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“हर लड़ाई में गाँधी की आड़ है तो अहिंसा और कर्तव्यों के नाम पर खामोशी क्यों”

अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा था,

आने वाली नस्लें शायद मुश्किल से ही विश्वास करेंगी कि हाड़-मांस से बना हुआ कोई ऐसा व्यक्ति भी धरती पर चलता-फिरता था।

मैं देख रहा हूं अपने समाज को। भिन्न-भिन्न तरह के लोग। अलग-अलग विचारधाराएं। समाज ऐसा हो चुका है कि उसके सामने महात्मा गाँधी का नाम आते ही एक ‘असहाय, मजबूर, लाचार’ का चित्र आ जाता है। गाँधी जी को कुछ लोग गाली देते हैं। उनके मन में गाँधी के खिलाफ नफरत भर गई है। किसी को भी गाँधी को पढ़ने की, समझने की फुर्सत नहीं है फिर उनको आत्मसात भला क्या करेंगे वे लोग?

गाँधी के नाम का  सिर्फ इस्तेमाल

मैं देखता हूं, आंदोलन हो रहे हैं। गाँधी जी की दुहाई दी जा रही है। मंच सजा है, पंडाल लगे हैं। एक तरफ लाउड स्पीकरों का शोर कान को फाड़ रहा है, आंदोलनकारियों ने पूरी सड़क कब्ज़ा रखी है। बच्चों, बुजु़र्गों, बीमारों तक का लिहाज़ नहीं। आम लोगों को परेशानियां हो रही हैं,  किसी को कोई वास्ता नहीं।

वहीं दूसरी तरफ पूरियां छन रही हैं। लंगर चल रहे हैं और ‘सुविधा’ को ‘सेवा’ का नाम दिया जा रहा है। विश्वविद्यालयों में आंदोलन होते हैं। गाँधी की फोटो आगे रख दी जाती है। पूरे विश्वविद्यालय के लंपट गेट पर कब्जा जमा लेते हैं। आप उनसे कुछ नहीं कह सकते। अगर आप कुछ कहेंगे तो आपको पीट दिया जाएगा। आगे रखी फोटो में मुस्कुराते गाँधी जी अचानक भयानक लगने लगते हैं।

दरअसल ‘गाँधी’ हमारी ‘सुविधा’ बन गए हैं। जहांं हमारा लाभ होता है; हम गाँधी की फोटो आगे कर; हिंद स्वराज की चार पंक्तियां पढ़ देते हैं, राष्ट्रगान गाने लगते हैं, तिरंगा लहराने लगते हैं, इंकलाब गूंजने लगता है। जी हां, स्वार्थ में अंधी आंंखें सुविधा देखती हैं। चाहें गाँधी हों, चाहें तिरंगा हो,  हमारे लिए ये सुविधात्मक प्रतीक-मात्र बन गए हैं।

‘सत्य और अहिंसा’ आज खिलौने बनते नज़र आते हैं

गाँधी जी के प्रमुख हथियार ‘सत्य और अहिंसा’ आज खिलौने बनते नज़र आते हैं। अपनी-अपनी ढ़पली है, अपना-अपना राग है। दरअसल गाँधी जी की सार्वभौमिकता खतरे में है। लोग गांधी की फोटो लेकर अपने आंदोलनों के लिए दूसरों को परेशान कर अपने ही कर्तव्यों का गला घोटने के लिए तैयार हैं।

इनसे पूछिए कि क्या ये लोग गाँधी जी की ‘स्वदेशी अवधारणा’ पर गांधी जी के साथ हैं? हिंदी की स्थिति पर क्या ये गांधी जी के विचारों के साथ हैं? साधन की पवित्रता पर क्या ये गाँधी जी के साथ हैं? इनका जवाब स्पष्टत: ‘नहीं’ है।

जहां अधिकारों की लड़ाई है, वहां आन्दोलनों में गाँधी की आड़ है। जहां कर्त्तव्यों का प्रणयन है, वहां एक लम्बी खामोशी है।

दरअसल, गाँधी की आड़ में एक ऐसी विचारधारा फैल गई है जिसे येन-केन-प्रकारेण ‘साध्य’ की तलाश है, साधन पर कोई ध्यान नहीं और इस प्रकार हमारे गाँधी रोज़ मारे जा रहे हैं। हाड़-मांस की हत्या के बाद आज यह गाँधी के विचारों की हत्या का दौर है। बहुत दुखद है यह। बहुत ही दुखद।

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