हुये प्रतिनिधियों द्वारा, समय, काल, परिस्थिति, और ज़रूरतानुसार, बिना संविधान की मूल भावना के साथ छेड़छाड़ किये, जीवन को गति दे सकने वाले नियमक बना सके और जीवन को मृत करते नियमक को तोड़ सके।
दूरदृष्टि में संविधान का महत्व
संविधान एक गतिमान व्यवस्था है, जो की समय के साथ ज़रूरतानुसार संशोधित होनी चाहिये, ताकि भारत के भाग्य विधाता जीवन की राह चल सके। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि अकसर राजनीतिक जन, अपने स्वार्थपूर्ति के लिये इसे शो पीस बनाकर रख भी देखे गये हैं, जबकि यदि दुनिया के संविधान पर गौर किया जाये, तो पायेंगे की जो भी नियामक, सैंकड़ो वर्षों से ठहरे हुये हैं, आज उनका समाज उन बंधे हुये नियामकों में दम घोट रहा है। जबकि ये शाश्वत नियम है कि जो भी चीज़ स्थिर है, वो मृत्यु के समान है, चाहे कोई वस्तु हो या फिर नियम और जो भी गतिमान है, वो ही जीवन है।
मेरे लिये गणतंत्र का आशय है, व्यक्ति की अपनी असीमित स्वतंत्रता, जो बिना दूसरों की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप किये, बिना किसी राज्य के हस्तक्षेप के मानव कल्याण के प्रति स्वतः दायित्व को समझ सके।
ऐसा तभी सम्भव हो पायेगा, जब हम यह समझ पाएंगे कि भारत के संविधान निर्माताओं की दूरदृष्टि में संविधान का महत्व, मात्र एक नियामक से कहीं ज़्यादा था और संविधान संशोधन का बिंदु, इसलिये ही डाला गया है, ताकि भारत के भाग्यनिर्माता संशोधन का उपयोग तब तक कर सकें, जब तक की संविधान ‘यूनिवर्सल लॉ’ या फिर मानवकल्याण के लिये आदर्शलोक हो सके। जो की तभी सम्भव हो पायेगा, जब हम संविधान को भी जीवन के गति के नियमों के चश्में से देखने का प्रयत्न करेंगे।