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हम आदिवासियों का जोहार

हम आदिवासी

सबसे पुरानी सभ्यता के पोषक और वाहक हैं

जल, जंगल, ज़मीन

हमारी सभ्यता के आधार हैं।

 

कुछ तथाकथित

खुद को विकसित समझने वाले,

वैसे है नहीं वे

कहते हैं हमको

असभ्य, बर्बर और जंगली

नक्सली, वनवासी, गिरिजन

अनूसूचित जनजाति

और भी बहुत कुछ।

 

विकसित होने से उनका मतलब है

मतलब शब्द के अर्थों को

संदर्भित करता हूं यहां

जो मैंने किसी आधार पर अपना दृष्टिकोण नहीं बनाया

रिपोर्ट्स पढ़कर,

सरकारी रवैया देखकर,

नेताओं की डिबेट देखकर,

इसके अलावा

खुद कई विकसित लोंगो से बात करकर

अब उनके विकसित होने का मतलब समझा रहा हूं।

 

अच्छे कपड़े पहनते हो डेनिम वाले,

अच्छे घर में रहते हो जो कंक्रीट से बना होता है,

अच्छा भोजन करते हो रेस्टोरेंट में,

सोने-चांदी के आभूषण पहनते हो,

पूरे ज़मीन पर अपने लिये कंक्रीट की सड़कें बिछा देते हो,

फैक्ट्रियों में चिमनियों से ज्यादा धुंआ निकालते हो,

क्योंकि जितना ज़्यादा धुंआ

चिमनी छोड़ेगी मुनाफा उतना ज़्यादा होगा।

 

घर के कूड़े को नदी में फेंक देते हो

और फिर उसी पानी को पीते हो, आरओ से साफ करके

जंगलों में पशुओं की हत्या करते हो व्यापार के लिये,

आदिवासी समाज के लोगों को,

खदानें खोदने के लिये मारते हो और उजाड़ देते हो उनके घरों को,

पहाड़ों को चीर देते हो,

नदियों को सोख लेते हो और माँ भी कहते हो,

प्रकृति के सीने में छुरा घोंप,

बना देते हो असहाय और छोड़ देते हो मरने के लिए,

उनकी लिये सच्चे अर्थों में यही विकास है।

 

मगर शायद वह

इस खबर से अंजान है

या जानबूझकर अनजान बन रहे हैं कि,

प्रकृति से अब तक जो लड़ा है,

वह हारा ही है।

 

उनका अस्तित्व ही प्रकृति

और हम आदिवासियों से है

हम आदिवासियों ने और हमारे पुरखों ने

संजो रखा है

प्रकृति को उसके

इतने सुंदर, सौंदर्य रूप में।

 

वह निर्दयी

खुद को सभ्यता और संस्कृति का कहते हैं

रखवाले और वाहक

चाहते हैं

जंगलों को खोदना

उससे निकालना चाहते हैं

सोना- चांदी, कोयला, हीरा

और भी कुछ और बनना चाहते हैं

सबसे विकसित और अमीर।

 

किंतु भौतिक सुख में फंसे

हुए ये लोग

नहीं जानते कि

इस संसार में सबसे अमीर इंसान

वे हैं

जिनके पास हैं जल, जंगल, जमीन

बचाते हैं उनको हर परिस्थितियों में

जान की बाजी लगाकर।

 

वे इन बातों को जब समझना चाहेंगे

अमल में लाना चाहेंगे

तब नहीं मिलेगा उन्हें

कोई भी समझाने वाला,

क्योंकि तब तक वो प्रकृति को नोंच लेंगे

और हमकों मारकर दफना देंगे

कहीं कोयले की खदानों में,

हो जाएगी हमारी और प्रकृति की यूं हत्या।

 

उसके अगले दिन बिजली कड़केंगी,

ज़मीं फट जायेगी

सब अमीर धड़-धड़ करते हुए

धंस जायेंगे

ज़मीन में और इस तरह

प्रकृति ले लेगी अपना बदला।

 

किंतु जब तक

 हम आदिवासी ज़िंदा हैं

प्रकृति को रखेंगे वैसा ही जैसे वह थी

लड़ेंगे हम जल, जंगल, ज़मीन के लिये

अपनी जान को दांव पर लगाकर भी।

उलगुलान होता रहेगा

जोहार!

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