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“कहीं देर ना हो जाए आने में और आंच ना आ जाए घराने में”

उधड़ी हुई हूं मैं और बेचैन भी,
सहमी हुई हूं मैं और मायूस भी।

 

धर्म की नुमाइशों में तुम भूल गए हो मुझे,
किसी की ख्वाहिश के लिए तुम तोड़ रहे हो मुझे।

 

मैंने तुम्हे खुला आकाश और खुले विचार दिया,
तुमने मुझे भुला कर मुझे ही समेट दिया।

 

मेरी विरासत मेरे लोग हैं, उनके विचार हैं,
मेरी ताकत ही अभिन्नता में एकता और प्यार हैं।

 

मैं देख रही हूं और समझ रही हूं तुम्हारे मौन को,
बस इंतज़ार कर रही हूम कि तुम बोलोगे, अपने लिए, मेरे लिए।

 

दुआ यही करती हूं की तुम बोलोगे और मुझे बदलने पर मजबूर नहीं करोगे,
थोड़ा सोचना और जल्दी करना क्योंकि,

 

कहीं देर ना हो जाए आने में,
कही आंच ना आ जाए तुम्हारे घराने में।

– तुम्हारी भारत माँ

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