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घरवालों के विरुद्ध, पति से तलाक की लड़ाई लड़ रही मेरी दोस्त तुम मिसाल हो

साल 2012 की बात है, मेरा ग्रैजुएशन कम्प्लीट ही हुआ था। कॉलेज, हंसी-मज़ाक, दोस्तों में रुठना मनाना और थोड़ी बहुत नौकरी की चिंता, मेरी ज़िन्दगी की गाड़ी बस इन्हीं चीज़ों के इर्द-गिर्द चल रही थी। कुल मिलाकर मैं अल्लहड़पन के साथ अपनी ज़िन्दगी जी रही थी।

लेकिन, उसी साल शहर के एक दूसरे कोने में मेरी बचपन की दोस्त की ज़िन्दगी इतनी आसान नहीं थी। अल्लहड़पना का तो कई अंश ही नहीं था उसके जीवन में। उस वक्त उसके जीवन का मतलब, दोस्त, पढ़ाई, कॉलेज या नौकरी नहीं था बल्कि उसकी ज़िन्दगी की तस्वीर पति, पति की ज़बरदस्ती, मैरिटल रेप, शरीर पर दर्जनों चोटों के ज़ख्म से भरी हुई थी। वो हमारे उस समाज की शिकार बन चुकी थी, जहां औरतों का अस्तित्व सिर्फ शादी और पति की जागीर तक समेट दिया जाता है।

लेकिन, मुझे खुशी है कि मेरी उस दोस्त ने समाज को उसकी औकात दिखाते हुए अपनी ज़िन्दगी अपने हाथों लिखने का फैसला किया और आज 6 साल बाद भी उसका विरोध और संघर्ष जारी है।

स्कूल के बाद मेरी इस दोस्त से मेरा कोई संपर्क नहीं था, हमलोग ज़िन्दगी के अपने-अपने रास्तों की ओर बढ़ चुके थे। कई सालों बाद हाल ही में मेरी उससे मुलाकात हुई और तभी मुझे उसके इस संघर्ष के बारे में पता चला।

मेरी दोस्त के घर वालों ने ज़बरदस्ती उसकी शादी करवा दी थी। और उस इंसान के लिए मेरी दोस्त एक पत्नी नहीं बल्कि पत्नी के रूप में उसे अपनी शारीरिक इच्छा पूरी करने की एक मशीन मिल गई थी। जिस उम्र में आपको सेक्स की कुछ ज़्यादा समझ नहीं होती है, उस वक्त सेक्स से हैवानयित के रूप में सामना हो, तो जीवन डरावनी लगने लगती है, प्यार का यह रूप एक खौफनाक डर बन जाता है।

मेरी दोस्त का शादी से पहले एक प्यारा सा प्रेम संबंध भी था और यहां जातीय अंतर का भी कोई मसला नहीं था। दोनों एक ही जाति से ताल्लुक रखते थे। लेकिन, परिवार वालों ने ज़बरदस्ती उसकी शादी कहीं और करवा दी। मेरी दोस्त का कहना है,

“मैंने काफी विनती की लेकिन घर वालों ने मेरे साथ इमोश्नल खेल खेलना शुरू कर दिया। मां की धमकियां मिली कि अगर मैंने ज़िद की तो वो गंगा में डूबकर अपनी जान दे देंगी। अब मैं इतनी भी मतलबी तो थी नहीं कि मैं अपनी खुशी के लिए अपनी मां की जान दांव पर लगा देती। हालांकि, वो मुझे मौत की ओर ही ढकेल रही थीं।”

ज़ोर ज़बरदस्ती के बाद उसकी शादी हो गई। शादी के बाद वो अपने पति के साथ दिल्ली आ चुकी थी। लेकिन, पति की नियत और उसका रंग सामने आने में थोड़ा भी वक्त नहीं लगा। पति उसी समाज की उपज था, जहां शादी के बाद पुरुष को अपनी पत्नी के रूप में यौन इच्छा पूरी करनी की एक मशीन मिल जाती है। जहां स्त्री की सहमति का तो कोई सवाल ही नहीं होता। अपने पति की शारीरिक ज़रूरत पूरा करना उसका परम धर्म जो मान लिया जाता है। अब इस धर्म में थोड़ी भी असहमति का परिणाम पत्नी के शरीर पर ज़ख्म के निशान के रूप में सामने आता है और ये ज़ख्म इतना गहरा होता है कि उसकी टीस उस लड़की के मन में हमेशा के लिए घर कर लेती है।

मेरी दोस्त के जीवन में भी ऐसी ही घटना घट रही थी। जबरन सेक्स, मारपीट रोज़ाना की बात हो गई थी। एक दफा जब उसने दिल्ली में ही रह रहे अपने भाई से इस मारपीट की शिकायत भी करनी चाही तो उल्टे उसके भाई ने उसके चरित्र पर ही सवाल उठा दिया। भाई ने उसके पति से कहा, “अरे मेरी बहन तो है ही कैरेक्टरलेस।”

कितना कुंठित है ना हमारा समाज, लड़कियों की कैरेक्टर सर्टिफिकेट देने में सबसे पहले आगे रहता है। लड़की अगर किसी से प्रेम करे तो वो कैरेक्टरलेस, लड़की अपनी मनमर्ज़ी से कपड़े पहने तो वो कैरेक्टरलेस, लड़की अगर ज़ोर से बात कर ले तो वो कैरेक्टरलेस, लड़की अगर देर रात तक बाहर घूमे तो वो कैरेक्टरलेस।

मेरी दोस्त ने तो प्रेम भी किया था, बॉयफ्रेंड भी बनाया था और वैसा शारीरिक संबंध जहां प्रेम का छोटा सा भी अंश नहीं बल्कि हैवानियत की भूख थी उसका विरोध भी कर रह थी, अब ऐसी लड़की को चरित्रहीन बताना तो इस समाज के लिए बहुत आसान था। लेकिन, समाज की इस भीड़ में उसका अपना भाई ही ऐसा करेगा उसने शायद ही सोचा होगा।

खैर, उसे अब मालूम पड़ चुका था कि उसके साथ कोई खड़ा नहीं होने वाला है। इसलिए अंतत: उसने वो घर छोड़ दिया।

मेरी दोस्त का कहना है कि अगर लड़का सही होता तो मैं उस रिश्ते को ज़रूर कबूल करती। मैंने उसके साथ मुश्किल से तीन महीने गुज़ारे और वो तीन महीना मेरे लिए किसी नरक से कम नहीं था। इसी वजह से एक दिन मैंने अपनी पति के ऑफिस जाने के बाद अपना बैग पैक किया और पटना की गाड़ी पकड़ ली। मुझे कुछ नहीं पता था कि मैं आगे क्या करने वाली हूं, कहां जाने वाली हूं, मेरे साथ क्या होने वाला था। मगर इतना पता था कि आगे जो भी होगा इससे तो बेहतर ही होगा।

मेरी दोस्त वहां से सीधे पटना की ट्रेन पकड़कर अपने घर चली गई। ज़ाहिर सी बात है कि परिवार वालों के लिए ये बात पचाना इतना आसान नहीं था। उन्हें लगा शायद ये कुछ दिनों बाद वापस चली जाएगी। उसके घर से भागने के साथ ही उसके पति ने उसके खिलाफ घर से गहने और पैसे लेकर भागने का केस दर्ज कर दिया। लेकिन, केस की कोई ठोस बुनियाद नहीं बनने की वजह से केस धाराशायी हो गया।

इसके बाद मेरी दोस्त ने अपने पति से तलाक लेने का फैसला किया। उसने अपने पति से कहा कि आप मुझे तलाक दे दीजिए, लेकिन यहां भी एक पुरुष के अहम पर हमला होने जैसा था कि एक औरत उसे कैसे छोड़ सकती है। बस फिर क्या, उसने कहा, “जाओ कर लो केस मैं नहीं दे रहा तलाक।”

उसके घर से भागने के बाद एक दफा उसका पति उसके घर पटना भी आया। लेकिन, उसे मनाने या ले जाने नहीं बल्कि उसने उसकी मां के सामने गंदी निगाहों के साथ कहा, “तुम जैसी चीज़ को कौन छोड़ना चाहेगा।” मेरी दोस्त का कहना है कि उस वक्त मेरी मां ने उस आदमी को कुछ भी नहीं कहा। मेरी मां के लिए भी मैं अपने पति की संपत्ति थी और कोई अपनी संपत्ति को किसी भी निगाह से देखे, कैसे भी इस्तेमाल करे किसी को क्या फर्क पड़ता है।

उसने अपनी एक दोस्त की मदद से वकील का पता लगाकर फैमिली कोर्ट में केस दर्ज करवा दिया। फिर अकेले ही कभी वकील तो कभी कोर्ट के चक्कर काटने का सिलसिला शुरू हो गया। रवींद्र नाथ की “एकला चॉलो” वाली राह पर वो निकल चुकी थी। कोर्ट की हर डेट पर वो अकेली ही जाती। वकील के पैसे के लिए उसने पटना के एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना शुरू किया। उस वक्त मेरी दोस्त ने सिर्फ इंटर तक ही पढ़ाई की थी। लेकिन अब उसे एहसास हुआ कि ज़िन्दगी खुद के बलबूते जीने और ज़िन्दगी की ऐसी मुश्किल लड़ाई के लिए पढ़ाई बेहद ज़रूरी है। इसके बाद वो नौकरी, पढ़ाई और तलाक के केस इन तीनों गाड़ियों पर सवार होकर अपने सफर पर चलना शुरू कर दिया। वो आज अपना एम कॉम पूरा करके दिल्ली में नौकरी कर रही है।

उसे अभी तक अपने पति से तलाक नहीं मिला है, पिछले 6 सालों से चल रही उसकी ये लड़ाई आज भी जारी है। हालांकि तलाक का मामला लगभग निपटने ही वाला था। कोर्ट के आदेश के अनुसार उस आदमी को 10 लाख रुपये मेरी दोस्त को देने पड़ते। लेकिन, तभी उस आदमी ने चालाकी दिखाते हुए मेरी दोस्त के भाई को फोन लगाकर कहा कि भईया अब इतने सालों से ये सब चल रहा है, अब इसको खत्म करते हैं। मैं ढाई लाख रुपया दे दूंगा। जबकि इससे कई ज़्यादा रकम मेरी दोस्त के घर वालों ने शादी के दौरान दहेज के रूप में लड़के वालों को दिए थे।

फिर क्या जिस भाई ने इतने सालों से मेरी दोस्त के केस से दूरी बनाकर रखी थी अब वो मीडियेटर बन चुके थे। मेरी दोस्त ने कहा कि मैं लड़ सकती थी अपने भाई से, लेकिन हम तमाम दुत्कारों के बावजूद अपने परिवार की खुशी के आगे झुक जाते हैं। मैंने भी वही किया अब मैं ढाई लाख में मान चुकी हूं और अब शायद एक-दो डेट के बाद हमारा तलाक हो जाएगा।

मेरी दोस्त जैसे-जैसे अपनी कहानी बता रही थी मेरी उसके प्रति इज्ज़त बढ़ते जा रही थी। तमाम घटनाक्रम के बाद भी वो एक खुशमिज़ाज लड़की है। जिसे देखकर आप सोच ही नहीं सकते कि उसके अंदर इतना तूफान चल रहा है। उसने मुझसे कहा यार हमने कभी बचपन में सोचा भी था कि हमारा जीवन कुछ ऐसा हो जाएगा… उसकी इस बात का मैं कोई जवाब नहीं दे पाई बस सर झुकाकर ज़मीन की ओर देखने लगी।

आज कई बार उसे सुनने को मिलता है, “ये तो अपने पति की ही नहीं हो सकी”। हर बात में उसे ऐसे ताने सुनाकर ज़लील करने की कोशिश की जाती है। लेकिन मेरी दोस्त का कहना है कि मैं अब इन बातों को गौर ही नहीं करती, इन तानों पर अपना समय बर्बाद करने से बेहतर अपने जीवन में आगे बढ़ना है।

मैंने अपनी दोस्त की कहानी सिर्फ इसलिए बताई क्योंकि शायद इस कहानी से दूसरी लड़कियों/औरतों को भी हिम्मत मिले। अपने जीवन में विद्रोही होने की, कोई साथ ना हो तो अकेले ही संघर्ष के रास्ते पर चल पड़ने की और इस तथाकथित पुरुष प्रधान समाज को एक औरत की ताकत दिखाने की। क्योंकि इस समाज में हम औरतों का विद्रोही होना बहुत ज़रूरी है।

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