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“हम देखेंगे नज़्म हिन्दू विरोधी होती तो जियाउल हक उसे पाकिस्तान में प्रतिबंधित नहीं करता”

किसी भी साहित्य को जलाने या प्रतिबंधित करने से पूर्व आपको उसके निर्माण की परिस्थितियों के बारे में ठीक से समझना चाहिए और फिर ही उसकी आलोचना करनी चाहिए। अंबेडकर ने मनुस्मृति जलाई, इसके पीछे उनके अपने तर्क थे, अब कोई तथाकथित अंबेडकरवादी यह कहकर मनुस्मृति जला दे कि चूंकि अंबेडकर ने मनुस्मृति जलाई, तो हम भी जलाएंगे तो यह विचार अंबेडकर जैसे युग प्रवर्तक के हो ही नहीं सकते हैं।

फैज़ अहमद फैज़

ठीक इसी प्रकार फैज़ अहमद फैज़ की किसी भी नज़्म पर ऐसी प्रतिक्रिया, जिसमें उस नज़्म को हिंदू विरोधी, राष्ट्र विरोधी और ना जाने क्या-क्या कहा जा रहा है, वह संकीर्ण मानसिकता का ही नतीजा है।

वह शायर जिसको आधी ज़िन्दगी पाकिस्तान से बाहर सिर्फ इसलिए रहना पड़ा, क्योंकि वह पाकिस्तान के कट्टरपंथियों के खिलाफ मुखर रहें, जिन्होंने भारत-पाकिस्तान के बंटवारे पर शोक जताते हुए निम्नलिखित नज़्म लिखी-

“ये दाग दाग उजाला ये शब-गज़ीदा सहर,
वो इंतिज़ार था जिस का ये वो सहर तो नहीं।

ये वो सहर तो नहीं जिस की आरज़ू लेकर
चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं ना कहीं,
फलक के दश्त में तारों की आखिरी मंज़िल।”

1979 में पाकिस्तानी तानाशाह जियाउल हक के कट्टरपंथ के खिलाफ लिखी गई एक नज़्म-

“सब तख़्त गिराए जाएंगे, बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो गाएब भी है हाज़िर भी, जो मंज़र भी है नाज़िर भी।

उट्ठेगा अनल-हक का नारा, जो मैं भी हूं और तुम भी हो
और राज करेगी खल्क-ए-खुदा, जो मैं भी हूं और तुम भी हो।”

यह समझना ज़रूरी है कि अगर ‘हम देखेंगे’ नज़्म हिन्दू विरोधी होती तो शायद जियाउल हक इसको कभी प्रतिबंधित नहीं करता और पूरे पाकिस्तान में बढ़ चढ़कर इसका प्रचार करता। या फिर क्या जियाउल हक इतना सेक्युलर था कि उसने एक हिन्दू विरोधी नज़्म पर बैन लगा दिया?

जियाउल हक जिसने 1985 में मुस्लिम महिलाओं को साड़ी पहनने पर यह कहते हुए प्रतिबंध लगा दिया था कि यह इस्लाम की तौहीन है। इकबाल बानो ने यह नज़्म गाकर पूरी पाकिस्तानी हुकूमत को थर-थर कांपने पर मजबूर कर दिया गया था।

फैज़ अहमद फैज़

मशहूर शायर और गीतकार जावेद अख्तर ने एक इंटरव्यू में कहा,

अगर आप कहें कि फैज़ एथिस्ट/नास्तिक थे, तो मैं कह सकता हूं कि हां शायद लेकिन अगर आप यह कहें कि फैज़ हिंदू विरोधी थे तो मुझे आपकी सोच पर हंसी आती है।

आखिर फैज़ की गलती क्या थी?

यही कि उनकी ज़ुबान उर्दू थी? क्या खल्क-ए-खुदा, राम राज्य के समानांतर नहीं है? क्या अनल-हक, अद्वैत सिद्धांत ‘अहं ब्रह्मस्मी’ का उर्दू अनुवाद नहीं है? जिस आदमी ने धार्मिक कट्टरपंथियों से लड़ते-लड़ते अपनी ज़िंदगी बिता दी, उसके किसी भी साहित्य को हिन्दू विरोधी बतलाना, बेबुनियाद है और राजनैतिक ओछेपन को दर्शाता है।

“ये भी देख रहे हैं, हम भी देख रहे हैं
कि ये देखकर पतंगे भी हैरान हो गईं, अब तो छते भी हिन्दू मुसलमान हो गईं।
क्या शहर-ए-दिल में जश्न सा रहता था रातभर
क्या बस्तियां थीं, कैसी बयांबान हो गईं।”

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