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“आंदोलनों में देश जल रहा है, क्या कर रहे हैं हमारे राजनेता?”

अमित शाह

अमित शाह

क्या भारत के शिक्षण संस्थान पढ़ने के लायक रह गए हैं? आज देश का हर नागरिक जो उच्च शिक्षण संस्थानों में पढ़ने का सपना देख रहा है, वह इस सवाल से ज़रूर इत्तेफाक रखता है।

आए दिन कभी NRC, कभी NPR तो कभी CAA के खिलाफ हाथों में तख्तियां उठाए दिल्ली की सड़कों पर इन शिक्षण संस्थानों में पढ़ने वाले स्टूडेंट्स नारे लगाते हुए दिख जाते हैं। इन स्टूडेंट्स से नारे लगाते वक्त यदि पूछा जाता है कि वे सड़कों पर इस तरह से क्यों नारे लगा रहे हैं? तो वे कहते हैं,

हम बदलाव लाना चाहते हैं मगर यह बदलाव कैसा है, जो एक स्टूडेंट को उसकी विद्या से ही दूर करती नज़र आ रही है?

देश में बदलाव की बयार के साथ चलना गलत नहीं माना जाता है मगर यदि उस बयार की हवा इतनी तेज़ हो कि उसमें आसपास की मिट्टी और धूल मिल जाए, तो वह जल्द ही तूफान का रूप लेने लगती है।

JNU से जामिया तक हर तरफ आंधी

फोटो साभार- सोशल मीडिया

इस तूफान को हाल ही में हमने JNU में देखा और पिछले कुछ दिनों से हम जामिया, अलीगढ़ और डीयू में भी देख रहे हैं। हमने जाना कि बदलाव के नाम पर किस तरह से स्टूडेंट्स सड़कों पर उतरकर अपने हक की मांग कर रहे हैं।

बदलाव तो हमें समझ आता है मगर यह हक का मसला समझ से परे है, क्योंकि एक स्टूडेंट के जीवन में पढ़ना ही सर्वोपरि माना गया है। यही स्टूडेंट्स जब किताब और कलम की जगह हाथों में तख्तियां उठाकर प्रदर्शन करते हैं, तो लगता है कि पढ़ाई के दिन इनके शायद बीत गए हैं।

जिनके हाथों में नारों की तख्तियां अपना स्थान बना लेती हैं, उन हाथों में कलम पढ़ने के लिए नहीं बल्कि बदलाव लाने के लिए होती है। इस बदलाव का अंदाज़ा तब लगता है, जब इसी बदलाव की आंधी में देश भी जलने लगता है।

अक्सर देखा गया है कि इस बयार में स्टूडेंट्स के साथ चंद सियसतदान भी अपनी सियासी रोटियां सेकते हैं और इस बयार बनी आंधी को इतना भड़काते हैं कि वह पिछले दिनों हुए हिंसक प्रदर्शनों में तबदील होने लगता है, जिसकी आंधी में आम नागरिक परेशान हो जाता है।

इस आंधी में शामिल होने वाले कुछ उसके अपने भी होते हैं। इसे शुरू तो स्टूडेंट्स करते हैं मगर अंजाम तक कुछ आराजक तत्व पहुंचाते हैं, जिसे सियासत में रहने वाले कुछ सियासतदान ही नियुक्त करते हैं। ऐसे में सवाल तो उठता है कि आखिर कर क्या रहे हैं सियासतदान?

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