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भारत में क्यों नहीं रुक रहे हैं दलितों पर होने वाले हमले?

फोटो साभार- सोशल मीडिया

फोटो साभार- सोशल मीडिया

भारत में जातिवाद का लम्बा इतिहास रहा है। विकास सिद्धांत के मुताबिक जातियां श्रम विभाजन के आधार पर बनीं लेकिन विकास के साथ-साथ इनमें खामियां आ गईं। जैसे कि छुआछूत तथा किसी स्थान और उत्सव को जाति के आधार तक सीमित कर देना। 

आज 2020 में भी हम ऐसी घटनाएं देख रहे हैं। हाल में ही तमिलनाडु के वल्लीपुरम में एक युवक को भीड़ ने खुले में शौच करने पर मार डाला। बताया जा रहा है ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि वह युवक दलित था तथा मारने वाला वन्नियार नामक अन्य पिछड़ा वर्ग के था।

सोशल मीडिया पर साझा किए जा रहे वीडियो में हम देख सकते हैं कि शक्तिवेल को ज़मीन पर हाथ-पांव बांधकर डाला गया है और एक आदमी उसे मार रहा है। उसे भीड़ ने घेरा हुआ है। पुलिस ने बताया कि जब वे वहां पहुंचे, तो शक्तिवेल के मुंह से खून निकल रहा था।

उन्होंने घर वालों को बुलाया। परिवार के लोग उसे अस्पताल ना ले जाकर घर ले गए। शक्तिवेल की बहन का कहना है कि शक्तिवेल का पेट खराब था और मोटरसाइकिल का पेट्रॉल खत्म हो गया था। इसलिए उसे खेत में जाना पड़ा।

पुलिस ने इस मामले में सात लोगों को गिरफ्तार किया है। बहरहाल, पुलिस का कहना है कि लोगों को उसकी पिटाई करते वक्त जाति का पता नहीं था और उसे लोगों ने इसलिए मारा, क्योंकि उसने खेत में काम कर रही महिला को कथित रूप से अपना गुप्तांग दिखाया था।

ये घटनाएं हमें सोचने पर मजबूर करती हैं

फोटो साभार- सोशल मीडिया

गत दिनों हमने दलितों पर अत्याचार की कई घटनाएं देखी हैं। द सिटीज़न की एक रिपोर्ट कहती है कि भारत में हर 15 मिनट में एक दलित पर अत्याचार होता है और 2007 से 2017 के बीच ऐसी घटनाएं 66 प्रतिशत बढ़ गई हैं।

16 फरवरी को गुजरात के बनासकांठा में एक थलसेना जवान (दलित समुदाय से) पर कथित ऊंची जाति के लोगों ने पत्थर फेंके। वह जवान जम्मू में पोस्टेड है। वह अपनी शादी में घोड़ी पर चढ़कर जा रहा था और इसी वजह से लोग उससे नाराज़ थे। ठाकोर कोली समुदाय के लोगों से मिली धमकियों की वजह से बारात पुलिस सुरक्षा के साथ जा रही थी।

गौरतलब है कि 2003 से 2018 के बीच गुजरात में दलितों और आदिवासियों पर हुए अत्याचार के मामलों में 70 प्रतिशत की बढ़ोतरी नज़र आई है।

मई 2014 में उत्तर प्रदेश के बदायूं में दो दलित नाबालिग लड़कियों को बलात्कार के बाद मारकर उनकी लाश पेड़ पर टांग दी गई। सिर्फ इसलिए कि उन्होंने अपनी तनख्वाह तीन रुपए बढ़ाने के लिए कहा था।

11 जुलाई 2016 को गुजरात के ऊना में गौ रक्षा के नाम पर भीड़ ने चार युवकों की पिटाई की थी। चार दलित युवक एक मरी हुई गाय की खाल निकाल रहे थे और भीड़ ने उन्हें घेरकर मारा था।

मई 2019 में एक 21 वर्ष के दलित युवक को कथित ऊंची जाति के लोगों के सामने खाने की वजह से पीटा गया। नौ दिन बाद उसकी मौत हो गई। 2019 में मुम्बई में पायल तड़वी नाम की चिकित्सक ने लोगों की बातों से तंग आकर आत्महत्या कर ली थी। उन्हें उनकी आदिवासी पहचान की वजह से परेशान किया जाता था।

कई रूपों में है जातिवाद का दंश?

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

UN की रिपोर्ट कहती है कि हर दिन चार दलित महिलाओं से बलात्कार के मामले दर्ज़ होते हैं। बलात्कार के केई मामलों में देखा गया है कि बलात्कारी ने सबक सिखाने के लिए बलात्कार किया है।

हमारे देश में जातिवाद का दंश कई रूपों में है। जैसे- अन्तरजातीय विवाह से आपत्ति होना, घरों में जातियों के हिसाब से बर्तन रखना, किसी वर्ग को मंदिर में जाने की अनुमति ना देना आदि।

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने एक व्यंग में लिखा है कि जाति व्यभिचार से नहीं जाती मगर ब्याह से चली जाती है। कई प्रगतिशील तबकों में जाति को लेकर लोड नहीं लिया जाता है। कई लोगों का कहना है कि वे समाज से बहिष्कृत होने के डर से ना चाहते हुए भी दलितों के साथ भेदभाव और अत्याचार करने में शामिल होते हैं। उनका यह बहाना कहीं से भी जायज़ नहीं है।

इस समाज को किसी भी तरह के भेदभाव से परे दूसरे इंसान को इंसान की नज़र से देखना चाहिए। हम मंगल पर पहुंच गए मगर यह जाति है कि जाती ही नहीं। 1977 में अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 को सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम 1955 कर दिया गया।

SC और ST समुदाय के अंदर आने वाले लोगों पर होने वाले अत्याचार इसके अंदर नहीं आते थे। इसलिए अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचारों से संरक्षण) अधिनियम 1989 संसद में पारित किया गया।

मगर वास्तविकता में इन अधिनियमों का असर समाज में दिखाई नहीं पड़ता है। यह शर्मनाक ही है कि आज़ादी के इतने सालों बाद भी हम इस घटिया सोच से आज़ाद नहीं हो पाए हैं।


नोट: विष्णु Youth Ki Awaaz इंटर्नशिप प्रोग्राम जनवरी-मार्च 2020 का हिस्सा हैं।

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