परुष प्रधान समाज में,
अबला नारी के लिबास में,
आंसू बहाकर,
बेचारी कहलाकर,
अब नहीं रहूँगी
यह मेरा प्रण है।
बुझता चिराग बनकर,
बन्द किताब बनकर,
मेरे अस्तित्व से हटकर,
घूंघट में घुटकर,
अब नहीं रहूंगी,
यह मेरा प्रण है।
स्वंय से छुपकर,
दुनिया से दबकर,
ढकोसलों में उलझकर,
कठपुतली बनकर,
अब नहीं रहूंगी,
यह मेरा प्रण है।
कुरीतियों की दिवार,
ढोंगियों का संस्कार,
धार्मिक अत्याचार,
पुरुषों का व्याभिचार,
अब नहीं सहूंगी,
यह मेरा प्रण है।
उपभोग का सामान बनकर,
मनोरंजन की दुकान बनकर,
जिन्दा कब्रस्तान बनकर,
सहनशक्ति की खान बनकर,
अब नहीं रहूंगी,
यह मेरा प्रण है।
शादी की गुड़िया बनकर,
दहेज की पुड़िया बनकर,
बेजान बनकर,
बेजु़बान बनकर,
अब नही रहूंगी,
यह मेरा प्रण है।