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मंगलयान बनाने वाले देश में अभी भी सैनिटरी पैड्स काली पन्नी में क्यों छिपाए जाते हैं?

आज हम विज्ञान और तकनीकी के युग में जीवनयापन कर रहे हैं। सोशल मीडिया से लेकर मंगल यान तक हर क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं। आज बहुत तेज़ी से विज्ञान और तकनीकी क्षेत्र में नए-नए आविष्कार हो रहे हैं लेकिन विडंबना की बात यह है कि जिस तेज़ी से विज्ञान और तकनीकी क्षेत्र में आगे बढ़ रहे हैं।

उससे उलट हमारी सामाजिक सोच कछुए की गति से बढ़ रही है। आज भी हम विज्ञान के युग में बहुत सी संकीर्ण सोच के दायरों में बंधे बैठे हैं। खासकर महिलाओं से जुड़े मुद्दे जैसे शिक्षा, स्वास्थ्य, नौकरी आदि में आज भी सोच सकीर्ण नज़र आती है। कभी-कभी तो यह महसूस होता है कि विज्ञान ने तरक्की तो की लेकिन महिलाओं को उस तरक्की का उतना लाभ नही मिला जितना मिलना चाहिए था।

प्रतीकात्मक तस्वीर

सामाजिक विज्ञान और महिलाओं की ज़िंदगी

महिलाओं की ज़िन्दगी की सामाजिक विज्ञान पर भारी पड़ जाती है। इस बात को समझने के लिए हम एक सटीक उदाहरण ले सकते हैं, जिससे हम इस बात की सार्थकता को सिद्ध कर पाएंगे। उदाहरण के दौर पर अगर मैं माहवारी के मुद्दे पर बात करता हूं, तो आज भी माहवारी के मुद्दे को शर्म से जोड़कर देखा जाता है ना कि स्वास्थ्य से।

माहवारी से जुड़ी ऐसी अनेक अवधारणाएं हैं, जो विरासत के रूप में लड़कियों को पीढ़ी दर पीढ़ी मिलती आ रही हैं। आश्चर्यजनक बात यह है कि बिना किसी वैज्ञानिक तर्क के ऐसी अवधारणाओ को ढ़ोते आ रहे हैं। बहुत से स्तर ऐसे हैं जहां पर सुधार और बदलाव लाने की ज़रूरत है। ऐसे सुधार और बदलाव से ही माहवारी से जुड़ी शर्म एवं अवधारणाओं को तोड़कर सही तस्वीर को प्रस्तुत किया जा सकता है।

कुछ छोटे-छोटे कदम ही माहवारी को शर्म के मुद्दे से स्वास्थ्य के मुद्दे तक लेकर आ सकते हैं।

स्कूल की लड़कियां, प्रतीकात्मक तस्वीर

वह एक चैप्टर जो कभी नहीं पढ़ाया गया

स्कूल शिक्षा के दौरान मुझे आज भी याद है कि एक चैप्टर ऐसा होता था जिसको अध्यापक घर से पढ़ने के लिए बोल देते थे या फिर यह कहकर छोड़ देते थे कि यह चैप्टर महत्वपूर्ण नहीं है ।

ऐसा केवल सरकारी स्कूलों में ही नहीं होता था, बल्कि प्राइवेट स्कूलों में भी उस चैप्टर पर चर्चा नहीं होती थी। शारीरिक संरचना का वो चैप्टर आज भी अध्यापकों को असहज कर देता है। जिसके चलते बच्चे अपने शरीर से जुड़े तथ्यों की सही जानकारी से वंचित रह जाते हैं।

इसके साथ-साथ बच्चों के बीच में अपने शरीर को लेकर शर्म की भावना भी विकसित हो जाती है क्योंकि बच्चों को यह संदेश मिलता है कि इस चैप्टर में कोई ऐसी शर्म की बात है जिसके चलते अध्यापक भी इसे नहीं पढ़ाना चाहता। लेकिन सही मायनों में देखें तो लड़कियों और लड़कों को शारीरिक संरचना के बारे में पढ़ाने से वे अपने शरीर और शरीर में होने वाले बदलावों को भी समझ पाएंगे।

सम्भवतः जब शरीर बदलाव पर चर्चा होगी तो एक समझ विकसित होगी कि माहवारी कोई शर्म का मुद्दा नहीं है, बल्कि स्वास्थ्य का मुद्दा है। साथ ही साथ जो पीढ़ी दर पीढ़ी मिलने वाली गलत जानकारी, अवधारणाओं पर भी लगाम लगाई जा सकती है।

स्कूल स्तर पर माहवारी के संवाद की ज़रूरत

स्कूलों के समय मे अगर किसी लड़की को माहवारी हो जाती है, तो उसे छुट्टी लेकर घर पर रहना पड़ता है। बहुत बार तो माता-पिता स्कूल भी छुड़वा देते हैं। स्कूलों में सैनिटरी पैड की उपलब्धता का सुनिश्चित होना भी एक बहुत महत्वपूर्ण कदम हो सकता है, जिससे एक तरफ लड़कियों को ड्रॉप आउट होने से बचाता है और दूसरी तरफ स्कूल स्तर पर माहवारी को लेकर संवाद के रास्ते भी खोलता है।

ऐसे संवादों का स्कूल स्तर पर होने से सही जानकारी का संचार होगा जो कि एक सकारात्मक पहलू को जन्म देगा और अवधारणों को तोड़ने में भी कामयाब होगा।

जब कोई किसी दुकान से सैनिटरी पैड लेने जाता है, तो दुकानदार उसे काली पन्नी या अखबार में लपेटकर देते हैं। मानो सैनिटरी पैड नहीं कोई गैरकानूनी वस्तु की तकसरी कर रहे हैं। इस तरह के व्यवहार से कभी भी माहवारी शर्म से मुक्ति नहीं पाती है बल्कि शर्म के भाव और जड़ पकड़ लेते हैं। इसलिए बहुत ज़रूरी हो जाता है कि सैनिटरी पैड को काली पन्नी या अखबार से मुक्त किया जाए।

विज्ञापनों को भी सुधरना होगा

सैनिटरी पैड को काली पन्नी या अखबार से मुक्त भी एक बहुत महत्वपूर्ण कदम है जिससे लोगों में जागरूकता बढ़ेगी। सैनिटरी पैड बेचने वाली कंपनियां विज्ञापनों में माहवारी को एक समस्या की तरह प्रस्तुत करते हैं और सैनिटरी पैड को समस्या के एक मात्र समाधान की तरह प्रस्तुत किया जाता है। ऐसे विज्ञापनों से माहवारी के प्रति अवधारणों को तोड़ने में विफल हो जाते हैं।

बहुत सारे विज्ञापन तो ऐसे हैं, जो माहवारी को मुश्किल भरे दिन कह कर संबोधित करते हैं। जिसके चलते पीरियड के प्रति एक नकारात्मक सोच जड़ पकड़ लेती है। सैनिटरी पैड के विज्ञापन पीरियड्स से जुड़ी शर्म भावना को खत्म नहीं कर पाते हैं।

बहुत बार तो ऐसा भी होता है कि विज्ञापन के आने पर चैनल ही बदल दिया जाता है। इसलिए बहुत ज़रूरी है कि एक सही, सटीक जानकारी के साथ सैनिटरी पैड के विज्ञापन को प्रस्तुत किया जाए ताकि लोगों की मानसकिता में बदलाव लाया जा सके।

सैनिटरी नैपकिन विज्ञापन प

विज्ञापनों में पीरियड्स को समस्या की तरह दिखाया जाता है और सैनिटरी पैड्स को समाधान। जिसे पाकर लड़की उछलने कूदने लगती हैं जबकि मुद्दा सिर्फ सैनिटरी पैड्स का नहीं है।

इसके साथ-साथ माहवारी में इस्तेमाल होने वाले अलग-अलग वस्तुओं की जानकारी भी देना बहुत ज़रूरी है। जैसे टैम्पून, पीरियड कप आदि। ऐसी जानकारी से लोगों की सोच ओर भी विकसित हो जाती हैं।

उपरोक्त छोटे-छोटे कदमों और पहल से हम माहवारी से जुड़ी भ्रान्तियों, शर्म को दूर करके माहवारी को स्वास्थय, स्वच्छता प्रबंधन से जोड़ कर एक अच्छे और बेहतर संवाद को ना केवल धरातल बल्कि सोशल मीडिया तक लेकर जा सकते हैं।

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