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क्या ‘हम भारत के लोग’ इस देश के संविधान को अंतिम व्यक्ति तक पहुंचा पाएंगे?

आज़ादी के बाद देश के नेताओं ने जिस ‘भारत के विचार’ का सपना देखा था, वह सपना जब हमारे देश का संविधान बना, तो संविधान की प्रस्तावना में वास्तविक रूप में वह देश के सामने था। अगर संविधान की प्रस्तावना को देखें, तो हमारा संविधान किसी एक अवधारणा में सिमटता नहीं है। यह एक समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, सभी को विचार, धर्म, विश्वास और उपासना की अभिव्यक्ति ,संघवादी, भाषाई तथा धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकार के प्रति प्रतिबद्ध संविधान है।

संविधान को लागू हुए 71 साल हो चुके हैं। आज इस बात की समीक्षा की जानी चाहिए कि संविधान की प्रस्तावना में वर्णित अवधारणाओं की वास्तविक धरातल पर क्या स्थिति है?

हमारे अधिकारों की वास्तविक स्थिति

संविधान की प्रस्तावना में वर्णित पहला महत्वपूर्ण शब्द “समाजवाद” है। समाजवाद का सामान्य अर्थ होता है कि समाज या देश में जो उत्पादन के साधन हैं, उस पर समाज का प्रभुत्व या जनता द्वारा चुनी गई सरकार का प्रभुत्व होगा। यानी कि समाजवादी राष्ट्र में निजी क्षेत्र का स्थान नहीं होता है।

भारत में अगर आंकलन करें तो स्थिति बेहतर नहीं है बल्कि बद से बदतर होती जा रही है। आज़ादी के बाद ही मानव जीवन को गुणवत्तापूर्ण बनाने वाले मानक जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य आदि को सार्वजनिक के साथ-साथ निजी क्षेत्रों को भी दे दिया गया, जिसके दुष्परिणाम आज हमारे सामने हैं।

1991 की आर्थिक सुधार नीति के बाद से संविधान का समाजवाद सिर्फ दिखावे का होता जा रहा है। देश में आर्थिक उदारीकरण के नाम पर निजीकरण को थोपा जा रहा है। 1991 के बाद से देखें तो देश में जल, जंगल, ज़मीन इन तीन महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधनों पर विशिष्ट समूह और व्यक्तियों का कब्ज़ा होता जा रहा है।

वर्तमान सरकार ने हर समस्या का हल निकाला है कि अगर कोई समस्या हल करनी है तो उस समस्या का निराकरण ना करके निजीकरण कर दो।

धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को नकारा जा रहा है

धर्मनिरपेक्षता का सामान्य अर्थ होता है कि राज्य का कोई धर्म नहीं होगा, राज्य किसी भी समुदाय को धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं करेगा। “भारत विविधताओं का देश है और इस विविधता का सम्मान करके ही एक मज़बूत राष्ट्र बनाया जा सकता है।”

यह बात हमारे देश के राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय नेताओं को पता थी। इस बात को सबसे ज़्यादा देश के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने बल प्रदान किया। उन्होंने भारत में सभी धर्मो और जातियों की एकता पर बल दिया।

बाबा साहब भीमराव अंबेडकर ने बार-बार धार्मिक सांप्रदायिकता के प्रति लोगों को आगाह किया। देश के तमाम नेताओं ने जो भारत की विविधता का सम्मान करते थे ,उन्होंने भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने का सपना देखा था। उसे आज़ादी के बाद स्वीकार किया गया। लेकिन आज धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को नकारा जा रहा है।

भारत में राज्य द्वारा अपना एक धर्म अपना लिए जाने का खतरा दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। ऐसा लग रहा है कि एक लोकतांत्रिक प्रणाली में सरकार एक धर्म से संबंधित जनता को अपने लिए चुन रही है। वह उसके मूल्यों और सिद्धांतों के अनुसार संचालित होती प्रतीत हो रही है।

सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्याय

आज़ादी के बाद देश के सामने जो सबसे बड़ी चुनौती थी, वह यह थी कि भारत में जो वंचित समुदाय है उसको न्याय सुनिश्चित किया जाए? सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्याय का अर्थ है कि सबको गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार मिले, वर्ण या जाति के आधार पर कोई भेदभाव ना हो, सभी लोगों को आर्थिक समानता मिले और लोकतंत्र में सबकी भागीदारी सुनिश्चित हो।

संविधान निर्माताओं ने देश में सदियों से वंचित और उपेक्षित समुदाय जिसे दलित (अनुसूचित जाति और जनजाति) समुदाय कहा जाता है ,उनको आज़ादी के बाद उनकी आबादी के अनुपात में राजनीतिक और आर्थिक आरक्षण का प्रावधान किया और किसी भी प्रकार के भेदभाव को एक दंडनीय अपराध माना। लेकिन आज भी दलितों को सामाजिक भेदभाव का सामना करना पड़ता है।

आबादी का एक बहुत बड़ा तबका जो अछूत नहीं समझा जाता था लेकिन उतना ही वंचित और उपेक्षित था ‘उसको स्वतंत्र भारत में कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिला। इन समुदायों को चिन्हित करने के लिए कई आयोग बने जैसे काका केलकर आयोग और बाद में मंडल आयोग बनाया गया और अंत में 1990 ई में वीपी सिंह की सरकार के द्वारा इन समुदायों को नौकरी और उच्च शिक्षा में 27% आरक्षण का प्रावधान किया गया और इन जातियों का सशक्तिकरण हुआ।

लेकिन यहां भी एक विसंगति देखने को मिलती है। इस आरक्षण का उपयोग कुछ विशेष जातियों को मिला जो राजनीतिक और आर्थिक रूप से पहले से शक्तिशाली थी और मुख्य वंचित और उपेक्षित जातियां इस आरक्षण से पूरी तरह विमुख रही। उनको आज भी पूरी तरह से राजनितिक और आर्थिक न्याय नहीं मिल पाया है।

आपराधिक घोषित जातियों के साथ अन्याय

जो सबसे मुख्य त्रासदी रही है, वह भारत में ब्रिटिश कालीन ” आपराधिक जनजातीय अधिनियम” रही, जिसमें कुछ जातियों को आपराधिक जातियां घोषित कर दिया गया था। उस पर संविधान निर्माताओं ने ध्यान नहीं दिया।

इस अधिनियम के तहत सम्मिलित जातियां को आज़ादी के बाद आज तक सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित नहीं किया जा सका है। प्रशासनिक व्यवस्था आज भी इन जातियों के साथ ब्रिटिश प्रशासन की तरह व्यवहार करती हैं। हालांकि आपराधिक जनजातियों के कल्याण के लिए भारतीय राज्य द्वारा प्रयास किए गए हैं लेकिन वे कम है। इस पर और काम किए जाने की ज़रूरत है।

इनमें से कुछ जातियों को “अन्य पिछड़े वर्ग “में शामिल करके उन्हें अधिकार दिए गए हैं लेकिन अभी भी बड़ी संख्या में इन जातियों के लोग वंचित और उपेक्षित अवस्था में हैं ।

विचार ,धर्म,उपासना और विश्वास की अभिव्यक्ति

विचारों की अभिव्यक्ति को देश के संविधान निर्माताओं ने महत्वपूर्ण माना। उन्होंने संविधान में यह व्यवस्था दी कि विचार कोई भी हो, उन्हें व्यक्त करने से रोका नहीं जा सकता सभी को अपने विचारों को रखने की स्वतंत्रता संविधान द्वारा सुनिश्चित की गई।

हालांकि इस पर भारतीय राज्य द्वारा समय-समय पर अवरोध लगाए गए। इंदिरा गाँधी के समय इमरजेंसी के दौरान ऐसा किया गया लेकिन ज़्यादातर समय भारतीय राज्य द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को स्थापित रखने का प्रयास जारी रखा गया।

अगर वर्तमान के हालात को देखें तो आसानी से अंदाज़ा लगा सकते हैं कि स्थितियां अब बदल रही हैं जैसे,

संविधान में सभी को अपने धर्म के अनुसार अपने विश्वास, उपासना की मनाने की स्वतंत्रता प्राप्त प्रदान की गई। भारतीय राज्य द्वारा इस स्वतंत्रता पर कभी कोई प्रतिबंध नहीं लगाया गया लेकिन आज यह निश्चित किया जा रहा है कि कौन क्या खाएगा? क्या पहनेगा? क्या बोलेगा? बहुसंख्यक आबादी के आचार व्यवहार तथा संस्कृति को अन्य अल्पसंख्यक आबादी पर थोपने की कोशिश की जा रही है।

एनआरसी और नागरिकता कानून के खिलाफ विरोध प्रदर्शन

अवसर की समता

संविधान में बिना भेदभाव के सभी को अवसर की समानता की बात कही गई लेकिन वास्तविक धरातल पर यह अवधारणा शुरू से लेकर आजतक नहीं आ पाई है।

अवसर की समता की राह में जो प्रतिरोध है , उन्हें समाप्त करने के जो भी प्रयास किये गये हैं वो बहुत थोड़े है।

इस इस प्रकार कहा जा सकता है कि भारत के संविधान निर्माताओं ने जो सपना देखा था वह आज भी अधूरा है। इस गणतंत्र दिवस आज ज़रूरत इस बात की है कि ‘हम भारत के लोग’ संविधान को सुरक्षित रखने के साथ-साथ संविधान की प्रस्तावना में वर्णित अवधारणाओं को धरातल पर लाए।

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