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“क्या सिर्फ फांसी की सज़ा देने से जघन्य अपराध समाप्त हो जाएंगे?”

बलात्कारियों को फांसी की सज़ा की मांग के लिए प्रदर्शन

बलात्कारियों को फांसी की सज़ा की मांग के लिए प्रदर्शन

भारत की आज़ादी के पश्चात भारतीय संविधान की रचना हुई। जिसके अंतर्गत भारतीय नागरिकों के लिए मौलिक अधिकारों से लेकर मौलिक कर्तव्यों का वर्णन बड़े ही विस्तार से किया गया है। हमारा संविधान देश की शक्तियों को उनके कर्तव्य के अनुरूप  न्यायपालिका, विधानपालिका एवं कार्यपालिका के मद्देनज़र विभिन्न शक्ति प्रदान करता है।

आज़ादी के 70 वर्षों बाद भी हमारा भारत शायद गुलामी की जंज़ीरों से ही मुक्त हो पाया है। वर्तमान भारत में दिन-प्रतिदिन बढ़ती घटनाएं हमें ना सिर्फ शर्मसार करती हैं, बल्कि कहीं ना कहीं हीनता के भाव से भी दो चार करती हैं।

भारत ने कुरीतियों के विरुद्ध लंबी लड़ाई लड़ी है

फोटो साभार- सोशल मीडिया

जब हम भारतीय दर्शन की बात करते हैं, तो यह भी समझ पाते हैं कि हमने समाज की कुरीतियों के विरुद्ध अनेक लड़ाईयां लड़ी हैं। मान्यता यह भी रही है कि जब-जब किसी महिला पर अत्याचार हुआ है, तब-तब सामाजिक परिवर्तन हेतु एक नई दिशा का जन्म हुआ है। आज हमें एक तरफ जाति-धर्म के नाम पर एक-दूसरे से अलग किया जाने लगा है, तो दूसरी तरफ सामाजिक पतन को राजनीतिक मंत्र बनाया जा रहा है जिसकी सुरक्षा में हम विफल भी हुए हैं, जो अत्यंत चिंतनीय है।

भारतीय समाज एवं भारतीय धर्म दर्शन ने कभी इन कुरीतियों का साथ नहीं दिया मगर जिस तरह से पिछले कुछ वर्षों में देश की मर्यादा अपमानित हुई है, वह हमारे संस्कारों में निरन्तर पतन का सूचक है। भारतीय शिक्षा पद्धति में नैतिक मूल्यों, चरित्र निर्माण के सिद्धांतों, आपसी सम्भाव एवं सामाजिक समरसता को महत्व दिया गया था। सच तो यह है कि हमें आवश्यकता है अपने बच्चों को, समाज को और अनुजों को नैतिक शिक्षा एवं नैतिक मूल्यों से रुबरु कराया जाए।

चाहे 2012 में निर्भया से जुड़ा जघन्य अपराध हो या वर्तमान में घटित हैदराबाद, बक्सर, रांची या उन्नाव की घटना, मुझे नहीं लगता कि इन कुकर्मों में संलिप्त लोग ही केवल अपराधी हैं। एक समाज के रूप में कहीं ना कहीं हम भी ज़िम्मेदार हैं।

बदलते भारत के ऐसे प्रकरण कहीं ना कहीं राजनीतिक दोष के साथ-साथ सामाजिक दोष का भी परिणाम हैं। लोकतांत्रिक मूल्यों के इस अखंड राष्ट्र में कहीं ना कहीं मीडिया ने भी अपने मार्ग को बदल लिया है। इन समस्याओं के जन्म होने के जो मूल कारण हैं उनकी जड़ में जाने की आवश्यकता है।

इंटरनेट पर रेप की घटना का वीडियो सर्च करने वाला हमारा समाज

फोटो साभार- सोशल मीडिया

जब हम बलात्कारियों को फांसी देने की बात करते हैं तो हमें यह भी सोचना होगा कि सिर्फ ऐसा करने से ये जघन्य अपराध समाप्त हो जाएंगे? अगर ऐसा होता तो भारत में आए दिन बलात्कार की घटनाएं नहीं सुनने को मिलतीं।

अब देखिए एक समाचार पत्र के संस्करण में यह बात सामने आई कि हैदराबाद में जिस महिला डॉक्टर के साथ दुष्कर्म हुआ, उस घटना के वीडियो को देखने लिए सिर्फ 48 घंटे के अंदर लाखों लोगों ने सर्च किया। आखिर हम कहां जा रहे हैं? हमलोग किस समाज का निर्माण कर रहे हैं?

उपरोक्त प्रश्न मैं आप सब के ऊपर छोड़ता हूं। निर्णय आप ही करें कि समाज का निर्माण हम सभी किस दिशा में कर रहे हैं? दूसरी ओर ना सिर्फ राष्ट्रीय धन सम्पदा की क्षति करना अपितु किसी सम्प्रदाय विशेष या समाज का उस पर गर्व करना भी हमें एक राष्ट्र होने के अवलोकन को शर्मिन्दा करता है। अभी भी वक्त है खुद में सुधार लाइए ताकि हमारा समाज सही दिशा में आगे बढ़ सके।

आने वाली पीढ़ी को हम क्या देंगे?

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

जो भारत सम्पूर्ण विश्व को अपना परिवार मानता है, जो भारत पुनः विश्वगुरु बनने के स्वप्न को बुनने का प्रयत्न कर रहा है, जो भारत विश्व की सबसे तेज़ी से उभरने वाली अर्थव्यवस्था बन रहा है, उस भारत में ऐसी घटनाओं का निरन्तर घटित होना कतई शुभ संकेत नहीं है। यह एक सामाजिक कुरीति भी है, जी हां मैं इसे सामाजिक कुरीति ही मानता हूं क्योंकि हम एक समाज के रूप में असफल हो रहे हैं।

अंत में इतना ही कहूंगा कि अगर हैदराबाद पुलिस सही है, तो गाँधी जी की हत्या करने वाले गोडसे भी सही हैं। गोडसे उस जनभावना का ही तो आदर कर रहे थे, जहां विभाजन की मार लाखों बेटी-बहुओं को अपनी आबरू लुटाकर सहनी पड़ रही थी। इस विभाजन के लिए लोग गाँधी-नेहरु को कुसूरवार ठहरा रहे थे।

वे सभी गौ-रक्षक भी स्वतंत्रता सेनानी कहलाने योग्य हैं, जो करोड़ों हिन्दुओं की आस्था की प्रतिक गाय की चोरी, तस्करी और गौमांस रखने के आरोपियों को मौत के घाट उतारने का काम किया हैं। दिल्ली का वह वकील भी आदर्श समाजसेवक है, जो अपने साथी वकील के ऊपर चली गोली, लाठी से आहत था और उसके ज़िम्मेदार पुलिस बिरादरी के एक आदमी पर टूट पड़ा।

जन-भावना को विस्तार दीजिए लेकिन सोच-समझकर। देश आपका है, निर्णय लेने से पहले सोचिए ज़रूर। हां, संविधान के साथ-साथ राष्ट्रीय सम्पदा, राष्ट्रीय संस्कृति एवं अखंडता का भी सम्मान कीजिए।

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