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पर्यावरण को बचाने के लिए ग्रेटा और रिद्धिमा जैसे बच्चों की ज़रूरत है

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दिल्ली के लोगों को प्रदूषण की वजह से मरने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता है। इससे अच्छा है कि लोगों को एक साथ ही मार दिया जाए। 15 बोरों में बारूद ले आइए और सबको उड़ा दीजिए। लोगों को इस तरह क्यों घुटना पड़े?

सुप्रीम कोर्ट की इस तल्ख टिप्पणी पर ज़रा गौर कीजिए। सोचिए, आपको इस तरह क्यों घुटना पड़ रहा है? क्या आप इसके अभ्यस्त हो गए हैं, या फिर और बुरे दिन देखने के इंतज़ार में हैं।

वर्तमान में सरकार ने सिंगल यूज़ प्लास्टिक पर रोक लगाई है, जिसके लिए उन्हें कानून का सहारा लेना पड़ा, लेकिन यह बगैर कानून के आम जागरूकता से भी तो संभव हो पाता, यदि नागरिकों के भीतर ज़रा सा पर्यावरण के प्रति लगाव होता। अब कानूनन पाबंदी के बाद भी सिंगल यूज़ प्लास्टिक का इस्तेमाल धड़ल्ले से हो रहा है।

फोटो प्रतीकात्मक है।

सिर्फ कानून बनने से सुधार नहीं होगा आम लोगों की जागरूकता है ज़रूरी

उपरोक्त बिंदुओं को उठाने का मतलब पर्यावरण को लेकर सरकारी उदासीनता को चिन्हित करना तो है ही, साथ ही आम आदमी की भूमिका और चेतना पर भी प्रकाश डालना है।

हम सबने देखा है कि इस साल दिवाली के दौरान दिल्ली में रोक के बावजूद लोगों ने बड़े चाव से पटाखे जलाएं। जबकि पिछले साल सख्ती की वजह कम पटाखे जलाए गए थे। यानी सिर्फ कानूनी सख्ती के कारण हम पर्यावरण की अनचाहे में शुभचिंतक बन गए हैं। प्रदूषण से सबको दिक्कतें होती रही हैं मगर नागरिकों में पर्यावरण को लेकर कोई संवेदना देखने को नहीं मिलती है। लगता है कि किसी को खतरा है ही नहीं।

इलेक्ट्रॉनिक दुनिया में मशगूल बच्चे प्रकृति से हो रहे हैं दूर

दरअसल, हम बचपन से ही पर्यावरण की चिंताओं से अलग-थलग रहते हैं, जबकि पर्यावरण की सुरक्षा हर किसी की ज़िम्मेदारी है। सामाजिक बदलावों की वजह से आज के बच्चे आंतरिक खेलों और इलेक्ट्रॉनिक यंत्रों को खेलने में मशगूल रहते हैं, वे अपना अधिकतर वक्त टेलीविज़न देखने, संगीत सुनने, वीडियो गेम खेलने या इंटरनेट पर सर्फिंग या कंप्यूटर का उपयोग करने में बिता देते हैं और उनके पास चारों तरफ यात्रा करने एवं चारों ओर प्राकृतिक दुनिया के बारे में जानने के लिए बिल्कुल भी वक्त नहीं होता है।

इससे ना सिर्फ बच्चों के स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ता है, वरन उन्हें अपने परिवेश और प्रकृति से विलगाव जैसी स्थिति का सामना करना पड़ता है। ऐसे में वे बच्चे वयस्क भी हो जाएं तो भी उन्हें प्रकृति के संरक्षण के बारे में जानकारी नहीं हो पाती है।

पर्यावरण संरक्षण की दिशा में जागरूक बच्चे

ग्रेटा थनबर्ग और रिद्धिमा पांडेय।

लेकिन इन सबके बीच कुछ बच्चे विश्वभर का ध्यान पर्यावरण संरक्षण की दिशा में खींचने का काम कर रहे हैं। क्लाइमेट चेंज की वजह से पर्यावरण को होने वाले नुकसान के मद्देनज़र 16 बच्चों ने यूएन में सरकारों के खिलाफ शिकायत दर्ज़ करवाई है। इनमें ग्रेटा थनबर्ग और रिद्धिमा पांडेय जैसे बच्चों का नाम भी शामिल है। विश्वभर को ऐसे ही बच्चों की ज़रूरत है। इसके लिए स्कूल स्तर पर पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूकता का काम होना ज़रूरी है।

पर्यावरण शिक्षा एक समूह या समाज तक ही सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि हर व्यक्ति को पर्यावरण के बचाव संबंधी जानकारी होनी चाहिए। यह एक लगातार और जीवनभर चलने वाली प्रक्रिया होनी चाहिए।

यदि बच्चों को पर्यावरणीय प्रदूषण, संसाधनों, मृदा अपरदन, संकट ग्रस्त पौधों एवं विलुप्त जानवरों के बचाव तथा संरक्षण के बारे में सिखाया जाता है, तो पर्यावरण के संरक्षण में काफी हद तक सुधार हो सकता है।

फोटो प्रतीकात्मक है।

स्टूडेंट्स को अपने वातावरण से परिचित कराने के लिए, प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और उनके लिए कार्य योजना की एक रूपरेखा भी तैयार की जानी चाहिए। सामाजिक भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिए पर्यावरण अध्ययन की अत्यधिक आवश्यकता है।

हालांकि हमारे देश में सरकार ने प्राथमिक शिक्षा से लेकर के उच्च और उच्चतर शिक्षा तक पर्यावरण को विषय के रूप में अनिवार्य तो किया है। लिहाज़ा बच्चे बतौर एक विषय इसे पढ़ तो लेते हैं लेकिन इसे व्यवहार में नहीं उतार पाते हैं? ज़रूरत है कि शिक्षण संस्थानों में पर्यावरण विषय को ना केवल विषय के रूप पढ़ाया जाए, बल्कि उसे व्यवहारिक रूप से सिखाया भी जाए, जिससे बच्चे उसकी अहमियत को समझें और उसके संरक्षण के उपायों को अपने जीवन में आत्मसात करें।

इसके लिए स्कूलों में पर्यावरण के जानकार शिक्षक हों। पर्यावरण विषय के लिए पर्यावरण प्रयोगशाला की भी सुविधा हो। किचन गार्डेन, स्कूल गार्डेन जैसी जगहों के निर्माण यदि हम बच्चों के माध्यम से करवाएं तो भविष्य में बेहतर परिणाम हम देख पाएंगे।

यह ठीक वैसी ही बात है जैसे जापान जैसे देशों में स्कूलों के बच्चे अपने स्कूल की सफाई खुद से करते हैं, जिससे वे सफाई के मायने और अहमियत को समझ पाते हैं।

कहा जा सकता है कि भारत को ग्रेटा थनबर्ग और रिद्धिमा जैसे बच्चों की ज़रूरत है, जो सरकार को सीख देने के साथ ही पर्यावरण के प्रति अपने कर्त्तव्य को भी निभा पाएं। मगर इसके लिए पर्यावरण को ‘पढ़ाना’ नहीं ‘समझाना’ ज़रूरी है।

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