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शाहीन बाग की महिलाओं का आंदोलन क्यों बाकी आंदोलनों से अलग है?

शाहीनबाग में चल रहे मौजूदा आंदोलन की पृष्ठभूमि में यही वह सरकारी आंतक है, जिसके खिलाफ बोलना व प्रतिरोध करना यहां के बाशिंदों, विशेषकर महिलाओं ने अपना दायित्व समझा। यह दायित्व विभाजनकारी नागरिकता कानून से संविधान और देश को बचाने का है, जिसके लिए यहां की महिलाएं आगे आई हैं।

कड़ाके की ठंड में गर्मजोशी के साथ खड़ी हैं महिलाएं

शाहीन बाग में विरोध प्रदर्शन करती महिलाएं, फोटो साभार – ट्विटर

इस कड़ाके की ठंड में शाहीनबाग में पूरे गर्मजोशी से चलने वाले आंदोलन में किसी राजनीतिक पार्टी का सहयोग या संलिप्तता नहीं है। इस आंदोलन का कोई एक नेता या प्रतिनिधियों का समूह नहीं है। यह एक ऐसा स्वतः स्फूर्त आंदोलन है जिसकी नेता व आयोजनकर्ता यहां की आम महिलाएं हैं, जो प्रायः घरों में रहती थी और अपने घर-गृहस्थी के कार्यों में व्यस्त रहती थीं।

केंद्र सरकार व राज्य के सारे ताकतवर लाव-लश्कर का डर मानो इनके अंदर से गायब हो गया है। एक महीना होने वाला है और यह आंदोलन लोकतांत्रिक और शांतिपूर्ण तरीके से चल रहा है। मेरे आंकलन में पर्दे में या घरेलू कामों में उलझी रहने वाली ये महिलाएं इस आंदोलन का जिस तरह से नेतृत्व कर रही हैं, वह प्रतिरोध की एक नई इबारत लिखती हुईं प्रतीत हो रही हैं।

महिला जाति के लिए पितृसत्तात्मक समाज के द्वारा गढ़े गए तमाम आचार संहिताओं व वर्जनाओं को तोड़कर ये महिलाएं अपने घरों से निकलकर आंदोलन में शरीक हैं। इन महिलाओं का प्रबंधन और आयोजन इतना व्यवस्थित है कि बिना अपने घर-गृहस्थी के कार्यों को नुकसान पहुंचाए आंदोलन की निरंतरता को बनाए हुई हैं।

एक दूसरे के प्रति सहयोगी भावना का ऐसा नायाब उदाहरण कहीं और देखने को नहीं मिलेगा। हर उम्र की महिलाएं इस संविधान व देश विरोधी कानून के खिलाफ मज़बूत तेवर के साथ खड़ी हैं। इस आंदोलन में बड़े-बुजुर्ग महिलाओं की भूमिका भी सराहनीय और अनोखी है।

ये महिलाएं सरकार की नीयत से वाकिफ हैं

इनमें से कुछ बुजु़र्ग महिलाओं को टीवी डिबेट में इस कानून के खिलाफ ज़िरह करते हुए आपने देखा होगा। इनके तर्कों को सुना होगा। इस कानून की एक-एक बारीकियों तथा इसके भीषण परिणामों से ये महिलाएं पूर्णतः वाकिफ हैं।

इन आंदोलनकारियों को पता है कि यह सरकार तानाशाही की ओर अग्रसर है। यह हर कीमत पर इस कानून को देश में लागू करेंगे और मीडिया और सरकारी मशीनरी का उपयोग इसके फायदें गिनाने व इसकी वकालत करनें में लगाएंगे। हम सब ऐसा होता हुआ देख रहे हैं।

शाहीन बाग में प्रोटेस्ट के दौरान महिलाएं। फोटो साभार- प्रीति परिवर्तन

देश के लोग जनविरोधी नोटबंदी और जीएसटी लागू करने के दौरान इनकी नीयत और हठधर्मिता को देख चुके हैं। इसलिये संविधान विरोधी नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के खिलाफ चल रहे इस आंदोलन की महिलाएं सरकार की मंशा और झूठपटुता को जानती हैं। मोदी के भाषणों की उग्र ललकार अपनी विश्वसनीयता खो चुकी है।

10 जनवरी को जब इन्होंने नागरिकता संशोधन कानून को पूरे देश में लागू करते हुए भारत के राजपत्र में इसकी घोषणा निकाली तो देशवासियों को तसल्ली हो गई कि यह देश को तबाह करके मानेगें।

पितृसत्तात्मक नेतृत्व वाले वर्चस्व को चुनौती

इसके अलावा दक्षिण में थंथई पेरियार के द्रविण आंदोलन को अपवाद मान लिया जाए तो ज़्यादातर भारतीय सामाजिक, राजनीतिक जन आंदोलनों में पुरूष वर्ग का वर्चस्व रहा है। वही नेतृत्व व आयोजन की भूमिका में होता है। लेकिन शाहीनबाग की तस्वीर दूसरी है।

शाहीनबाग में महिलाओं ने जन-आंदोलनों में अपनी भागीदारी व प्रबंधन से अपनी जगह व वजूद की दावेदारी की है। अपने नेतृत्वकारी वर्चस्व को मनवाया है। एक तरह से वे पितृसत्तात्मक नेतृत्व वाले वर्चस्व को चुनौती देती प्रतीत हो रही हैं।

ये वे महिलाएं है जिन्हें इसके पहले किसी भी आंदोलनों में भागीदारी का अनुभव नहीं है। पहली बार वे घरेलू काम-धंधे के साथ अपने देश और संविधान को बचाने में अपने जीवन की सार्थकता समझ रही हैं। जो लोग इस पूरे आंदोलन को इस्लामिक घृणा व मज़हबी चश्में से देख रहे हैं उन्हें भी ये महिलाएं करारा जवाब दे रही हैं।

धर्म या उसके उसूलों से इन्हें कोई लेना देना नहीं है। इनका तर्क है,

बाबरी मस्जिद तोड़ी गई, हम महिलाएं दुखी ज़रूर हुईं पर खामोश रहीं। मॉब लिंचिंग व तीन तलाक के मामले पर भी हम लोग अपने घरों से नहीं निकलीं क्योंकि लोग समझते कि ये तो अपने मज़हब को बचाने के लिए आवाज़ उठा रही हैं। लेकिन जब यह सरकार, संविधान को तोड़ व देश के पंथनिरपेक्ष मूल्यों को कुचल रही है, तो हम लोग घरों से निकलकर सड़कों पर आंदोलनरत हैं।

ऐसा नहीं है कि भारतीय पितृसत्तात्मक समाज की पारिवारिक संरचना रातों-रात बदल गई हैं और इन महिलाओं को अपने घरों में मन-मुताबिक काम करने की आजादी मिल गई है। हालांकि ज़्यादातर घरों के मर्द इन महिलाओं के समर्थन में हैं लेकिन जहां ऐसा नहीं है वहां ये महिलाएं घर-गृहस्थी के अलावा अपने घर के पुरूषों से सीएए व एनआरसी पर चर्चा कर रहीं हैं।

अपने बच्चों के साथ डटी हैं

पारिवारिक जकड़बंदियों को तोड़कर पुरूषों को अपने इस आंदोलन में शरीक होने की भूमिका को लेकर विश्वास दिला रही हैं।  यह कम महत्वपूर्ण बात नहीं है।

शाहीन बाग में अपने बच्चों के साथ विरोध प्रदर्शन करती महिलाएं, फोटो साभार – ट्विटर

इसके साथ ही वो अपने अबोध, छोटे-छोटे बच्चों को भी आंदोलन में साथ ला रही हैं। बच्चों के मानसबोध में आज़ादी और संविधान व देश बचाने वाले नारों को अभी से संरक्षित कर रही हैं। अपनी आने वाली पीढ़ी के मस्तिष्क में लोकतंत्र, न्याय, प्रतिरोध तथा समता के मूल्यों का बीज रोपकर उन्हें लोकतांत्रिक, समतामूलक व पंथनिरपेक्ष भारत के लिए तैयार कर रही हैं।

पर्दानशीं औरतों को घर की चारदीवारी से निकलकर सीधे सड़कों पर आना एक सुखद व स्वागत योग्य घटना कहा जा सकता है। एक तरह से यह आंदोलन जागरूकता और संवैधानिक मूल्यों की संवाहिका के तौर पर नारी चेतना के उभार को अपने गोद में समेटे हुए है। ये महिलाएं अपने घरेलू कामों को निपटाने के बाद शाम या रात को गलियों में नारे लगाते हुए आंदोलन में रोज़ शरीक होती हैं।

लैंगिक समानता का उदाहरण है यह आंदोलन

एक तरह से ये महिलाएं समाज में लैंगिक बराबरी के अधिकार का दावा पेश करते हुए अपनी स्वतंत्र पहचान के साथ समाज की प्रगति को आगे ले जाने में अपनी भूमिका निभा रही हैं। खासकर, अल्पसंख्यक महिलाओं का इस आंदोलन में, बहुतायत संख्या में निकलकर हिस्सेदारी करना इस समाजिक वर्ग की महिलाओं के सामाजिक-राजनीतिक सशक्तीकरण का एक प्रेरणास्रोत है।

शाहीन बाह में विरोध के दौरान पढ़ाई करते बच्चे, फोटो साभार – ट्विटर

अगर यह आंदोलन लंबा चलता है तो इस समाज की महिलाओं को चेतना के स्तर पर सशक्तीकरण करने में दूरगामी असर डालेगा। इसके अलावा दिल्ली के विभिन्न इलाकों से आकर पेशेवर समाजसेवी महिला कार्यकर्ताओं ने अपने पेंटिग, कला तथा मेडिकल शिविर लगाकर समाज की प्रगति की संवाहक के रुप में अपनी स्वतंत्र भूमिका निभा रही हैं, जो कई दृष्टिकोण से काबिल-ए-तारीफ है।

देश में शाहीन बाग की तर्ज पर अन्य आंदोलन

इस सरकार ने अपने विध्वंसकारी काले-कारनामों तथा जनता पर ढाए जा रहे जु़ल्मों से प्रतिरोध की ऐसी चिंगारी पैदा कर दी है कि लोग अब संविधान, सहमति-असहमति के अधिकार, न्याय, पंथनिरपेक्षता, मज़हबी सियासत और समता के मूल्यों के प्रति सजग और जागरूक हो रहे हैं।

इस आंदोलन की प्रेरणा से देश के अन्य राज्यों के विभिन्न शहरों में शाहीनबाग की तर्ज पर आंदोलन शुरू हो गया है। कोलकता में पार्क सर्कस, कानपुर में मुहम्मद अली पार्क, इलाहाबाद में मंसूरबाग, गया में शांतिबाग, पुणे में कैसरबाग तथा भोपाल में इकबाल मैदान आदि कई शहरों में इस तर्ज के आंदोलन के जारी हैं।

अंत में नौजवान व विद्यार्थियों द्वारा सोशल मीडिया तथा वैकल्पिक जनसंचार के साधनों के माध्यम से इस सरकार के देश व जनविरोधी नीतियों का जिस तरीके से पर्दाफाश किया जा रहा है, वे सरकारी तंत्र के नियंत्रण से बाहर है। आज शाहीन बाग का आंदोलन पूरे विश्व में सोशल मीडिया के ज़रिये छा रहा है।

सच में दिल्ली का शाहीन बाग जिस शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक आंदोलन का केंद्र बना हुआ है वो एक नई इबारत को गढ़ रहा है। इस आंदोलन की निरतंरता को तोड़ने के तमाम तिकड़म सरकारी तंत्र द्वारा किये जा रहे हैं लेकिन आदोंलन की धार और महिलाओं की एकजुटता बरकरार है।

इस आंदोलन से प्रेरणा लेते हुए बंगाल तथा देश के अन्य कोनो में आदोंलन तेज़ हो रहा है। महिलाओं की सहभागिता देखी जा रही है जो सरकार को चुनौती देता प्रतीत हो रहा है।

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