पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा काफी लोकप्रिय था और आज भी लोकप्रिय हैं। ग्रीन रिवोल्यूशन के बाद भारत अनाज के मामले में आत्म निर्भर हो गया लेकिन क्या किसान आत्मनिर्भर हो पाया हैं?
यह सवाल इसलिए पूछा जाना चाहिए क्योंकि एनसीआरबी द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार‘वर्ष 2018 में कृषि क्षेत्र से जुड़े 10,349 लोगों ने खुदकुशी की है। इनमें 5,763 किसान हैं, जबकि 4,586 खेतिहर मजदूर हैं। यह आंकड़ा देश में कुल आत्महत्या के मामलों का 7.7 प्रतिशत हैं।
कुछ राज्यों की हालत ठीक है
साल 1995 से किसान आत्महत्या के आंकड़ों का प्रकाशन सरकार द्वारा किया जा रहा है। तब से लेकर 2016 तक में कुल 3,33,407 किसानों ने आत्महत्या की है। दूसरी तरफ अच्छी बात यह है कि कई राज्य और केंद्र शासित प्रदेश ऐसे भी हैं, जहां पर एक भी किसान या मजदूर ने आत्महत्या नहीं की हैं।
इसी रिपोर्ट में बताया गया है कि पश्चिम बंगाल, बिहार, ओडिशा, उत्तराखंड, मेघालय, गोवा, चंडीगढ़, दमन और दीव, दिल्ली, लक्षद्वीप और पुदुचेरी ऐसे राज्य एवं केंद्र शासित प्रदेश रहे। जहां पर कृषि क्षेत्र में कार्यरत किसी भी व्यक्ति की खुदकुशी की घटना दर्ज नहीं की गई।
2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने का हसीन सपना
गाँव कनेक्शन की एक रिपोर्ट के मुताबिक जिस तरह से भारत की जीडीपी कम हो गई है, ठीक उसी तरह से भारत की कृषि अर्थव्यवस्था भी संभलने का नाम नहीं ले रही हैं। गौरतलब है 5.1 फ़ीसदी कृषि विकास दर 2 फ़ीसदी तक कम हो गई हैं। जिसके चलते किसानों की आय में भी काफी फर्क देखा जा सकता हैं।
केंद्र सरकार यूं तो कहती रहती है कि किसानों की आमदनी 2022 तक हम दुगनी करेंगे लेकिन इस लक्ष्य को हासिल करने में तीन साल बचे हैं। तीन साल में अगर आय दोगुनी करनी है, तो कम से कम 30 प्रतिशत या 28 प्रतिशत प्रतिवर्ष किसान की आमदनी बढ़नी चाहिए।
कृषि अर्थव्यवस्था के अभ्यासक गिरिधर पाटील कहते हैं किसान खेती में किसी भी तरह का कोई बड़ा इन्वेस्टमेंट नहीं कर सकता। बड़े पैमाने पर पैसे की कमी होती है। खेती पर लिए गए कर्ज को चुकाने की एक बड़ी समस्या होती है। देश का निजी क्षेत्र बड़े पैमाने पर सरकार द्वारा सहायता एवं बैंकों द्वारा लाभ पर चल रहा है इसमें थोड़ा भी हम कृषि क्षेत्र के लिए कदम उठाते हैं तो तस्वीर काफी बदली जा सकती है।
पहले हमें कृषि की तरफ देखने का नज़रिया बदलना होगा फिर हमारी नीतियां में बदलेगी देश के किसान को खुशहाल बनाने की तरफ एक कदम होगा।
राष्ट्रीय मीडिया किसानों की समस्या को जगह नहीं देता
जाने-माने पत्रकार पी साईनाथ बताते हैं कि नेशनल डेली के फ्रंट पेज पर पांच साल का एवरेज ग्रामीण खबर का स्पेस 0.67% है, जबकि ग्रामीण इलाके में 2011 के सेंसस में जनसंख्या 69% है।
वे कहते हैं,
69% आबादी को आप देते हैं 0.67% जगह। अगर जनसंख्या के 69% को आप 0.67% जगह अखबार के फ्रंट पेज पर देते हैं तो बाकी पेज किस पर जाते हैं? फ्रंट पेज का 67% नई दिल्ली को जाता है और यह 0.67 परसेंट भी एग्ज़ैग्जरेशन (अतिरेक) है। ऐसा क्यों दिख रहा है?
पी.साईनाथ की बातें सच हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को देखिए दंगल, हल्ला बोल, ठोक ताल जैसी डिबेट चैनलों में देखी जा सकती हैं लेकिन खेती, किसान के संबंध में साल भर में टीवी चैनल कितनी डिबेट करते हैं?
सरकारी सहायता एवं स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें लागू करें
किसानों को सरकारी मदद की ज़रूरत है, ऐसा क्यों कहना पड़ रहा है? क्योंकि भारतीय किसानों को अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में अमेरिका एवं यूरोप के किसानों से प्रतिस्पर्धा करनी होती हैं।
जहां तक अमेरिका और यूरोप के किसानों की बात हैं, उन्हें उनके सरकार द्वारा बड़े पैमाने पर सब्सिडी दी जाती है। जो कि भारतीय किसानों की तुलना में काफी ज़्यादा है।
पिछले साल सरकार द्वारा प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना की शुरुआत की गई थी। योजना की तीसरी किस्त आते-आते 5 करोड़ किसान योजना से बाहर हो गयें हैं। ऐसे में पूरा लाभ कितने किसानों को हुआ? यह भी एक बड़ा सवाल है। स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों का क्या हुआ आज तक किसी को पता नहीं चला।
सरकार अगर किसान विरोधी रवैया कायम करती है, तो किसानों को संगठित तौर पर खेती करनी चाहिए। कृषि क्षेत्र में परिवर्तन लाने के लिए सरकार को कदम उठाने ही होंगे अन्यथा खेती तो बची रहेगी लेकिन किसान नहीं रहेगा।