मैं चाहता हूं कि मेरे घर की लड़कियों में से किसी को पड़ोस के लड़के से प्यार हो जाए। किसी को बिरादरी से बाहर प्यार हो जाए, तो किसी को गैरमज़हबी लड़के से प्यार हो जाए। फिर देखते हैं, जड़ हो चुकी परंपराओं का दामन थामे हम कितनी दूर तक चलते हैं।
मैं यह अपने लिए क्यों नहीं कह रहा हूं, क्योंकि मैं फिर भी एक लड़का हूं। मेरी स्थिति अपेक्षाकृत थोड़ी अलग है। मेरे लिए धर्म, समाज और जातीय बंधन कोई मायने नहीं रखते हैं लेकिन औरों की स्थिति ऐसी नहीं है।
रीति-रिवाज़ व परंपरागत सामाजिक मान्यताओं के चटकने और टूटकर बिखर जाने की आवाज़ बड़ी ही सुकून देह होती है। ऐसी आवाज़ें कान को खटकती नहीं हैं, तसल्ली देती हैं।
प्रेम कांच है और मान्यताएं धूल की मोटी परत, जबतक उसपर पत्थर का टुकड़ा नहीं लगेगा, लोगों को कुछ पता नहीं चलेगा। इस तरह का प्रेम जब सामाजिक दायरे में आता है, तब कांच पर वर्षों से पड़ी धूल जैसे कुछ झड़ जाती है और प्रकाश पूर्णतः रिफ्लेक्ट ना होकर अंशतः अंदर आने लगता है।
जिसने प्रेम किया है वह भी इस बात को समझता है, किंतु इसे स्वीकार करने की उसमें ना तो सामर्थ्य होती है और ना ही हिम्मत। वह अक्सर एक लाचार संवेदनहीन और न्यूट्रल व्यक्ति ही बना रहता है। इससे अधिक यदि कुछ सोच सकने की हिम्मत होती है, तो बस इतनी कि सब तो ठीक है लेकिन समाज व जात बिरादरी को नहीं समझाया जा सकता, रहना तो हमें उनके ही बीच है… वगैरह वगैरह। यह अपना बचाव करने का एक निहायत ही घिसा-पिटा तरीका है।
खैर, लड़कियों को लेकर हम ज़रूरत से कहीं ज़्यादा ही इज्ज़तदार बन जाते हैं। उनकी एक-एक गतिविधियों पर हम ऐसे नज़र गड़ाए रहते हैं, जैसे कि विश्वास नाम का शब्द उनके संदर्भ में हमेशा संदेहास्पद ही रहता है।
यह सही है कि नैतिक ज़िम्मेदारियों से मुक्त होकर परिवार नहीं चलाया जा सकता है, इसलिए ज़रूरी है कि पढ़ाई-लिखाई, नौकरी पेशा आदि पहलूओं के साथ ही बाकी विषयों पर भी खुलकर बात हो, जैसे कि प्रेम संबंध। खासकर लड़कियों के मामले में यह पहल कहीं अधिक किए जाने की ज़रूरत है।
2018 में सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाते हुए कहा था कि खाप पंचायत का किसी भी शादी पर रोक लगाना अवैध है किंतु हर घर में एक खाप है, जिसको दरकिनार करना अभी बाकी है। इससे पता चलता है कि हम लड़कियों के प्रेम को लेकर कितने असंवेदनशील, रूढ़िवादी और कट्टर हैं, जहां अपनी कुंठित मानसिकताओं को ज़िन्दा रखने के लिए किसी हद तक जाना हमारे लिए आसान बात सी हो गई है।
ठीक-ठाक पढ़े-लिखे समझदार लोग तो थोड़ी बात भी कर लेते हैं पर उनका क्या जो प्रेम को अब भी अपराध या छुप-छुपाने की चीज़ ही समझते हैं। कितनों को हर रोज़ परिवार की खुशी के लिए प्रेम की बलि देनी पड़ती है, कितनों का प्रेम हर रोज़ हमारी मान्यताओं की चौखट पर सर पीट-पीटकर दम तोड़ देता है और जाने कितने लोगों का प्रेम जैसी निहायत ज़रूरी चीज़ से इसलिए विश्वास उठ जाता है कि वे इस हद तक टूटते हैं कि हिम्मत जुटाने में वर्षों लग जाते हैं।
विज्ञान में एक कहावत है, “ठंड तभी तक कंपाती है जबतक कंबल ओढ़े बैठे रहते हैं”, वर्ना बहुत लड़कियां ऐसी भी हैं, जिनके लिए संस्कारों की चादर उतारकर फेंक देना कोई बड़ी बात नहीं होती है।
यह इसलिए भी आसान हो जाता है क्योंकि वे सामाजिक मान्यताओं की परवाह नहीं करती हैं। यह तेवर यूं ही नहीं आता है, यह हिम्मत महज़ जुनूनी नहीं होती है, इसकी पूरी प्रक्रिया है, जो लड़ते-भिड़ते समझ आ ही जाती है।
हम जहां से आते हैं, वह शहर नहीं, गॉंव है और गॉंव के संस्कार में प्रेम का स्थान शहरों की तुलना में सौ गुना ज़्यादा भयंकर अपराध की श्रेणी में रखा गया है मगर यह हो ही जाता है, सबसे ही। हम संस्कारों से बंधे सीधे-साधे लोग बेचारे इसपर बात ही नहीं करते हैं, यह डर कब खत्म होगा?
आखिरकार है तो वह झूठा संस्कार ही, तो उसे ओढ़े कब तक बैठे रहना है? विद्रोहिणियां इसकी परवाह नहीं करती हैं, क्योंकि प्रेम की यह लड़ाई केवल प्रेम तक सीमित नहीं रहती है। तमाम परिस्थितियों से लड़ते-भिड़ते यह अस्तित्व और वजूद की लड़ाई बन जाती है।
सारा दोष लड़कियों के ही हिस्से आता है, लड़कों के लिए कभी-कभी तो कुछ भी नहीं बचता है। जवाब लड़कियों को ही देना होता है, जब पितृसत्तात्मक सोच से लैस परिवार उनसे चुप रहने की उम्मीद करता है। यह लड़ाई कोई आज की हो ऐसी भी बात नहीं है, सदियों से प्रेम की स्वतंत्रता के लिए लड़कियां लड़ती रही हैं और आगे भी उन्हें ही लड़कर इससे पार जाना होगा।
अपने आस-पास देखिए हर तरफ नफरत और वैमनस्य है, व्यवस्था ने किसी को कहीं का नहीं छोड़ा है। संवेदनशीलता खत्म होती जा रही है, ऐसे में तो प्रेम की ज़रूरत समाज को कहीं ज़्यादा है। हम पाबंदियों के हिमायती बनकर कौन सी खूबसूरत दुनिया बनाना चाहते हैं?
मैं कहता हूं यह मोर्चा मेरे घर की लड़कियां जितनी जल्दी संभाल लें, उनके लिए उतना ही अच्छा होगा, वरना यह पितृसत्तात्मक समाज उन्हें छोड़ने वाला नहीं है।
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