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“भारत में बलात्कार की घटनाओं को सामान्य क्यों मान लिया गया है?”

बिटिया वेटनरी डॉक्टर थी। 27 वर्ष की उम्र में सपनों के आसमान में तितली की भांति उड़ रही थी। हां आत्मनिर्भर थी, जिसे आज कल ‘सेल्फ डिपेंडेंट’ कहते हैं लेकिन किसे पता था कि एक रात ऐसी भी आएगी जब उस तितली के परों को बेरहमी से नोंच लिया जाएगा।

खैर, यह कुछ नया नहीं है क्योंकि भारत में तो बलात्कार की घटनाओं को सामान्य मान लिया गया है। कहते हैं ना कि जब देश मुर्दों का हो तो किसी को फर्क नहीं पड़ता है। एक काम कीजिए दो-पांच लोगों को पकड़िए, चार मोमबत्ती खरीदिए और बढ़िया सी जगह खोजकर जलती हुई मोमबत्ती के साथ सेल्फी ले लीजिए। उसे इंस्टाग्राम स्टोरी और व्हाट्सएप्प स्टेटस पर लगा दीजिए, बस न्याय अपने आप मिल जाएगा।

दो दिन बाद सब कुछ भूल जाएंगे, क्योंकि भारत में मुद्दों की कमी नहीं है। प्रधानमंत्री कचरा उठा लेंगे फिर तो ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ बन जाएगीऔर यह रेप वाला मुद्दा उसी तरह गायब हो जाएगा जिस तरह रेगिस्तान में पानी की बूंद गायब होती है।

अखबारों और न्यूज़ चैनेलों को एक-दो दिन का मसाला मिल गया, आपको व्हाट्सएप्प स्टेटस मिल गया, क्रांतिकारियों को मोमबत्ती मिल गई और मुझ जैसे लाचारों को आर्टिकल का विषय मिल गया।

बस, अब और क्या चाहिए! दो दिन इंसाफ-इंसाफ चिल्लाते रहिए, हुक्मरान सुनने वाले हैं नहीं और चिल्लाते-चिल्लाते गला अपने आप बैठ जाएगा। निर्भया रेप केस में भी तो यही हुआ था। लोग दो-पांच दिन चिल्लाए, एक घिसापिटा सा कानून बना, रेप केस पर बनी दो-तीन फिल्मों ने अच्छी कमाई की, मीडिया में कई पत्रकार रातों रात स्टार बन गए और जो नाबालिग दोषी है, वह बाहर घूम रहा है।

प्रधानमंत्री मोदी जो हर मुद्दों पर लगभग ट्वीट करते हैं, उन्नाव, कठुआ और हैदराबाद रेप केस पर खामोशी धारण कर लेते हैं। तो किसी से क्या उम्मीद लगाएं और उम्मीद लगानी ही क्यों है? जब यह पता है कि उम्मीद टूटने वाली है तो उम्मीद लगाने का फायदा ही क्या है?

और वैसे भी उस घटिया समाज से क्या उम्मीद लगाना जो यह कह रहा है कि रेप करने वाला हिन्दू था या मुसलमान, उस घटिया मानसिकता से क्या उम्मीद लगाएं जो यह कह रही है कि बहन को फोन करने से पहले पुलिस को फोन करना था और उस घटिया प्रशासन से क्या उम्मीद लगाई जाए जो यह कहता है कि घटना क्षेत्र हमारे अंतर्गत नहीं पड़ता है।

जिस देश में रेपिस्ट का धर्म तय किया जाए, उस देश के मुर्दों से कुछ भी उम्मीद करना बेवकूफियत होगी। कठुआ के वक्त आठ साल की रेप विक्टिम का धर्म पूछा गया था। लगा जैसे इंसाफ भी धर्म की तराज़ू से होकर निकलता है और जाने से पहले पूछता होगा कि किस घर जाना है? मंदिर वाले या मस्जिद वाले? दाढ़ी वाले या टोपी वाले?

तो उम्मीद की बात तो आप जाने ही दीजिए, बस जिस खामोशी के साथ आप लेटे हैं उसी खामोशी के साथ लेटे रहिए। अभी नहीं उठना है, एससी-एसटी एक्ट खारिज हो तब उठना है, आरक्षण के लिए आंदोलन हो तब उठना है और किसी की एसपीजी सुरक्षा हटे तब उठना है। फिलहाल आराम का वक्त है, सोने का वक्त है।

आज शनिवार है, आराम से कपिल शर्मा का शो देखिए, देखकर हंसिए और मज़े से नींद लीजिए।

मैं अपने देश की बेटियों से माफी मांगता हूं कि मैं उनके लिए कुछ नहीं कर पा रहा हूं। आने वाली पीढ़ी से भी माफी मांगता हूं कि इस दरिंदगी के बीच उन्हें पैदा किया जा रहा है।

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