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“जब गुलाम थे तो अहिंसा से देश जीता, आज आज़ाद हैं तो हिंसा से देश गंवा रहे हैं”

30 जनवरी 2020 यानी कि आज महात्मा गाँधी की 72वीं पुण्यतिथि है। अहिंसा से युक्त उनके सभी स्वतंत्रता हेतु लड़े आंदोलन देश की स्वतंत्रता में अहम भूमिका निभाते हैं। लेकिन आज सवाल यह उठता है कि क्या आज भी अहिंसा के बल पर देश में बदलाव लाए जा सकते हैं?

मेरे हिसाब से जब इतने बड़े-बड़े स्वतंत्रता आन्दोलनों को अहिंसा के माध्यम से ना सिर्फ लड़ा गया, बल्कि हमारी जीत भी हुई, तो आज जब हम पूर्णतः स्वतंत्र देश के नागरिक बन चुके हैं तो हमें अपनों से ही हिंसात्मक व्यवहार करने की क्या आवश्यकता है?

हमने कई लड़ाईयां अहिंसा के रास्ते से जीती

देश में कई ऐसी समस्याएं हैं, जिनका समाधान करने हेतु सबके अपने विचार होते हैं, किन्तु उन विचारों को शान्तिपूर्ण ढंग से विरोध करते हुए भी रखने की हमें आज़ादी मिली हुई है। बसें जलाना आग लगना हिंसात्मक व्यवहार करना कहां तक सही है? हम अपने विचार रखने के अधिकारी हैं, बहुमत होने पर हमें प्राथमिकता दे दी जायेगी। ऐसे में अपने विचार को किसी अन्य पर थोपने में कहां समझदारी है?

अभी हाल ही में लागू NRC और CAA बिल पर लोगों से लेकर पुलिसवालों ने दंगे शुरू कर दिए, चक्का जाम से लेकर हिंसा। जो-जो वे कर सकते थे, उन्होंने किया। लेकिन क्या किसी ने यह सोचा कि वे ये सब आखिर किसके साथ कर रहे हैं?

बिल सरकार ने पास किया, बात हमें सरकार से करनी है। धरना प्रदर्शन इत्यादि हमें उनके लिए करना था। पर हिंसा किसपर हुई? अपनों पर, जब देश हमारा है तो इसके निवासी भी तो अपने हैं?

इन सभी के पीछे आखिर क्या वजह है कि आज जब सही मायनों में अहिंसात्मक ढंग से अपनी बातों को रखा जाना चाहिए और देश में बदलावों की ओर मिलकर कदम बढ़ाने चाहिए, तब उस स्थिति में आखिर यह हिंसात्मक व्यवहार और अपनों में ही भेदभाव क्यों किया जा रहा है?

आज होती हिंसा के क्या कारण है?

इसके पीछे कारण यदि मेरे विचार से कोई है तो वह है कर्तव्यों को भूल केवल अधिकारों की लड़ाई लड़ने पर ध्यान देना। अपने देश में जहां पुराने समय में कर्तव्यों के निर्वहन पर ज़ोर दिया जाता था, वहीं आज हर समय केवल अपने अधिकारों हेतु लड़ना सिखाया जाता है। मैं यह नहीं कह रही कि अधिकारों के लिए लड़ना गलत है। किंतु अधिकारों हेतु लड़ने के साथ ही स्वयं को सक्षम बनाना और अपने कर्तर्व्यों का निर्वहन भी हमारी ही ज़िम्मेदारी है।

क्या इन सभी मुद्दों का निवारण बिना हिंसात्मक हुए नहीं किया जा सकता था? सरकार को लगता है कि वह जो करे यह उसका अधिकार है। जनता सोचती है हमारे समुदाय का हनन ना हो यही हमारा अधिकार है। जबकि सही मायनों में जनता का कर्तव्य है कि वह केवल अपने समुदाय के विषय में ना सोच संपूर्ण देश के विषय में सोचें और सरकार का कर्तव्य है कि किसी भी ऐसे विचार जिसमे सम्पूर्ण देश का कल्याण शामिल है, उसमें जनता के विचारों को भी अहमियत दी जाए।

यदि यही कार्य बहुमत के आधार पर होता, तो शायद देश में इतने दंगे ना हुए होते। आज का ज़माना बदल रहा है। डिजिटल युग में पोल के माध्यम से भी अपनी बातों का समर्थन किया जा सकता था। किंतु इस अधिकार की लड़ाई में हमने कर्तव्यों को पूर्णतः दरकिनार कर दिया है।

अपनों के साथ ही हिंसा कर रहे हैं

हमें इस बात का ज़रा भी आभास नहीं होता कि आखिर यह हिंसात्मक व्यवहार हम किसके साथ कर रहे हैं? क्या जिन लोगों के साथ हिंसा की जा रही है, वे अपने देश के निवासी नहीं थे? क्या वे कहीं बाहर से आये हुए लोग थे? हमें अपनों को तकलीफ में देख दुःख होता है। हम अपने समुदाय के लिए लड़ना चाहते हैं लेकिन क्या जिनसे हम लड़ रहे हैं, वे अपने ही देश के निवासी, अपना ही समुदाय अपना ही परिवार नहीं हैं?

अपने देश से बाहर निकलने पर हम क्या कहलाते हैं? मुस्लिम? ब्राम्हण? सिख? नहीं। हमारी nationality हिन्दू है। हम हिन्दू कहलाते हैं। जिसका अर्थ होता है भारत के निवासी। भारतवासी।

जब बाहर हम अपने देश की शान हैं, तो अपने घर के अंदर हम अलग-अलग क्यों हैं? हमारे परिवार का नाम भारत है और इसके अंदर के सदस्य अलग अलग धर्म हैं। जैसे बुआ भाई बहन दादा दादी होते हैं, ठीक उसी प्रकार। जैसे परिवार में इंसान हर बात पर अलग-अलग विचार रखता है, सभी एक बात से सहमत नहीं होते, ठीक इसी प्रकार देश के अंदर हर कोई हर विचार से सहमत हो सही नहीं है।

लड़ाइयां तो चलेंगी, विवाद भी होंगे, पर जिस दिन हम इन विवादों को पारिवारिक मुद्दों की तरह हिंसात्मक ना होते हुए अहिंसात्मक रूप से रखना शुरू कर देंगे, भले ही कोई सहमत हो अथवा असहमत, फिर भी ये विवाद स्वतः समाप्त होने लगेंगे।

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