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गर्मियों में पेड़ों की छांव पर निर्भर गाँव के लोग कैसे हो रहे हैं ग्लोबल वार्मिंग से प्रभावित?

नरेन्द्र मोदी

नरेन्द्र मोदी

ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी भयंकर आग की तपिश क्या सम्पूर्ण विश्व में अंतरराष्ट्रीय समुदाय के नेतृत्वकर्ताओं के दिमाग में हरारत पहुंचाने के लिए पर्याप्त होगी? वास्तव में यह आग एक संदेश था कि यदि हम अब भी नहीं जागे, फिर नियंत्रण की जो गुंज़ाइश है वह भी हाथ से फिसल जाएगी। 

विश्वभर के विभिन्न मंच पर की गई अनेकों संधियां जैसे पृथ्वी सम्मेलन, क्योटो प्रोटोकॉल, मांट्रियल प्रोटोकॉल आदि को धरातल पर लाना होगा। आज ग्लोबल वॉर्मिंग बढ़ रही है, जंगल समाप्त हो रहे हैं, जैव विविधता खत्म हो रही है जो कि विश्व के लिए अच्छा संदेश कतई नहीं है।

गर्मी में पेड़ की छांव हम ग्रामीणों के लिए शिमला से कम नहीं थी

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

आज से करीब 15-20 साल पहले मेरे बचपन में पंक्तिबद्ध पेड़ों की शाखाएं दूसरे दरख्तों से टकराती थीं। उन शाखाओं के सहारे मुझ जैसे युवा ग्रामीण अंचलों में खेले जाने वाले सियाडंडी जैसे खेल खेला करते रहे होंगे। उन सभी को याद होगा कि उस दौर में जहां निम्न मध्यम वर्गीय परिवारों के बच्चे गर्मी की छुट्टी, तो वहीं बुज़ुर्गों की टोली गर्मी के दिनों को सघन वृक्षों की छाया में गुज़ारा करते थे।

यकीन मानिए उन पेड़ों की शाखाओं से निकलने वाली छाया हम ग्रामीणों के लिए शिमला, मनाली से कम नहीं हुआ करती थीं लेकिन आज उन पेड़ों की सघनता या तो विरल हो गई है या फिर संपन्नता एवं विकास के नाम शिकार हो गए।

अब वहां कृषि कार्य होने लगे हैं, आवास बन गए हैं, उद्योग जगत घर कर गए हैं वगैरह-वगैरह। जिनमें ए.सी. जैसे अनेक पर्यावरण प्रदूषक लोगों के जीवन को अल्पकालीन सुकून पहुंचा रहे हैं।

मौसम के स्वभाव में तेज़ी से होता जा रहा है परिवर्तन

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो सभार- Flickr

हम सभी ने इस बात का अनुभव किया होगा कि मौसम के स्वभाव में तेज़ी से परिवर्तन हुआ है। मध्य जून से शुरू होने वाली बारिश अब जुलाई के अंत में शुरू होती है। ठीक यही हाल ठंड का है, कभी मकर संक्रांति ठंड की समाप्ति का सूचक होता था लेकिन अब ऐसा नहीं रहा।

कभी बरसात के मौसम में ऐसा भी होता था जब पूरे पखवाड़े तक बारिश हुआ करती थी, जिससे जल स्तर बना रहता था। आज हालात यह है कि बारिश कम होती है या थोड़े समय में इतनी हो जाती है कि चारों तरफ जल प्रलय की स्थिति आ जाती है।

मज़ा ने दिया ग्लोबल वॉर्मिंग के परिणाम जैसी सज़ा

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

मौसम के स्वभाव में हुए परिवर्तन का परिणाम है ग्लोबल वॉर्मिंग। हम भारतीय छोटी सी दूरी को भी पेट्रोल, डीज़ल जैसे पर्यावरण प्रदूषक के रूप में निजी वाहनों से पूरा करने से गुरेज़ नहीं करते।

सच तो यह है कि हम इसे अपनी प्रतिष्ठा समझते हैं, जो हमारी सोच के दकियानूसी सच को ही दर्शाता है। यह बात सच भी है कि लोग इसी से किसी की प्रतिष्ठा का आंकलन करते हैं। अपने भविष्य को बचाने के लिए हमें इस संस्कृति को बदलना होगा। हमें निजी वाहनों के बजाय यथासम्भव सार्वजनिक वाहनों का प्रयोग करना शुरू करना चाहिए। 

सरकार को रोल मॉडल बनना होगा

नरेन्द्र मोदी। फोटो साभार- सोशल मीडिया

सरकारों को ही बड़ी ज़िम्मेदारी उठानी होगी। सरकार को चाहिए कि सबसे पहले सरकारी बसों को और बेहतर बनाने पर ज़ोर दें, क्योंकि आज भी अगर हम सरकारी बसों में यात्रा करते हैं, तो बस के हॉर्न की आवाज़ से ज़्यादा उसके कल पुर्ज़ों की खटर-पटर की आवाज़ सुनाई देती है।

इन स्थितियों को बदलना पड़ेगा। उसमें निजी वाहनों जैसी सुविधाएं देनी होंगी, फिर समाज के विभिन्न क्षेत्रों में अग्रणी लोगों को इनसे यात्रा करने के लिए प्रेरित करना होगा। इससे ये रोल मॉडल बनेंगे, फिर लोंगो को ऐसे साधनों से यात्रा करने में अपनी प्रतिष्ठा के ह्रास का भय धीरे-धीरे खत्म होगा।

आज सरकारें विभिन्न पर्यावरण से सम्बंधित समझौतों को आर्थिक विकास कम होने के डर से लागू नहीं करती हैं। सोचिए कितना अजीब है कि ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी भयंकर आग से लाखों लोग विस्थापित हो रहे हैं।

जैव विविधता का ह्रास हो रहा है लेकिन वहां के प्रधानमंत्री छुट्टियां मनाने चले गए। यह एक तरह से पर्यावरण के प्रति उदासीनता और लापरवाही का सूचक है।

अगर आप आर्थिक विकास कम होने के डर से पर्यावरण क्षति को रोकने वाली कोई संधि लागू नहीं करते और भविष्य में ग्लोबल वॉर्मिंग या फिर अन्य कारणों से मानव क्षति हो जाए, तब ऐसा आर्थिक विकास किस काम का है?

पर्यावरण पर ध्यान देना होगा

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

हमें पेड़-पौधों को सिर्फ लगाना ही नहीं, बल्कि उसके बड़े होने तक देखभाल भी करना होगा। पर्यावरण के क्षेत्र में जन आंदोलन की बड़ी ज़रूरत है। मेधा पाटकर, बाबा आम्टे आदि ने यद्दपि बहुत प्रयास किए लेकिन इस तरह के आंदोलनों के सफल होने के लिए स्वतः स्फूर्त होना ज़रूरी है। जब ये आंदोलन स्वतः स्फूर्त होंगे तभी प्रत्येक व्यक्ति इससे जुड़ेगा और तभी ऐसे आंदोलन जन जागरण का रूप धारण कर पाएंगे।

आज हमारे सामने समस्या यह नहीं है कि कानूनन पर्यावरण को बचाने के लिए प्रयास नहीं किए गए, बल्कि समस्या यह है कि कानूनी प्रयास सिर्फ कागज़ों पर ही रह गए। हमें नीतियों को बाध्य करना होगा कि इन संधियों को कागज़ से धरातल पर उतारा जाए। इसके लिए खुद हमें भी जागरूक होना पड़ेगा। इसके लिए हमें अपने जन प्रतिनिधियों को विवश करना होगा। 

पर्यावरण पर एक मात्र खुशखबरी

पिछले कुछ सालों में सिर्फ एक खबर पर्यावरण के मोर्चे पर सुकून देने वाली रही है, वह है ओज़ोन परत के ह्रास में कमी। अन्य क्षेत्रों में भी अब हमें सुधार की ज़रूरत है ताकि हमारा पर्यावरण सुरक्षित हो सके। पर्यावरण सम्बन्धित समझौतों को लागू करने के लिए सरकार को सुस्ती त्यागने की ज़रूरत है।

ऑस्ट्रेलिया की आग ने जो संदेश हमको दिया है, अगर उसे हम अब भी नहीं सुनते तो हमारा यह प्यारा ग्रह निर्जन हो जाएगा। आज हम मोहनजोदड़ो, हड़प्पा को जिस तरह पढ़ते हैं, उसके विनाश का कारण ढूंढ़ते हैं ठीक वैसे ही भविष्य में युवाओं को पढ़ाया जाएगा और हमारी आज की सभ्यता के विनाश का कारण ढूंढा जायेगा।

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