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“अगर गाँधी होते तो आज के आंदोलनों की रुपरेखा क्या होती?”

गाँधी

गाँधी

हमारे देश में बड़े-बड़े भाषणों को गाँधी जी पर गढ़ा गया है लेकिन ध्यान रखिएगा कि हमने गाँधी को सिर्फ भाषणों में ही समझने की कोशिश की है। गाँधी के मूल्यों को अपने जीवन में उतारने में हम पूरी तरह से फेल हो गए हैं।

वहीं, दूसरी तरफ ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जो गाहे-बगाहे गोडसे को देशभक्त बताते हुए मिल जाते हैं। वे गोडसे की बंदूक की नीलामी करवाते हुए यह साबित करना चाहते हैं कि गोडसे को चाहने वाले कितने हैं। विभिन्न समस्याओं की जड़ को गाँधी के ज़रिये ही तलाशने की कोशिश की जाती रही है।

अपनी शान में झूठी विद्वता दिखाने वाले भूल जाते हैं कि गाँधी एक विचार हैं, जो हर समय प्रासंगिक रहेंगे। खुद गाँधी जी ने कहा था, “मैं इस संसार को कोई संदेश नहीं दे सकता हूं लेकिन मेरा जीवन स्वयं एक संदेश है।”

आंदोलनों में गाँधीवादी विचारधारा को शामिल करने की ज़रूरत

प्रतिकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

अफ्रीका से लौटने के बाद जब गाँधी जी भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष में सम्मिलित हुए थे, तब उनके द्वारा प्रयोग किए गए विभिन्न हथियार आज के समय में भी प्रासंगिक हैं। मसलन, पिछले साल हुए अनेक आंदोलन जो सफलता के करीब पहुंचकर असफल हो गए, उनकी असफलता का बड़ा कारण गाँधीवादी विचारों से दूर होना ही रहा है।

उस समय के अंग्रेज़ों की निरंकुश सत्ता को गाँधी जी के अहिंसा और सत्य ने जड़ से हिलाकर रख दिया था लेकिन गाँधी के अनुयाई होने का दम्भ भरने वाले इस देश के निवासियों ने पिछले वर्ष के आंदोलनों में हिंसा को सम्मिलित कर लोगों की सहानुभूति खो दी है।

यह याद रखने का विषय है कि किसी भी आंदोलन में जैसे ही आप हिंसा का सहारा लेते हैं, आपका आंदोलन अपने मूल उद्देश्य से भटक जाता है। आप अपने आंदोलन को दमन करने का अवसर स्वयं ही प्रदान करते हैं। आपका आंदोलन चाहे जिस रूप में रहे, असफल होना तय है।

याद रखिए अहिंसात्मक विरोध अलग चीज़ है लेकिन हिंसात्मक विरोध अपनी शक्ति और सहानुभूति दोनों खो देते हैं। किसी भी प्रकार की हिंसा से हुई सार्वजनिक सम्पत्ति के नुकासन या जानमाल को किसी भी तरीके से तर्कपूर्ण नहीं कहा जा सकता है।

गाँधी जी ने भी कहा था,

पवित्र साध्य की प्राप्ति के लिए साधन भी उतने ही पवित्र होने चाहिए। इसलिए सफल और असफल आंदोलनों के बीच की यह महीन लेकिन अतिप्रभावकारी लकीर को पहचानना ज़रूरी होता है। सत्य और अहिंसा आज भी सबसे घातक हथियार है, जिसे रोकने के लिए कोई कदम उठाने से पहले विभिन्न व्यवस्थाएं हज़ार बार सोचती हैं। अन्ना का आंदोलन भी गाँधीवाद से ही प्रेरित था, जो शायद स्वतन्त्र भारत के सबसे सफल आंदोलनों में से एक रहा है।

‘मेक इन इंडिया’ में गाँधी की विचारधारा की झलक

नरेन्द्र मोदी। फोटो साभार- Getty Images

गाँधी जी आज कई मायनों में प्रासंगिक है। जैसे- चरखा द्वारा सूती वस्त्र काटने से लेकर स्वदेशी चीज़ों को प्रयोग करने की बात हम ‘मेक इन इंडिया’ अभियान में देख सकते हैं। आज हम सांप्रदायिकता की आग में जल रहे हैं लेकिन शायद उतनी नहीं, जितनी गाँधी के समय नोआखली में थी।

गाँधी जी ने तब भी सत्य और अहिंसा के बल पर उसको शांत किया था। यद्यपि गाँधी जी साम्प्रदायिकता के आधार पर भारत विभाजन को नहीं रोक पाए लेकिन फिर भी उन्होंने लड़ते हुए कहा था, “बंटवारा हमारी लाश पर होगा।” लेकिन जिन्ना की ज़िद्द और तत्कालीन परिस्थितियां भारत विभाजन का कारण बनीं।

युद्ध जैसे हालात में गाँधी की प्रासंगिकता

महात्मा गाँधी। फोटो साभार- Getty Images

आज पूरा विश्व, युद्ध के दरवाज़े पर खड़ा लगता है। गाँधी अगर आज होते तो निश्चित ही वे शांति और अहिंसा के बल पर इस स्थिति को रोकने का प्रयास करते। दलितों के हितों के लिए भी उनके द्वारा अनेक आंदोलन चलाए गए। यहां तक कि उन्होंने एक बार कहा था,

मैं किसी भी ऐसी शादी में सम्मिलित नही होऊंगा, जिसमें लड़का या लड़की में से कोई एक दलित ना हो।

दलित अधिकारों के लिए उन्होंने कई बार आंदोलन किए। यरवदा जेल में वह आमरण अनशन पर रहे। यरवदा जेल से गाँधी जी का संगीत प्रेम याद आता है। वह संगीत के बहुत प्रेमी थे। यरवदा जेल में कैद के समय वह “उठ जाग मुसाफिर भोर भई,अब रैन कहां जो सोवत है” गाना गाते थे। कहा जाता है कि उस समय जेल के सारे कैदी यह गाना गाने लगे और एक अलग ही माहौल बन गया।

फिर ‘वैष्णव जन ते——, रघुपति राघव राजा—- आदि उनके प्रसिद्ध भजनों को हम भूल नहीं सकते हैं। गांधी जी ने एक बार तत्कालीन न्याय व्यवस्था पर टिप्पणी करते हुए कहा था,

इस देश में अन्य सरकारी संस्थाओं की तरह कानूनी अदालतें भी ज़रूरत के मौकों पर सरकार की रक्षा के लिए कायम की गई हैं। इस तरह के अनुभव हमें बार-बार हो चुके हैं। अदालतें बुनियादी तौर पर ऐसी ही हैं।

गाँधी जी ने किसानों के लिए भी चम्पारण सहित अनेक सफल आंदोलन किए। अगर हम देखें तो गाँधी की भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में जननेता के रूप में स्वीकृति का आधार ही किसान आंदोलन बने।

हम संपूर्ण गाँधी को कब जिएंगे?

एक नज़र में देखें, तो हम पाएंगे कि गाँधी जी ने उस समय उन सभी समस्याओं का सामना किया, जो आज हमारे सामने मौजूद हैं। इनका स्थाई हल गाँधीवाद में ही निहित लगता है। वास्तव में गाँधी जी की सभी बातों को आज की परिस्थितियों से अगर देखें तो प्रासंगिक लगती हैं।

अगर उनकी बातें, उनकी जीवन शैली आदि को हम आज के समय प्रयोग करें, तो निश्चित ही हमारे समाज और संसार की अधिकांश समस्याएं स्वतः ही खत्म हो जाएं लेकिन संसार से पहले गाँधी को हम भारतवासियों को जीना है, क्योंकि गाँधी यद्यपि वैश्विक हैं लेकिन वैश्विक होकर भी ओ पहले भारतीय हैं।

इसलिए यह सोचने का विषय हमारा है कि 150 सालों में हम गाँधी को क्यों आत्मसात नहीं कर पाएं? यह हमें तय करना है कि हर वर्ष उनकी जयंती पर हम एक विशेष कार्यक्रम, लक्ष्य या मिशन की शुरुआत ही करेंगे या फिर संपूर्ण गाँधी को जिएंगे?

वास्तव में गाँधी स्वयं में ही मानवता की प्रतिमूर्ति, एक कार्यक्रम, एक मिशन और एक लक्ष्य हैं और उससे भी बढ़कर एक ईश्वरीय विचार हैं। अगर हम गाँधी को जीने लग जाएं, तो हमें एहसास होगा कि उन्होंने सही कहा था, “गांधी मर सकता है लेकिन गाँधीवाद नहीं।” इसलिए गाँधीवाद आज भी ज़िंदा और प्रासंगिक है।

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