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“देश को व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी वालों से बचाना अब असली ज़िम्मेदारी हो गई है”

लगभग तीन सप्ताह से ज़्यादा हो चुके हैं जब पूरे देश में सरकार की नीतियों के खिलाफ इतने बड़े स्तर पर विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं। ऐसे में जहां सरकार को प्रदर्शनकारियों से संवाद स्थापित कर उनकी चिंताओं, आशंकाओं को दूर करना चाहिए था, वहीं वह अपने इस एक्ट के समर्थन में रैलियां आयोजित करवा रही है तथा समर्थन में मिस्ड कॉल कैम्पेन चला रही है।

फोटो साभार – सोशल मीडिया

मिस्ड कॉल कैंपेन भी निकला फुस्स

अजीब बात तो यह है कि 18 करोड़ से भी ज़्यादा सदस्यों वाली भारतीय जनता पार्टी को बिल के समर्थन में सोमवार की शाम तक केवल लगभग 53 लाख ही मिस्ड कॉल प्राप्त हो पाए थे। इतना ही नहीं पार्टी के लिए असहज स्थिति तब उत्पन्न हो गई, जब बहुत सारे सोशल मीडिया हैंडल्स, नंबर शेयर करके मिस्ड कॉल करने पर फ्री नेटफ्लिक्स और सेक्स चैट करने तक का प्रलोभन देते हुए दिखाई दिए।

ये सब करते वक्त सरकार शायद यह भूल रही है कि देश केवल बहुमत से नहीं चलता बल्कि जनमत से चलता है। “सबका साथ, सबका विकास” केवल चुनावी सभाओं में बोलने की चीज़ नहीं है, बल्कि यह ज़मीन पर लागू होने वाली आपकी नीतियों और आपके कामों में भी दिखना चाहिए।

उत्तर पूर्वी राज्यों में प्रदर्शन और भी बड़े स्तर पर हो रहे हैं, जिसके कारण पहले जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे, जो कि गुवाहाटी में प्रधानमंत्री मोदी से मिलने वाले थे, को अपनी यात्रा स्थगित करनी पड़ी और अब खबरें आ रही हैं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 10 जनवरी को “खेलो इंडिया” यूथ गेम्स का उद्घाटन करने गुवाहाटी नहीं जा रहे हैं।

फ्री नेटफ्लिक्स देने के वादे, फोटो साभार – सोशल मीडिया

मीडिया बन गई है प्रोपेगैंडा मशीनरी का हिस्सा

इन विरोध एवं समर्थन में हो रहे प्रदर्शनों के इतर एक बेहद गंभीर प्रवृत्ति के बारे में भी हमें सतर्क और चौकस रहने की ज़रूरत है और वह है मीडिया, खासतौर से हिन्दी टीवी मीडिया जिसकी पहुंच सबसे ज़्यादा है।

अधिकतर हिंदी न्यूज चैनल्स अब सरकार और रूलिंग पार्टी की प्रोपेगैंडा मशीनरी का हिस्सा लगने लगें हैं। ज़्यादातर मुद्दों पर उनकी एडिटोरियल पोज़िशन वही होती है, जो सत्ता पक्ष की होती है।

न्यूज एंकर्स जिनका मूल काम सरकार के कामकाज पर नज़र रखना, उनपर वाजिब सवाल करना, लोगों तक सही तथ्य और सूचनाएं पहुंचाना था, वे ये दोनो काम छोड़कर बाकि सबकुछ कर रहे हैं।

दुर्भाग्यवश कुछ न्यूज़ एंकर्स खुद को पब्लिक इंटेलेक्चुअल समझ बैठे हैं और सत्ता पक्ष में पब्लिक ओपिनियन बनाने में लगे हुए हैं। क्योंकि हम ऐसे दौर में हैं, जहां जो सच में इंटेलेक्चुअल्स हैं उनका मजाक उड़ाया जा रहा है ,सरकार समर्थक ‘बुद्धिजीवी’ शब्द को आजकल गाली की तरह इस्तेमाल करते हैं।सनद रहे कि फासिज्म का एक लक्षण “Disdain for Intellectual and The Arts” भी है।

लोगों से खुद ही इंटरैक्ट करना होगा

ऐसे में स्टूडेंट होने के नाते एवं तुलनात्मक रूप से एक प्रिविलेज्ड स्थान पर होने के नाते हमारी ज़िम्मेदारी और भी ज़्यादा बढ़ जाती है कि हम मीडिया द्वारा उत्पन्न किए गए सूचनाओं के अभाव को भरें। अपने घरों में, अपने आस-पास, दोस्तों एवं उन सबसे जिनका हमारी रोज़मर्रा के जीवन में किसी भी तरह से इंटरैक्शन होना है, उनसे बात करें।

उन तक सही तथ्य एवं सूचनाएं पहुचाएं। उन्हें अपनी लड़ाई, अपनी मांगों एवं उसके व्यापक प्रभावों के बारे बताएं। इससे पहले कि व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी फूलपत्ती वाले गुडनाईट, गुडमार्निंग के साथ फेक न्यूज़ और धार्मिक उन्माद से उन सूचनाओं की रिक्तता को भरें और उन्हें दिग्भ्रमित करे, उन्हें तर्कशील बनने में मदद करें।

प्रतीकात्मक फोटो

व्हाट्सएप फारवर्ड्स पर लोगों, खासतौर से अधेड़ उम्र के लोगों के विश्वास का सबसे बड़ा कारण यह है कि वे किसी विश्वस्त व्यक्ति के द्वारा आता है और वे उसे तुरंत सत्य मान लेते हैं।

वर्तमान सरकार बहुमत के अहंकार में आकंठ तक डूबी हुई है और यह सिर्फ एक किसी पार्टी विशेष की ही बात नहीं है, बल्कि दुर्भाग्यवश प्रचंड सत्ता का चरित्र दुनिया भर में ही यही है। इसलिए हमारी लड़ाई वर्तमान सरकार की गलत नीतियों, मनमानी, फीस वृद्धि के खिलाफ तो है ही पर इसके इतर यह एक बहुत लंबी लड़ाई भी है।

इसलिए यह लड़ाई तो हमें हर हाल में जीतनी ही होगी।

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