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देवभूमि उत्तराखंड में लंबा है पीरियड्स से जुड़े धार्मिक मिथकों को तोड़ने का संघर्ष

उत्तराखंड, हिमालय की गोद में बसा एक खूबसूरत पर्वतीय राज्य है। माफी चाहूंगा एक विशेषण लगाना छूट गया “देवभूमि” उत्तराखंड। देवभूमि कहलाए जाने का मतलब यह है कि हम शुद्धता और पवित्रता की पूरी गैरंटी देते हैं और हमारी कोई शाखा नहीं है।

पवित्रता और शुद्धता का ध्यान रखते हुए हम कुछ पुरानी धारणाओं को आज भी ढोए चले जा रहे हैं, जैसे कि महीने के “उन दिनों” में रखी जाने वाली शुद्धता जिसमें की कई बातें ध्यान में रखी जाती हैं।

इन बातों में,

जैसे माहवारी का आना, महिला को कोई भयानक बीमारी हो जाना है।

पीरियड्स की बात करना गंदी बातें हैं

अकसर पहाड़ों में महिलाओं से साथ उन “खास दिनों” की वजह से भेदभाव होते हैं। हालांकि साल 2018 में अक्षय कुमार की फिल्म पैडमैन ने उस भारतीय सोच को बदलने की कोशिश ज़रूर की लेकिन उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों, यहां तक की राजधानी देहरादून में भी फिल्म के इस मैसेज का कोई खास असर देखने को नहीं मिला है।

फिल्म के प्रमोशन के तौर पर ‘पैडमैन चैलेंज’ भी किया गया, जिसके चलते सोशल मीडिया पर लोगों को सैनेटरी पैड्स के साथ फोटो खींचकर अपने सोशल मीडिया टाइमलाइन पर पोस्ट भी की थी, लेकिन कुछ एक युवाओं के अलावा इसपर भी कुछ खास प्रतिक्रियाएं नहीं आई।

हां, ऐसे पोस्ट डालने वालों लोगों के कमेंट बॉक्स पर उनके चाल-चलन में उंगलियां उठती हुई ज़रूर नज़र आई।

मुझे याद है कि पुराने अखबारों में सप्ताहांत विशेष में एक कोने पर “महिलाओं के लिए विशेष” कॉलम आता था, जहां माहवारी में अनियमितता या पेट दर्द जैसी समस्याओं के बारे में प्रश्न होते थे और विशेषज्ञ उसका समाधान देते थे।माहवारी शब्द के साथ मेरा पहला एनकाउंटर भी शायद ऐसे ही हुआ था।

कभी घर का कोई बड़ा यह कॉलम पढ़ते हुए देख लेता, तो “गन्दी बातें नहीं पढ़ा करते” कहकर अखबार हाथों से छीन लिया जाता था।

देवी को उन तीन दिनों में पूजा जाता है

यदि धार्मिक मान्यताओं के अनुसार देखें, तो असम में एक प्रसिद्ध कामाख्या देवी मंदिर है। बताया जाता है कि वर्ष में एक बार तीन दिन के लिए मंदिर के कपाट बंद किये जाते हैं, क्योंकि उस समय देवी की मूर्ति रजस्वला हो जाती है। मूर्ति को सफेद कपड़े से ढ़क दिया जाता है और खूब धार्मिक अनुष्ठान किये जाते हैं, हवन किये जाते हैं।

तीन दिन बाद मंदिर के कपाट दर्शन के लिए खुलते हैं और देवी की मूर्ति पर लगा कपड़ा जो कि अब लाल हो चुका होता है, उसे प्रसाद के रूप में भक्तों को बांटा जाता है।

यह सोच की ही भिन्नता है कि कहीं देवी की मूर्ति के रजस्वला होने पर हवन हो रहे हैं। रक्त से लाल हुए कपड़े को प्रसाद में वितरित किया जा रहा है। वहीं दूसरी और एक जीती-जागती महिला को पीरियड्स होने पर उसका धार्मिक कार्यों में शामिल होने से बहिष्कार कर दिया जाता है।

जिस कारण से सृष्टि का सृजन हो सकता है, उसे ही औरतों वाली बीमारी का नाम दे दिया जाता है। जिसके बारे में लोग बात तक नहीं करना चाहते।

मुझे याद है कि अकसर स्कूल में बड़ी क्लासेज़ में पढ़ने वाले लड़के, हम छोटी क्लासेज़ के लड़कों को कहते थे कि चलो तुम्हे कुछ दिखाते हैं और फिर वे हमको नाले-गदेरों के पास ले जाते और खून से सने कपड़े या पैड्स दिखाते। छोटे लड़कों के लिए यह कौतूहल का विषय होता है।

पहाड़ी क्षेत्रों में पीरियड्स, माहवारी, डेट्स जैसे शब्दों के साथ खुले मुंह आज भी बात नहीं की जाती है और यह सिर्फ महिलाओं के बीच में की जाने वाली बातों का मुद्दा बन जाता है।

माहवारी शर्म नहीं, सेहत की बात

आज भी ऐसे कई इलाके हैं, जहां पैड्स के पैकेट काले रंग की प्लास्टिक थैलियों या अखबार में लपेटकर दिए जाते हैं।

माहवारी का आना एक प्राकृतिक रूप से होने वाली जैविक प्रक्रिया है, जिसमें की महिला के शरीर में कई हार्मोनल बदलाव भी होते हैं। चिड़चिड़ापन, झल्लाहट, मूड स्विंग्स, पेट दर्द, कमज़ोरी महसूस करना इत्यादि आम लक्षण हैं, जो कि इस जैविक प्रक्रिया का हिस्सा है। हां, माहवारी का ना आना ज़रूर एक चिंता का विषय हो सकता है।

पीरियड्स पर खुलकर बात करने और इसे एक शर्म या टैबू बनाने की सोच को बदलने की मंशा से पिछले वर्ष लखनऊ के मनकामेश्वर मठ की मंहत दिव्यागिरि जी ने मंदिर परिसर में ही एक गोष्ठी की जिसका विषय था, “माहवारी शर्म नहीं, सेहत की बात”।

ऐसे कार्यक्रमों की वजह से कई बातें खुलकर सामने आईं, जैसे कि पुराने समय में पीरियड्स आने पर क्यों महिला को सार्वजनिक तालाबों, पोखरों में नहीं जाने दिया जाता था, साफ़-सफाई के बारे में क्यों परिजन चिंता करते थे।

दरअसल, वह समय ऐसा था, जब पानी के पोखर, तालाब, नदियां घरों से दूर हुआ करती थीं। ऐसे में शारीरिक रूप से कमज़ोरी महसूस कर रही महिला के लिए इतनी दूर पैदल चलकर जाना या भारी बर्तनों में पानी भरना सही नहीं था। उन्हें आराम करने का समय देने के लिए रसोईघर या गृहस्थी से जुड़े अन्य कार्यों से भी रोका जाता था।

सैनेट्री पैड्स तो थे नहीं, तो जगह-जगह खून ना फैले और इस से कोई बीमारी नाफैले, इसलिए उन्हें एक ही कमरे में रखा जाता था, लेकिन आज जब सबके घरों में बाथरूम हैं, पानी की सुविधा है, हाइजीन बनाए रखने के लिए सैनेटरी पैड्स हैं, हैंडवॉश और सैनिटाइज़र इत्यादि की सुविधा उपलब्ध है, तो ऐसे माहौल में अभी भी माहवारी को बंद कमरे में दो महिलाओं के बीच की चर्चा बनाये रखना भी सही नहीं है।

पढ़े लिखे समाज में पुराणी धारणाओं का बिना तार्किक अवलोकन किये, उसे ढोते रहना भी ठीक नहीं है। इसी के चलते 28 मई को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर “माहवारी स्वच्छता दिवस” के रूप में मनाया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य समाज में फैली पीरियड्स संबंधी तमाम गलत भ्रान्तियो को मिटाकर महिलाओं एवं किशोरियों को सही जानकारी देना है।

शुरुआत अपने घर से करनी होगी

महीने के वे पांच दिन आज भी शर्म और उपेक्षा का विषय बने हुए हैं, लेकिन अब इस धीमी सी फुसफुसाहट को ऐसे मंच मिल रहे हैं, जहां से यह बुलंद आवाज़ में तब्दील हो रहे हैं।

वर्ष 2019 के फरवरी माह में लॉस-एंजेलेस की एक युवती का वीडियो खूब वायरल हुआ था, जिसमें वह अपने पीरियड्स ब्लड से खुद को पेंट करती है। उसका उद्देश्य भी समाज तक यही सन्देश पहुंचाना ताकि अब और मौन नहीं, पीरियड्स पर चुप्पी तोड़नी होगी क्योंकि ये शर्मनाक नहीं गौरव है और इस बदलाव की शुरुआत हमें अपने घरों से ही करनी होगी।

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