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नये भारत की नई इबारत लिखती जामिया और गार्गी की लडकियां

दिल्ली विश्वविद्यालय के गार्गी कालेज में छात्राओं पर ‘जय श्रीराम‘ के नारे लगाते गुण्डों का अश्लील हमला और संसद मार्च के लिए सड़क पर उतरी जामिया की छात्राओं पर पुलिसिया हमले में छिपी, निहित अश्लीलता और यौन कुंठा भारतीय समाज की बीमार तस्वीर को सहज ही रेखांकित कर जाती है। यह उस समाज की तस्वीर है जो नारी को पूजनीय कहता है परंतु उसका बुनियादी स्वभाव महिला विरोधी है, वह विष्व बंधुत्व के भारी दावे करता है परंतु अपने ही भीतर के बडे हिस्से के प्रति उसका स्वभाव अमानवीय रहता है। भारतीय समाज का यह असहज करने वाला अमानवीय रूप आज अपने उग्र और उन्मादी चेहरे की शक्ल में हमारे सामने है, महिलाओं से लेकर दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के स्वभाविक दुश्मन की शक्ल में।
दरअसल, हमारा देश आज चारो तरफ ऐसे ही विभिन्न संघर्षों और संकटों का गवाह बन रहा है। कहना नही होगा कि देश इस समय गंभीर संक्रमण के दौर से गुजर रहा है और यह संक्रमण अनेक स्तरों पर है, बहुआयामी है। दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी, रूढ़िवादी ताकतों का उभार और उनका आक्रामक और हिंसक रूप इस दौर की एक विशेष पहचान है। परंतु उनका प्रतिवाद और उनका निर्णायक एवं दृढ़ विरोध भी इस समय की ही एक विशेषता है, एक आशा है। जब मोब लिंंिचंग रोजमर्रा की घटनाओं का हिस्सा बन चुका है, अंध राष्ट्रवाद राजनीतिक विमर्श का अनिवार्य अंग बनने पर उतारू है, बढ़ती सामाजिक, सास्कृतिक और राजनैतिक असहिष्णुता हताश और निराश करने वाली अवस्था में है। उस दौर में नई पीढी की के प्रतिरोध और प्रतिक्रियाएं कुछ आशा जगाती हैं, उम्मीद बंधाती हैं। वो आने वाले कल की तस्वीर की एक हल्की सी आहट देती हैं, अभी एक धुंधली सी मगर मजबूत उम्मीद भी छोड़ जाती हैं।
हालांकि इस संक्रमण की आहट और गूंज विकासशील तीसरी दुनिया से लेकर विकसित देशों तक में भी साफ देखी जा सकती है परंतु दक्षिणी एशियाई देश और विशेषकर भारत संक्रमण के इस दौर के संकटों की सबसे बडी जमीन और सबसे बडा गवाह बनता दिखाई पड रहा है। इसलिए कि भारतीय समाज के संकट बहु-स्तरीय और बहु आयामी है। वह इसलिए कि उसमें जारी संक्रमण भी बहु-आयामी है।
हम साक्षी हैं, एक उस संक्रमण के जिसका गवाह आज पूरा संसार है। औद्योगिक युग से सूचना के युग में संक्रमण, औद्योगिक युग से ज्ञान आधारित समाज में संक्रमण। यह एक ऐसा संक्रमण अथवा एक ऐसा बदलाव है जो पूरे समाज, पूरी संस्कृति और राजनीति को बदल रहा है, नये सिरे से गढ रहा है। इस बदलाव अथवा संक्रमण का कारण उत्पादन के औजारों में आ रहा बुनियादी बदलाव है। जाहिर है उत्पादन के औजार बदल रहे हैं तो उत्पादन व्यवस्था और समाज में भी बदलाव अवश्यंभावी है। यह बदलाव शारीरिक श्रम से मानसिक श्रम की तरफ बढ़ने की एक नई अवस्था का बदलाव है। सामूहिक से व्यक्तिगत श्रम पर निर्भरता की तरफ बढ़ने का बदलाव है। उत्पादन के औजार बदलने से विशेषकर, सूचना प्रौद्योगिकी के विकास ने इस बदलाव में व्यक्ति की भूमिका को बढ़ाया है, उसके महत्व को विशेष रूप से उल्लेखनीय बनाया है। जिसका सीधा असर व्यक्तिगत स्वत्रंतता और निजता के लिए बढ़ते विशेष आग्रह के रूप में साफ दिखाई पडता है। जिसका ही परिणाम है कि इस दौर की पीढ़ी, नई पीढ़ी अपने लिए एक अलग स्पेस अर्थात एक व्यक्तिगत स्पेस चाहती है। यह संयुक्त परिवारों के टूटने और बढ़ते एकाकी परिवारों की संख्या में रेखांकित हो रहा है, तो नयी पीढ़ी के बाहरी निर्णयों को नकारने और अपने व्यक्तिगत निर्णयों को प्राथमिकता देने में भी रेखांकित हो रहा है। यह पुरानी पीढी के मूल्यों और सामूहिक उत्पादन की अन्योनाश्रिता और उसके स्थापित मानदण्डों और उनमें बंधे रहने से सीधी बगावत की जमीन को तैयार करता है। उत्पादन के साधनों में बदलाव से होने वाली संक्रमण की यह अवस्था ऐसी है जिसका स्वरूप और रूप विश्वव्यापी है। इस बदलाव की एक और विशेषता जो इसे विश्वव्यापी बनाती है, वह सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के कारण समय और स्थान अर्थात टाइम और स्पेस में आयी सिकुडन के कारण भी है।
परंतु यह विश्वव्यापी संक्रमण भारतीय संदर्भों में बहु आयामी हो जाता है। क्योंकि यहां केवल मामला औद्योगिक युग से सूचना युग में जाने भर का नही है, बल्कि एक सामंती समाज से पंूजीवादी समाज में जाने अथवा सामंती समाज से सीधे छलांग लगाकर सूचना युग में चले जाने का है, यहां मामला सामंती समाज से भी पहले से मौजूद एक पूर्व सामंती ब्राहमणवादी व्यवस्था को चुनौती देने का भी है। भारतीय समाज और उसमें जारी विकास अधिक घटना प्रधान इसीलिए हो जाता है कि उसे कईं युगों की विषमताओं से एक साथ निपटना है और उनसे निपटते हुए आगे बढ़ना है। वह समाज गार्गी कालेज की छात्राओं पर ‘जय श्रीराम‘ के नारे लगाते अश्लील हमले के खिलाफ बोलता तो है परंतु काॅलेज की लडकियों की पोशाक और उनकी आजाद ख्याली पर भी टिप्पणी करने से नही चूकता है। जामिया की छात्राओं पर हमला उस परंपरागत समाज को नागवार तो गुजरता है, परंतु अपने हक के लिए अपनी निजी राय के लिए बेटियों का यूं बेखौफ हो जाना और बगावत पर उतर आना भी उस समाज को मंजूर नही होता और वो अपनी खामोशी और महिलाओं के लिए नैतिकता के तमाम परामर्शों के साथ अनजाने में ही जामिया की बेटियों पर हमले के साथ खडा हो जाता है, असहाय और खामोश। वह जामिया की बेटियों के आंचल के खींच लिये जाने पर उग्र होता है, आवेश में तो आता है मगर उस समाज को आंचल का परचम बन जाना भी कतई मंजूर नही होता है और वह खमोश हो जाता है। हमलावरों के मूक समर्थक की तरह।
यही मुश्किलें हजारों साल से ब्राहमणवादी मानसिकता के वर्चस्व में जी रहे जातिवादी भारतीय समाज की भी हैं। भारतीय समाज जातियों अथवा वर्णों में विभाजित समाज है। वास्तव में ब्राहमणवादी व्यवस्था श्रम मूल्य के दोहन उसके शोषण के लिए बनायी गयी एक ऐसी समाज व्यवस्था जिसका ना केवल उपयोग हजारों सालों से प्रत्येक सत्ता ने किया है बल्कि उसे निहित स्वार्थों के कारण और अधिक मजबूत किया है। आर्यों से शुरू हुई इस ब्राहमणवादी व्यवस्था को अपने राजस्व उगाही के लिए प्रेरक और उसके सवर्था अनुरूप होने के कारण ना केवल हिंदू शासकों वरन मुस्लिम शासकों और अंग्रेज शासकों ने भी जारी रखा बल्कि इसे अधिक सशक्त और सुचारू बनाया। यह ब्राहमणवादी व्यवस्था मूल रूप से धार्मिक विश्वास और आडम्बरों से संबद्ध होकर शोशण की एक स्थायी और मजबूत प्रणाली का निर्माण करती है। वह महिलाओं के प्रति स्वयं को उदार दिखाने के लिए उन्हें पूजनीय बताती है, परंतु वास्तव में उन्हें समाज में कभी भी दोयम दर्जे की नागरिक से आगे बढ़ने नही देती है। यह व्यवस्था विश्वबंधुत्व औार वासुधैव कुटुम्बकम जैसे आदर्श वाक्य गढने और बंधुत्व व्यवस्था होने का ढोंग करती है परंतु अपने ही बहुमत हिस्से के शारीरिक श्रम का शोशण करने के लिए उसे अछूत और अस्पृश्य मानती है और ऐसी मान्यताओं को स्थायी बनाने और इस भेदभाव को स्वाभाविक सिद्ध करने के लिए उसे धर्मसम्मत बताने के लिए धार्मिक ग्रंथों का निर्माण करती है। परंतु यह आधुनिक विकास का चमत्कार ही है कि सूचना के इस युग में इन धार्मिक आडम्बरों को ना केवल चुनौती मिल रही है बल्कि सूचना समृद्ध नयी पीढ़ी इन आडम्बरों को खारिज कर रही है। इतिहास में इस शोषणकारी ब्राहमणवाद को इतनी स्पष्ट और बडी चुनौती कभी भी नही मिली थी।
वास्तव में, यही बहुआयमी संक्रमण देश में विभिन्न बहु-स्तरीय संघर्षों को तेज कर रहा है। पुराने सामाजिक मूल्यों को चुनौती मिल रही है और इस मोर्चे पर महिलाओं की भागीदारी उल्लेखनीय है, सराहनीय है। परंपरागत ब्राहमणवादी व्यवस्था में महिला की भूमिका नगण्य थी। वह संस्था के रूप में परिवार की सबसे महत्वपूर्ण और मूल्यवान भागीदार थी मगर उसके श्रम का कोई आर्थिक मूल्यांकन नही था परंतु पिछले कुछ सालों में महिलाओं की भूमिका समाज में बढी है। उसके श्रम का आर्थिक मूल्यांकन होने लगा है, वह अपने श्रम का दाम मिलना शुरू हुआ है, उसने अपना भौतिक मूल्य पहचानना और उसे मांगना सीख लिया है। उसने समाज में अपनी एक बराबरी की भूमिका निर्धारित करने का सपना देखने का हौंसला पा लिया है। उसे जहां अवसर मिले हैं उसने अपनी योग्यता का लोहा मनवाया है। समाज के ऐसे पेशों में उसका पर्दापण हुआ है जहां किसी समय केवल पुरूषों का ही आधिपत्य था। फिल्मों में निर्देशन से लेकर गीत लिखने तक, सेना के विभिन्न हिस्सों में, वायुसेना में हवाई जहाज उडाने से लेकर, इंजीनियरिंग के पेशे में जहां महिलाओं की उपस्थिति नदारद थी अथवा नगण्य थी, वहां महिलाओं ने ना केवल अपनी मौजूदगी दर्ज की है बल्कि वहां अपनी धाक भी जमाई है। यह बदलते भारत की तस्वीर रूढिवादी पुरूषसत्तात्मक समाज का प्रतिनिधित्व करने वालों को विचलित करती है, उद्वेलित करती है। जो उन्हें समाज में एक नये तरह के टकराव के लिए महिलाओं पर हमले के लिए प्रेरित करता है और इस हमले पर सत्ता की खामोशी सत्ता के उपरोक्त रूढिवादी हिस्से के प्रति ना केवल हमदर्दी को रेंखांकित करती है बल्कि हमलों पर सत्ता की निष्क्रियता हमलों में सत्ता की सक्रिय भागीदारी को उजागर करती है और बार बार करती है।
परंतु दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी राजनीति के यह केन्द्र शायद भूल रहे हैं कि विकास की अपनी एक स्वाभाविक प्रक्रिया होती है और उसे कुछ समय के लिए अवरूद्ध तो किया जा सकता है उसे विपरीत दिशा में मोडा नही जा सकता है। इसीलिए तुम्हारे हमले का आवेग गार्गी काॅलेज से लेकर जामिया अथवा शाहीन बाग की महिलाओं को एक क्षणिक दर्द और बैचेनी तो दे सकता है, उन्हें रोक नही सकता। वो अपने आंचल को परचम बनाकर निकली हैं, एक नये भारत की नई इबारत लिखने।

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