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2018 में सुप्रीम कोर्ट ने NRC मसले पर कैसे किया था हस्तक्षेप

नागरिकता संशोधन बिल-2019 को जिस दिन लोकसभा के पटल पर बहस के लिए रखा गया, तभी से इसकी मुखालफत सदन के अंदर और बाहर दोनों जगहों पर शुरू हो गई। सदन के अंदर बहुतायत विपक्षी राजनीतिक पार्टियों ने इसका विरोध किया तो कुछ पार्टियों ने इस मुद्दे पर ढुलमुल रव्वैया अपनाते हुए लीपापोती करने की कोशिश की।

मसलन, संसद में विरोध में भाषण ज़रूर दिया गया लेकिन वोटिंग में सरकार को कुछ विरोधियों का साथ भी मिला। इस तरह से कहा गया कि सीएबी का समर्थन करेंगे लेकिन एनआरसी का विरोध करेंगे, जिसमें जदयू-शिवसेना जैसी पार्टियों का नाम लिया जा सकता है।

अंततः यह बिल संसद के दोनो सदनों से पास हो गया और 12 दिसबंर 2019 को भारत के राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद यह बिल नागरिकता संशोधन कानून-2019 बन गया, जिसे अब देश में लागू किया जाएगा।

खैर, संसद में इस बिल को लेकर गणमान्य सांसदों में जो बहस व चर्चाएं हुईं, वो आपने देखा-सुना है। संसदीय बहस की प्रक्रिया में सभी का पक्ष दर्ज़ है, जिसे कभी भी आप देख सकते हैं लेकिन इस कानून को पारित करते समय देश के गृहमंत्री और सरकार की तरफ से जो दलीलें दी गईं, उनसे देश के नागरिक असंतुष्ट हैं।

सरकार की मंशा पर क्यों उठ रहे हैं सवाल?

नरेन्द्र मोदी। फोटो साभार- सोशल मीडिया

लोग सरकार की मंशा पर सवाल उठा रहे हैं। इस बिल को लेकर जितना विरोध सदन के अंदर हुआ, उससे कहीं ज़्यादा देश के बाहर आम नागरिकों और विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों और नौजवानों द्वारा हो रहा है। नागरिकता संशोधन कानून का सबसे मुखर प्रतिरोध सबसे पहले पूर्वोत्तर राज्य असम से शुरू हुआ।

इस कानून का विरोध करने में सबसे पहले वहां के विश्वविद्यालय और कॉलेजों से विद्यार्थियों ने मोर्चा संभाला, बाद में वहां के आम नागरिक बढ़-चढ़कर इस कानून की मुखालफत में शामिल हुए। धीरे-धीर इस कानून के खिलाफ विद्रोह की आग पूरे पूर्वोत्तर राज्यों में फैल गई। जगह-जगह नुक्कड़ सभाएं, जुलूस, पोस्टर-बैनर और मशालें लेकर लोग सड़कों पर निकलने लगे।

राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का मुद्दा भी सबसे पहले असम राज्य से जुड़ा हुआ है। 1951 की  जनगणना के आधार पर पहली बार 1951 में एनआरसी को असम राज्य के लिए तैयार किया गया लेकिन आगामी वर्षों में इन आकड़ों को बरकरार नहीं रखा गया।

असम, पड़ोसी देश बंग्लादेश की सीमा से जुड़ा हुआ राज्य है। शुरुआत में इसका उद्देश्य इस राज्य में अवैध लोगों के आगमन को नियंत्रित करना था लेकिन बाद में यही एनआरसी बाहरी घुसपैठियों के प्रति बढ़ती नफरत के चलते, प्रदेश में कई हत्या और हिंसा की घटनाओं का प्रमुख कारण बन गई। आसामी बनाम विदेशी घुसपैठिये की नफरती चिंगारी को लेकर प्रदेश में सियासी बिसात बिछाई गई।

80 के दशक में क्या हुआ था?

फोटो साभार- सोशल मीडिया

80 के दशक में इस चिंगारी को हवा देने में जनसंघ व बाद में बीजेपी के नेताओं की अग्रणी भूमिका थी। 1983 में असम के नेल्ली नरसंहार के लिए लोगों को उकसाने में बीजेपी नेता मरहूम अटल बिहारी वाजपेयी की संलिप्तता सर्वविदित है।

खैर, असम में बांग्लादेश से आने वाले घुसपैठियों को रोकने, चिंहित करने, आसामी भाषा, संस्कृति तथा नृजातीय पहचान को बचाने के लिए लंबे समय से इस प्रदेश में लोग यह मांग उठाते आ रहे हैं कि बांग्लादेश से आने वाले विदेशी घुसपैठियों (चाहे वे किसी जाति धर्म से संबधित हों) को लेकर सरकार कोई समाधान करे।

इसके लिए असम में पहले संगठित आंदोलन की शुरुआत 1979 में आसु (ऑल आसाम स्टूडेंट्स यूनियन) नाम के संगठन के बैनर तले हुई। जनवरी, 1980 में आसु संगठन ने सरकार को एनआरसी के सुधार (अपडेट) की मांग को लेकर पहला ज्ञापन सौंपा लेकिन आगे इस मुद्दे को लेकर प्रदेश में आंदोलन उग्र होता चला गया। इस संघर्ष में करीब 855 लोगों की जानें गईं। 

करीब 6 साल तक चले निरंतर संघर्ष के बाद अगस्त, 1985 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की उपस्थिति में दिल्ली में आंदोलनकारियों तथा केंद्र सरकार के प्रतिनिधियों के बीच एक समझौता हुआ, जिसे असम अकॉर्ड कहा गया।

इसी के तहत बातचीत के दौरान अवैध बांग्लादेशी प्रवासियों को रोकने के लिए 24 मार्च, 1971 की एक कट-ऑफ तिथि निश्चित की गई और यह समझौता हुआ कि इस तिथि के पहले जो भी लोग प्रवासी या बंगलादेश से आए हैं, उन्हें भारतीय नागरिक माना जाए और उसके बाद जो घुसपैठ के ज़रिये भारतीय सरदह में आए हैं, उन्हें एनआरसी के माध्यम से चिंहित करके असम से निकाला जाए।

आसाम संधि-1985 के बाद असम का विदेशी घुसपैठियों के खिलाफ उग्र आंदोलन शांत ज़रूर हुआ लेकिन इस मुद्दे का कोई सामाधान नहीं हुआ। मई, 2005 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह केंद्र, असम सरकार और आसु के बीच एक त्रिपक्षीय बैठक को संबोधित करते हैं जिसमें एनआरसी सूची को असम संधि के वादे के अनुरूप सुधार करने का निर्णय होता है।

NRC का मुद्दा कोर्ट में कैसे पहुंचा?

सुप्रीम कोर्ट। फोटो साभार- ANI Twitter

लेकिन जुलाई, 2009 में एक एनजीओ संगठन ‘असम पब्लिक वर्क’ यह मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट में अर्ज़ी दायर करते हैं कि उन प्रवासियों का नाम वोटर लिस्ट से बाहर किया जाए, जिनका दस्तावेज़ नहीं है। यहीं से एनआरसी का मुद्दा कोर्ट में पहुंचा। इसके बाद क्या हुआ?

अमित शाह और पीएम मोदी के बयान क्यों हैं अलग?

अमित शाह और नरेन्द्र मोदी। फोटो साभार- सोशल मीडिया

लोकसभा चुनाव-2019 के एक साल पहले ही बीजेपी-आरएसएस को मालूम चल गया था कि जिस अवैध प्रवासी या घुसपैठिये को बाहर भगाने की नफरती हिंसक भावना को वे आसामियों के ज़हन में जगाते आ रहे हैं, वे उनके चुनावी गुणा-गणित व सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रतिकूल जा रही है।

जिस एनआरसी सूची से बहुतायत में मुसलमानों को बाहर होना था, वहां हिंदू बाहर हो गए। सियासी पासा उल्टा हो गया। इसलिए उन्होंने इससे निबटने के लिए तत्काल नागरिकता संशोधन बिल-2019 का प्रारूप तैयार कर संसद में फौरन पेश किया।

समझने वाली बात यह है कि इस कानून को दोनों सदनों में पारित कराने के लिए सांसदों की जोड़-तोड़ भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने बहुत पहले ही शुरू कर दी थी। कई पार्टियों के राज्यसभा सांसदों के इस्तीफे तथा भाजपा में शामिल होने की खबरें हम सभी ने देखी हैं। इसके बाद जब एनआरसी इनके गले की फांस बन गई, तो इन्होंने जाहिलियत का परिचय देते हुए इसे पूरे देश में लागू करने का ऐलान कर दिया।

हालांकि अभी इस मसले को लेकर गृहमंत्री व प्रधानमंत्री दोनों झूठी बयानबाज़ी कर रहे हैं मगर इसे लागू करने के लिए ये पूरी तरह से अडिग हैं। इसका संकेत इस संदर्भ से ज़ाहिर होता है कि जब राष्ट्रपति द्वारा संसद के संयुक्त सदन को संबोधित किया जा रहा था, तो गृहमंत्री ने अपने भाषण में ज़ोर देकर कहा कि हमारी सरकार एनआरसी को पूरे देश में लागू करने के लिए संकल्पबद्ध है। इसकी प्रमाणिकता संसद की प्रक्रिया में दर्ज़ है।

मुसलमानों को नागरिकता क्यों नहीं?

फोटो साभार- सोशल मीडिया

आज पूरे देश में नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी को लेकर जो प्रतिरोध चल रहा है, उसको समझना बहुल लाज़मी है। नागरिकता कानून-1955 में कहीं पर भी धर्म के आधार पर भारत की नागरिकता प्रदान करने का प्रावधान नहीं किया गया था लेकिन इस नए नागरिकता संशोधन कानून में संसद में खड़े होकर कहा गया कि सरकार पड़ोसी देश, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बंगलादेश में धार्मिक रूप से प्रताड़ित हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाइयों को भारत की नागरिकता देगी।

अर्थात मुस्लिम को छोड़कर उपरोक्त सभी को शामिल किया गया है। यह कानून जिस मकसद से लाया गया है वह बहुत ही भेदभावपूर्ण और विभाजनकारी है। इसके साथ ही यह संविधान की मूलभूत अवधारणा के खिलाफ है और इस सरकार की मनमर्जी एवं हठधर्मिता को ज़ाहिर करता है।

आज तक कोई समझ नहीं पाया कि इन्होंने आखिर तीन ही देश क्यों चुने? भारत के कुल सात पड़ोसी देश हैं जिनमें पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बांग्लादेश के साथ- साथ नेपाल, भूटान, म्यांमार और श्रीलंका भी शामिल हैं। अगर म्यांमार, श्रीलंका से कोई धार्मिक रूप से प्रताड़ित अल्पसंख्यक भारत की शरण में आएगा और नागरिकता मांगेगा, तो क्या भारत उन्हें नागरिकता नहीं देगी?

क्या उनके लिए अलग से संशोधन करके कानून बनाया जाएगा? अगर श्रीलंका से कोई धार्मिक रूप से प्रताड़ित मुस्लिम या अन्य समुदाय का अल्पसंख्यक भारत आएगा तो क्या उसे भगा दिया जाएगा। उसके लिए इनके पास क्या योजना है, यह स्पष्ट नहीं है।

विडंबनापूर्ण तो यह है कि सरकार ने इस कानून में एक कट-ऑफ तिथि निर्धारित की है कि 31 दिसंबर 2014 तक मुसलमान छोड़कर उपरोक्त तीन देशों से आने वाले धार्मिक रूप से प्रताड़ित समुदाय के लोगों को भारत की नागरिकता दी जाएगी लेकिन इस तिथि के बाद अगर कोई धर्म के आधार पर प्रताड़ित अल्पसंख्यक भारत में आएगा, तो उसका क्या होगा?

धर्म के आधार पर लोगों को बांटने की कोशिश हो रही है

फोटो साभार- सोशल मीडिया

क्या भारत सरकार वैश्विक स्तर पर यह बोलेगी कि हम इन्हें शरण या नागरिता नहीं देंगे? मूलतः यह कानून धर्म के आधार पर लोगों को बांटने की मंशा से लाया गया है, जो कि संविधान के अनुच्छेद “14” का साफ-साफ उल्लघन है। यह संविधान की मूल भावना के खिलाफ एवं देश के लिए विध्वंसकारी है। यही कारण है कि इतनी मुखरता से पूरे मुल्क में इसका विरोध हो रहा है।

नागरिकता संशोधन कानून तथा एनआरसी के खिलाफ उठते प्रतिरोध की आवाज़ों में सबसे मुखर आवाज़ जामिया मिल्लिया इस्लामिया के विद्यार्थियों की तरफ से आई है, जिसे मौजूदा निरंकुश मोदी सरकार नें बड़ी बेरहमी से कुचलने की कोशिश की।

15 दिसबंर, 2019 को बिना अनुमति केंद्र सरकार के इशारे पर दिल्ली पुलिस नें कैंपस के अंदर घुसकर छात्र-छात्राओं को बर्बर तरीके से पीटा। लाइब्रेरी में घुसकर पढ़ने-लिखने वाले नौजवानों पर लाठियां बरसाई, उन्हें लहू-लुहान किया। कईयों के पैर-हाथ टूटने के साथ-साथ आंख और सर भी फोड़ दिए गए। जामिया के विद्यार्थियों पर इतनी क्रूरता और अमानवीय हिंसा के पीछे मज़हबी नफरत का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

मज़ेदार बात यह है कि इन विद्यार्थियों के हाथों में संविधान की प्रस्तावना और भीमराव अंबेडकर, सावित्री फूले, फातिमा शेख, अशफाक और भगत सिंह की तस्वीरें थीं। संविधान बचाने और देश बचाने के नारे लग रहे थे। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण में माहिर भाजपा सरकार के पास इसका कोई काट नहीं था, क्योंकि इन नायकों के आधार पर ध्रुवीकरण संभव नहीं है।

मगर विद्यार्थियों पर हुई सरकारी हिंसा को पूरे देश ने देखा। इसके साथ ही जामिया के आसपास के इलाके में रहने वाले वाशिंदों का दिल इस पुलिसिया दमन को देखकर सहम गया। लोगों ने विद्यार्थियों के बचने के लिए अपने घरों के दजवाजे़ खोल दिए। सरकार ने इन नागरिकों के घरों में घुसकर उन्हें निशाना बनाया। इस हिंसक सरकारी दमन को देखकर लोगों के अंदर से भय गायब सा हो गया। भारी संख्या में महिलाओं ने इस कानून के खिलाफ अपने घरों से बाहर निकलकर प्रदर्शन करना शुरू किया।

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