रवीश कुमार की किताब ‘द फ्री व्हॉइस’ का हिंदी प्रारूप ‘बोलना ही है’ एक ऐसी किताब है, जिसे हर भारतीय को पढ़ना चाहिए। आप उनकी सोच से असहमत हो सकते हैं, उनकी शैली आपको पसंद नहीं आ सकती है, किन्तु उनकी उस किताब में लिखा हुआ एक-एक शब्द देश की ज़्यादतर आबादी की सोच, बोलने, बात करने और दूसरों को देखने के नज़रिये की बिल्कुल सटीक कहानी बयान करता है।
सरकार और सरकारी तंत्रों द्वारा नागरिकों के अधिकारों का हनन
उन्होंने 2014 के बाद देश के बदले हालात और 2017 तक की वैसी घटनाओं का ज़िक्र किया है जो कहीं ना कहीं आम जनता से जुड़ी है।किताब में कई बार जार्ज ऑरवेल की 1949 में लिखी किताब 84 का हवाला देकर यह बताने की कोशिश की गई है कि कैसे सरकार और सरकारी तंत्र नागरिकों के अधिकारों का हनन कर रही है।
इस किताब में बार-बार सोचने और पढ़ने के लिये कहा जा रहा है। बताया गया है कि कैसे तंत्र पूंजीपतियों से मिलकर देश के नौजवानों को जानकारी ग्रहण करने से ना केवल रोक रही है, बल्कि दूसरे बेकार के मुद्दों में उलझा भी रही है।
किताब में धर्म के नाम पर टेलीविज़न पर चलाये जाने वाले पाखंड पर भी कटाक्ष किया है। रवीश कुमार जिस बेबाकी से बोलते हैं, कहते हैं उस हिसाब से यह किताब आपको शायद थोड़ा मायूसी दे लेकिन आप कहीं भी इसे पढ़ते हुए बोर नहीं होंगे। खासकर अगर 2014 के बाद से देश में होने वाले बदलाव को आपने महसूस किया है और आप भली-भांति उन घटनाक्रमों से अवगत हैं।
क्रांतियों के दौर में यह किताब तो पढ़ी ही जानी चाहिए
लिंचिंग, गौ रक्षा के नाम पर हत्याएं धार्मिक उन्माद, आई टी सेल की भयानक जालसाज़ी, देश के शैक्षणिक संस्थाओं पर हो रहे लगातार हमले, हमले चाहे सोच और विचारों के हों या किसी दूसरे कारणों से, राजनीतिक गलियारों से खासकर सत्ताधारी पार्टियों की प्लेट से गायब होते अहम और महत्वपूर्ण मुद्दे, देश की लचर होती अर्थव्यवस्था, दिशाहीन युवा और देश भर में क्रांतियों के दौर में यह किताब तो पढ़ी ही जानी चाहिए।
किताब में रवीश कुमार ने पुराने फेसबुक पोस्ट का भी उल्लेख किया है, जिसे उन्होंने अलग अलग मौकों पर लिखा था।
इस किताब के ज़रिये लेखक ने देश में मीडिया के रोल और हर दूसरे नागरिक को शक के निगाह से देखे जाने का एक सवरूप, जो हम सबने अपने अंदर पाल लिया है को आसपास की घटनाओं का उल्लेख कर समझाने की कोशिश की है।
कैसे मीडिया से लेकर धर्म और धर्म के ठेकेदार व्यापार तंत्र का हिस्सा बन गए हैं, इस सिलसिले पर नज़र डालने के साथ ही, हमारे सोचने और बोलने तक को सीमित करने की साज़िश की बात भी कही गई है।