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नोएडा एक्सटेंशन, जहां के निवासियों की ज़िंदगी डर और अपराध के बीच झूल रही है

एक हृदय विदारक घटना वहां हुई, जहां दो पुलिस चौकी के बीच 2.5 किमी का रास्ता है। बीच में हिंडन नदी और उसका पुल है। नदी का एनक्रोचमेंट क्षेत्र होने के नाते जगह सुनसान है। सड़क प्रकाश समुचित नहीं है। ये नोएडा और ग्रेटर नोयड़ा को जोड़ने वाली सड़क है। इस नाते समझिये कि 6 लेन की मुख्य सड़क के अलावा 4 सर्विस लेन भी है लेकिन पुलिसिया गश्त ना के बराबर है।

यहां के निवासियों पर जुर्म का साया

पुलिस चौकी उसके अधिकारियों के बीच आज़ादी के बाद से सीमा विवाद चला आ रहा है। ग्रेटर नोयडा के नोयडा से मिलते ही इस हिस्से में मल्टीस्टोरी बिल्डिंग का एक घना जंगलं है। यहां के बिल्डर तमाम सर्विस टैक्स और यहां के लाखों लोग बड़ा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर भारत सरकार को देते हैं।

प्रतीकात्मक तस्वीर

ये करदाता यानी कि टैक्स पेयर देश के विभिन्न हिस्सों से आकर यहां जमीन और रोज़गार हेतु बसे हैं लेकिन तमाम पुलिसिया और प्रशासनिक लापरवाही को भी झेल रहे हैं। यह कह देना लाज़िमी और तथ्यपरक है कि ज़िन्दगी संगीनों के साये में है। पुलिस अपने बैरकों में कैद और आला अफसरों के आदेश की मातहत है।

पुलिस से मदद लेना तो आपका हक है मगर डीएम, एसपी, विधायक जी या सांसद जी के करीबी किसी व्यक्ति से जब तक आपकी पहचान ना हो, तब तक आपका काम आसान नहीं है।

यहां के निवासी अधिकतर उस उद्योग में है जहां अमूमन 24×7 उपलब्धता की ज़रूरत होती है। सुबह जल्दी या दिन के किसी भी वक्त दफ्तर को निकलना, रात देर से वापसी यहां की मजबूरियां है और इनकी सुरक्षा, हमेशा सवालों के घेरे में रहती है।

अगर यहां की व्यवस्था की बात की जाए तो,

ये अपराधियों की हौसला अफज़ाई ही तो है कि जब जेब कट जाने या सामान ज़बरन छीन लिये जाने पर आपको तमाम बहसों के बाद भी एक सामान खो जाने की कम्प्लेन से ज़्यादा कुछ नहीं मिलता। मैं इन्हीं घटनाओं वाले रास्ते से हर रोज़ रात 10-10.30 बजे गुज़रता हूं।

पुलिस

गौरव चंदेल की हत्या और पुलिस की सुस्ती

कुछ दिन पहले कानपुर के मूल निवासी और हाल फिलहाल नोएडा के गौर सिटी के निवासी गौरव चन्देल की हत्या रात 10.30 से  सुबह 4.30 के बीच कर दी गई। सर पर गोली मारी गई थी। परिजनों को अनहोनी कि आशंका हुई थी। क्योंकि जब घर पर उनकी बात हुई थी तब गौरव घर से महज़ पांच मिनट की दूरी पर थे लेकिन वे घर नहीं पहुंचे।

परिजन गढ़ी चौखण्डी, बिसरख पुलिस चौकी के चक्कर लगाते रहे। तमाम अनुरोध के बाद भी ना के बराबर मदद हुई। परिजन और पड़ोसी रात भर गौरव को खोजते रहे और सुबह खून से लथपथ गौरव सड़क किनारे मृत पाये गये।

गौरतलब  है परिज़नो ने ही गौरव को खोजा। ऐसी घटनायें यहां अक्सर होती है। अधिकतर मामलों में गुंडे लूटपाट करके छोड़ देते हैं लेकिन इस बार हत्या हुई है। इसके पहले भी लूट के बाद हत्याएं हुई हैं। अभी पुलिस जागी है, प्रशासन की भी जांच चल रही है। यह कब तक चलेगी पता नहीं।

बड़े-बड़े लोग परिजनों से मिलकर उन्हें सान्त्वना दे रहे हैं लेकिन गौरव जी के जाने के बाद परिजनों का भरण पोषण कैसे होगा पता नहीं। उस आधार पर यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं कि वे सरकार को कम से कम एक साधारण आदमी के वेतन के बराबर टैक्स  देते होंगे।

प्रशासनिक लापरवाही का नतीजा

वे जब जीवित थे, तब सरकार को टैक्स दिया। स्कूल के माध्यम से, बिल्डर के माध्यम से तमाम अप्रक्षत्य कर दिये। अब उनके बाद उनकी पत्नी, बच्चा और माँ की ज़िम्मेदारी किसकी होगी? भरण पोषण कैसे होगा? जबकि ज़ाहिर सी बात है कि गौरव की हत्या में घनघोर प्रशासनिक लापरवाही है। तात्कालिक मदद में और बाकी तमाम सुरक्षागत लापरवाही ही इस बात घटना की सबसे बड़ी वजह है।

गौरव चंदेल और उनका परिवार

जब स्थितियां यह हों कि आपको किसी कारण से थाने या चौकी जाना पड़े, तो पहले आपको यह तय करना होता है कि थाना कौनसा या चौकी कौनसी होगी। पहुंच भी गये तो पुलिसिया तंत्र आपको यह बतायेगा कि आप सही जगह है या नहीं। नहीं हैं, तो नई जगह जाइए।

पुलिसवाला आपसे आपका नाम पूछेगा, पूरा नाम, फिर कम्पनी, फिर काम पूछेगा। नाम से आपकी जाति और उसकी राजनीतिक हैसियत का अन्दाज़ा लगायेगा। काम से आपकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति का। उसके बाद एक किसी कॉरपोरेट मैनेजर की माफिक आपको समझाएगा कि केवल शिकायत से आपका काम चल जायेगा। FIR नहीं लिखी जायेगी। आप मान गये तो ठीक है। लौटकर सिफ़ारिश लगवाई तो 2-3 दिन में शिकायत दर्ज होगी। फिर कार्यवाही होते-होते हो जाएगी। ऐसी व्यवस्था में ना आप और ना आपके अधिकार सुरक्षित है।

बाकी 5 कालीदास मार्ग में जो आज तख्तनशी हैं या कल थे और जो आगे होंगे, उन्हें बुनियादी ज़रूरतों से क्या लेना देना? वे तो Z+ सुरक्षा और काफिला साथ में लिये फिरते हैं। खतरे में हम और आप हैं। हुक्मरानों को मुद्दा चाहिये, पार्टी के लिये चन्दा चाहिये। हम और आप आखिरी पायदान के लोग हैं। हमारी ज़रूरत 5 बरस में एक बार पड़ती है।

इसी बात पर हबीब जालिब की चंद पंक्तियां याद आती हैं,

ऐसे दस्तूर को सुब्हे बेनूर को

मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता

मैं भी खायफ नहीं तख्त-ए-दारसे

मैं भी मंसूर हूं कह दो अगियार से

क्यों डराते हो जिन्दांकी दीवार से

ज़ुल्म की बात को, जे़हल की रात को

मैं नहीं मानता, मैं नहीं मानता।

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