13 फरवरी को हम राष्ट्रीय महिला दिवस मनाएंगे । यह दिवस भले ही सरोजिनी नायडू के जन्म दिन के रूप में लिखित है मगर ये हमारे देश के लिए काफी गर्व की बात है की अंतराष्ट्रीय घरानों की भांति हमारे देश ने भी एक मजबूत पहल की है ।
महिलाओं या महिला दिवस पर लिखने से पहले मैं आपको बता दूं की मैं कोई नारीवादी क्रांति को समाज में थोपने की बात नही कर रहा और ना ही पितृसत्तात्मक समाज को उसका आईना दिखा रहा।
अमूमन ये हमारे पितृसत्तात्मक सामाजिक ढांचे का ही दोष है जो महिलाओं को जैविक और व्यहारिक वर्गों में पुरुष से अलग करता है। सबसे पहली बात एक ओर हमारा संविधान इस बात पर बार बार जोर देता है की महिलाएं पुरुष के कदम से कदम मिलाकर चलेंगी और समाज में पुरुष से ऊंचा स्थान प्राप्त करेंगी और पितृसत्तात्मक समाज की व्यवस्था को कुछ हद तक कम करेंगी वहीं दूसरी ओर संविधान ने महिलाओं के लिए शादी की उम्र 18 और पुरुषों के लिए 21 रखी है यानी पुरुष स्त्री से उम्र में बड़ा होना चाहिए।दरअसल दुनिया में हम तो नर(male) और मादा (female) के रूप में ही कदम रखते हैं मगर हमे मर्द और औरत हमारा समाज बना देता है।
पुराणों और उपनिषदों में जिनमे पितृसत्तात्मक समाज को सही औचित्य से परखा है उसमे भी वैचारिक विखंडन है।
अक्सर हमे सुनने को मिलता है स्त्री चरित्रवान होनी चाहिए । शर्मा जी की बेटी कल सिगरेट पीते देखी गयी। हाँ मगर शर्मा जी का बेटा अगर हातों में किंगफिशर की बोतल लेकर घूमता है तो ये उसका मर्दाना हक़ है जो उसे उसका समाज देता है।
शर्मा जी का बेटा महीने भर में 4 महिला मित्र बदलता है तो ये उसका मर्दाना हक़ है जो उसे उसका समाज देता है मगर शर्मा जी की बेटी अगर महीने में 2 पुरुष मित्र भी बदल ले तो वो चरित्रहीन औरत है।
अगर सिगरेट पीना बुरा है तो पुरुष का पीना भी बुरा है। और अगर पुरुष को अधिकार है सिगरेट पीने का तो प्रत्येक स्त्री को अधिकार है सिगरेट पीने का। कोई चीज बुरी है तो सबके लिए बुरी है और नहीं बुरी है तो किसी के लिए बुरी नहीं है। आखिर स्त्री में क्यों हम भेद करें?
मगर ये मापदंड हम पुरुषों ने ही बनाया है की सिगरेट और शराब पुरुषों की चीज़ है और जो नारी इसका प्रयोग करती है वो चरित्रहीन है। पुरुष अगर लंगोट लगाकर नदी में नहाए तो ठीक है और स्त्री अगर लंगोटी बाँधकर नदी में नहाए तो चरित्रहीन हो गई।
शास्त्र कहते है, जब स्त्री बालपन में हो तो पिता उसकी रक्षा करे, जवान हो तो पति, बूढी हो जाए तो बेटा रक्षा करें। तो आखिर ये रक्षा करने की बात उठ ही क्यों रही है। महिलाओं को रक्षा की जरूरत क्यों है ? इसलिए की वो पितृसत्तात्मक समाज में रहती है और इसलिए की उसे पुरुषों की छाया में रहना है।
दुनियां में मुशिकल से कोई धर्म होगा जिसने स्त्री को इज्जत दी हो। स्त्री मस्जिद में नहीं जा सकती। बस नारी का एक ही उपयोग है, जिसे स्वर्ग जाना हो वह नारी को छोड़ कर भाग जाए जैसे बुद्ध ने किया। पहली क्रांति नारी को इन कथित धर्म गुरूओं के खिलाफ करनी चाहिए जो ये नियम कानून बनाते हैं और वे अबोध नारी जो इनके हां में हां मिलाकर चलती है।अगर आपको मस्जिद में जाने की इजाजत नही है तो आप सवाल करो ना या फिर चलते आ रहा उसी को ढोते रहोगे।
चलिये अब आध्यात्मिकता की बात करते है जिसका जिक्र नारी दिवस पर जरूर होना चाहिए। हम पुरुष तो सिर्फ अपने शरीर की ऊपरी शक्ति का हिसाब लगाते रहते हैं, यानी की मसल की शक्ति। पुरुषों को लगता है कि वे अपने बाहुबल से भारी पत्थर भी उठा लेते हैं, जबकि स्त्रियां ऐसा नहीं कर सकतीं। लेकिन वास्तव में ये शक्ति नहीं। शक्ति को मापने का यह पैमाना बिल्कुल नहीं। शक्ति का पैमाना तो सहनशक्ति से होता है और ताकतवर वही होता है, जिसमें सहनशक्ति ज्यादा होती है। ये मेरे नारीवादी विचार की उपज नही बल्कि ग्रंथों में उल्लिखित है जिसकी मैं बस प्रति आपको बता रहा।
महान दार्शनिक की ये बात बिल्कुल सत्य है जिसको मैं भी मानता हूँ की स्त्री पुरुष से कभी नहीं कहती कि यह करो, यह मत करो। वह जो भी चाहती है, करा लेती है।पुरुष उसके मोहपाश में इस कदर बंधे होते हैं कि मना ही नहीं कर सकते।(यहां स्त्री का बोध कुछ खाश वर्गों के स्त्री से ही है)
यानी कि स्त्री, पुरुष की तुलना में बहुत शक्तिशाली है। उसकी शक्ति का रहस्य पुरुष को समझ ही नहीं आता। उसकी शक्ति अदृश्य है, जो दिखाई नहीं देती, लेकिन ताकतवर से ताकतवर पुरुष को इस कदर अपने वश में कर लेती है कि पुरुष एकदम अशक्त बन जाता है।
इसीलिए अंत में मैं यही लिखना चाहूंगा की अगर स्त्री कमजोर होती तो शहरों की दीवारों पर ‘मर्दाना कमजोरी को दूर करे’ जैसे इश्तेहार देखने को नही मिलते।