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“मैं हर गली, हर चौराहे, हर मुल्क में पहुंचने वाली आवाज़ हूं, मैं शाहीन बाग हूं”

मैं वह आवाज़ हूं, जो अपने ही वतन में अनसुनी हो गई, जिसको सुनने वाला और समझने वाला कोई नहीं है। मैं अपने माज़ी को किस तरह से साबित करूं कि मेरा वतन मेरी जान से भी प्यारा है, मेरे जिस्म के हर गोशे-गोशे में इस वतन की मिट्टी का एक-एक कतरा मुझे वतन परस्ती सीखाता है।

इस वतन को मेरे आबा ओ अजदाद ने खून-पसीने से सींचा है

मैं वह आवाज़ हूं, जो दबाई जा रही है। मैं किस तरह रातों की ठंडी बयार में सड़कों पर बैठकर अपने वतन के लिए गुहार लगा रही हूं। मैं घर में सो भी सकती हूं और आराम परस्त ज़िन्दगी गुज़ार सकती हूं मगर नहीं, क्योंकि यह मेरा वतन है, मेरे आबा ओ अजदाद ने इसको खून से सींचा है।

मेरे हाथ में अभी दूध की बोतल है मगर मेरे इरादे मज़बूत हैं

मैं वह आवाज़ हूं, जिसकी विलादत हुए अभी महज़ एक माह हुआ है मगर मैं इंसाफ के लिए सड़कों पर हूं। मैं उस मज़बूत गोद में हूं, जो मुझे कस के जकड़े हुए है और मैं निढाल नहीं होना चाहती, क्योंकि मुझे लड़ना है, अपना हक लेना है।

शाहीन बाग में अपने बच्चों के साथ विरोध प्रदर्शन करती महिलाएं, फोटो साभार – ट्विटर

मैंने अपना मुस्तकबिल अपने घर के चौराहे से शुरू करने का कभी नहीं सोचा था, अभी तो मैं ज़िन्दगी में बस आया हुआ ही हूं। मेरे हाथ में दूध की बोतल है, जो कभी भी मेरे हाथ से छूटकर ढलक जाती है मगर मेरे इरादे मज़बूत हैं।

मैं वह आवाज़ हूं, जिसने अपने जीने के लिए ज़िन्दगी के हर उतार-चढ़ाव को देखा है और इल्म हासिल करने की नीयत से अपनी नफ्ज़ को काबू किया है।

बेशक! मेरा मज़हब यह सीखाता है कि माँ के गहवारे से कब्र तक इल्म हासिल करो मगर मेरे मुल्क के हुक्मरां यह नहीं चाहते। मैं दबने वाली आवाज़ नहीं हूं। मैं हर गली, हर चौराहे, हर मुल्क में पहुंचूंगी और बताउंगी कि मैं टूट ज़रूर जाऊंगी मगर कमज़ोर नहीं पड़ूंगी। मेरा वक्त इल्म हासिल करके अपने ख्वाबों और अपने वालिदैन के ख्वाबों को पूरा करने के लिए होना चाहिए मगर वक्त की गुज़ारिश है मैं एहतेजाज़ करूं।

मुझको वतन परस्ती का हक चाहिए
और सर पर कुशादा फलक चाहिए।

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