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“शिक्षा, रोज़गार के आगे दिल्ली में राष्ट्रवाद हार गया”

दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणाम को लेकर अधिकांश जनता को जो उम्मीद थी, आम आदमी पार्टी उस उम्मीद पर पूरी-पूरी खरी उतरी है। अब जनता, मीडिया एवं राजनैतिक पार्टियों के बीच जीत-हार के कारणों पर चर्चा एवं विश्लेषण का दौर जारी है लेकिन अब भी सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यही है कि पूरी ताकत लगाने के बावजूद बीजेपी क्यों हारी? और कॉंग्रेस का दूसरी बार खाता ना खोल पाने की ज़िम्मेदारी किसके ऊपर होनी चाहिए?

कॉंग्रेस ने क्या खुद ही हार को चुना है?

राहुल गाँधी

​बहरहाल, इस विधानसभा चुनाव में भी कॉंग्रेस शून्य रह जाएगी, ऐसा कयास शायद ही किसी ने लगाया होगा, सिवाय एग्ज़िट पोल के। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या इस स्थिति का पूर्वानुमान कॉंग्रेस नेतृव को भी था? क्या उसने वोट बटने से आम आदमी पार्टी को होने वाले नुकसान और बीजेपी की स्थिति मज़बूत होने के डर के मद्देनज़र अपना ज़ोर नहीं लगाया? ऐसे तर्क राजनीतिक गलियारों की हवाओं में तैर रहे हैं।​

ये हवाई तर्क कितने सही हैं, यह तो कॉंग्रेस पार्टी का शीर्ष नेतृत्व ही जाने लेकिन यदि इस तर्क के सहारे पार्टी अपनी हार की समीक्षा से किनारा कर रही है तो कॉंग्रेस के भविष्य के लिए यह बेहद ही चिंतनीय है।

बीजेपी क्यों चखना पड़ा हार का स्वाद?

​दूसरी ओर केंद्रीय सत्ता में आरूढ़ भारतीय जनता पार्टी जिसने आम कार्यकर्ता से लेकर प्रधानमंत्री और गृहमंत्री तक की ताकत इस विधानसभा चुनाव में झोंक दी, फिर भी उसे हार का स्वाद चखना पड़ा।

मनोज तिवारी

​राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, झारखंड के बाद अब दिल्ली में बीजेपी की विधानसभा चुनावों में यह छठी हार है। कुछ ​राजनैतिक विश्लेषक बीजेपी की हार के लिए जो वजहें गिना रहे हैं, उनमें मुख्यमंत्री का कोई स्पष्ट चेहरे का ना होना है। स्थानीय मुद्दों की जगह राष्ट्रवाद के मुद्दों को बेवजह तवज्ज़ों देना ,नफरत की राजनीति करना, स्थानीय स्तर पर आम लोगों के साथ संवाद कायम ना कर पाना जैसे मुद्दों को अहम बताया जा रहा है।

​लेकिन पार्टी के समर्थक और सदस्य समीक्षा करने की बजाय हार का पूरा ठीकरा केजरीवाल के कल्याणकारी योजनओं को दे रहे हैं, जिनमें मुख्यत: मुफ्त में दी जाने वाली बिजली, पानी और महिलाओं की यात्रा को ज़िम्मेदार मानते हुए दिल्ली की जनता को मुफ्तखोर तथा केजरीवाल पर सरकारी खज़ाने को फिज़ूल तरीके से खर्च करने का दोष मढ़ना शामिल है।

​भाजपा के आला कमान के नेता या समर्थक बिल्कुल यह मानने को तैयार नहीं हैं कि उनके राष्ट्रवादी मुद्दों का स्थानीय जनता या उनके विकास से प्रत्यक्ष तौर पर कोई सरोकार नहीं है। जो कि उनकी हार का मुख्य कारण रहा है।

वैसे तो मोदी जी की राजनीति का केंद्र बिंदु भी ‘सबका साथ सबका विकास​’ और ‘अच्छे दिन’ को समर्पित है लेकिन भाजपा सरकार अपनी कथनी और करनी में हमेशा से ही फर्क करती रही है, यही कारण है कि दिल्ली में आज उन्हें ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ा।

आज वह एक तरफ केजरीवाल पर फिज़ूलखर्ची पर चिंता ज़ाहिर कर रही है पर खुद की सरकार द्वारा बड़ी-बड़ी मूर्तियों, हज़ार करोड़ों की लागत वाली प्रधानमंत्री-राष्ट्रपति के लिए बोइंग की खरीद, मौजूदा ट्रेनों की स्थिति को सुधारने की बजाय बुलेट ट्रेन पर निवेश को वह फिज़ूल खर्च की श्रेणी में नहीं रखती है।

​अर्थशास्त्र कहता है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, रोज़गार तक सबकी पहुंच होनी चाहिए, ये देश के विकास के लिए ज़रूरी है, इसलिए लिहाज़ा इन पर सरकार द्वारा अधिकाधिक खर्च किया जाना चाहिए ताकि मानव विकास के रास्ते देश का विकास हो सके।

जनता द्वारा मुफ्त या सस्ती सेवाओं की अपेक्षा रखना कोई मुफ्तखोरी नहीं होती है

​यदि सरकार ज़रूरत की चीज़ें मुफ़्त दे रही हो है तो उस सुविधा का लाभ आर्थिक रूप से कमज़ोर तबकों द्वारा ही लिया जाना चाहिए और सक्षम लोग द्वारा इसे स्वेच्छा से छोड़ देना चाहिए, ताकि लाभ अधिक-से-अधिक गरीब लोगों तक पहुंच सके। शायद यह आसान सी बात भाजपा नेतृत्व की समझ से परे है या वह जानबूझकर अपने हित के लिए इसे समझना नहीं चाहती है। ​

अर्थशास्त्र यह भी कहता है कि पूंजीपति लाभ के उद्देश्य से निवेश करता है, उसका सामाजिक कल्याण से कोई वास्ता नहीं होता है, इसलिए जनता के कल्याण से जुड़ी मशीनरी पर सरकार का अधिकार होना चाहिए लेकिन आज रेलवे, एलआईसी, बीपीसीएल, एयर-इंडिया जैसे
​बड़े-बड़े सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों में निजी निवेश की घुसपैठ कराने की कोशिश जारी है, ​जिसने शैक्षिक जगत के लोगों को चिंता में डाल रखा है।

इसलिए लाज़िम है कि देश को केजरीवाल जैसे प्रधानमंत्री की ज़रूरत महसूस होने लगी है, जो देश को वास्तविक विकास की दिशा में ले जाने की सोच से भरा हो। वैसे अब भी समय है भाजपा अपने विकास के एजेंडे पर काम करके अपनी गिरती शाख को बचा सकती है और बेवजह के राष्ट्रीय मुद्दों से किनारा करके आगामी विधानसभा चुनावों के परिणामों को अपने पक्ष में कर सकती है।​

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