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फुनसुख वांगणु और चतुर रामलिंगम के बीच एक छोटे से फर्क की थ्योरी समझिए

काफी रिसर्च के बाद हिंदी या अंग्रेज़ी माध्यम से शैक्षणिक योग्यता हासिल करने के बाद देश के कई राज्यों में फील्ड सर्वे के द्वारा कुछ गंभीर शोधार्थी थोड़ा बहुत ज्ञान हासिल करने की कोशिश करते हैं। उसे समझना सबके बस की बात नहीं।

सच तो यह है कि इसे सिर्फ वही समझ सकते हैं जिसने कड़ी मेहनत के बाद कुछ ज्ञान अर्जित किया है, या ज्ञान अर्जन करने की प्रक्रिया में हैं। इसे ज्ञान लेने की पारंपरिक प्रकिया कहा जाता है। आप बखूबी जानते होंगे कि किसी शोधार्थी को किसी एक विषय पर कुछ सटीक बोलने या लिखने हेतु वर्षों लग जाते हैं।

इस पारंपरिक शिक्षा में भी दो तरह के लोग आते हैं,

तर्कपूर्ण सोच रखते हुये तार्किक सवाल पूछना

अब कहने की ज़रूरत नहीं इसी पारंपरिक शिक्षा प्राप्त प्रथम वर्ग वाले अपने सीमित दायरों की वजह से उतना ही तर्क करते हैं जितना इनके बस में होता है। जबकि दूसरी श्रेणी वाले तर्कपूर्ण सोच रखते हैं और तार्किक सवाल पूछते हैं। शिक्षा व्यवस्था में प्रथम वर्ग के व्यक्ति या छात्र किसी भी सरकार के लिए वरदान होते हैं। जबकि दूसरी श्रेणी के व्यक्ति या छात्र खतरा।

तार्किक नागरिक से सभी सरकारों को डर लगता है, वह भला क्यों? तो कारण बताने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि “प्रथम वर्ग के छात्र समझ ही नहीं पाएंगे” और दूसरी श्रेणी के छात्रों के लिए यही एक लाइन काफी है। अंतिम श्रेणी में कम पढ़े लिखे या अनपढ़ व्यक्ति आते हैं। इनके तर्क परिस्थितिजन्य होते हैं। वास्तविक रूप से देखा जाए तो कई मामलों में ये प्रथम वर्ग से ज़्यादा तार्किक साबित होते हैं।

ऐसा क्यों? तो दरअसल प्रथम वर्ग वाले दूसरी श्रेणी में आ नहीं पाते लेकिन लालसा या विश्वास होता है के “बस हम ही हम हैं।” दूसरी तरफ कहीं ना कहीं तार्किक सोच न रख पाने की कुंठा भी होती है। उन्हें दूसरी श्रेणी का बनने की चाहत है और अंतिम श्रेणी में खुद को रखना नहीं चाहेंगे क्योंकि वे डिग्री धारक हैं आखिर। बस इसी पशोपेश में पहचान की राजनीति हावी होना शुरू होती है।

पहचान की राजनीति

अब तार्किक सोच वाले दूसरी श्रेणी के छात्र या व्यक्ति इस पहचान की राजनीति को जानते और समझते हैं। दिक्कत पहले वर्ग की है और ये उनकी समझ से बाहर की बात है। मैं यहां लिख तो दूं लेकिन दूसरी श्रेणी के छात्र या व्यक्ति को ऐसी व्याख्या की ज़रूरत नहीं क्योंकि ये पहचान की राजनीति का अर्थ जानते हैं

प्रथम वर्ग के छात्र या व्यक्ति व्याख्या करने के बाद भी समझ नहीं पाएंगे क्योंकि वे उतना ही समझ सकते हैं जितनी उनकी शक्ति है और सोचने का दायरा है। विडंबना यह है कि वे उससे बाहर निकल ही नहीं सकते। तब सवाल उठता है कि फिर व्याख्या किसके लिए की जाए?

चलिए मान लिया कि प्रथम श्रेणी वाले गूगल पर पहचान की राजनीति खोज लेंगे या इंग्लिश में Identity Politics या Politics of Identity को सर आखों पर बैठा लेंगे। लेकिन हकीकत ये है कि मानेंगे उसी बात को जो पहचान की राजनीति ने उनके अर्ध विकसित डिग्री धारक दिमाग में भरा है। तो क्या खुद की सोच नहीं होती इनकी? इन्हें लगता है कि सारी सोच इनकी अपनी हैं और तार्किक हैं।

डिजिटल इंडिया के दौर में ज्ञान बांटती वाट्सएप-फेसबुक यूनिवर्सिटी

इतिहास की बात की जाये तो प्रथम वर्ग के छात्र या व्यक्ति कंफ्यूज़ हो सकते हैं लेकिन नये भारत में ज्ञान का स्रोत पारम्परिक ज्ञान लेने के तरीके से काफी अलग और विकसित है। विकसित इसलिए क्योंकि नये भारत में ज्ञान व्यक्ति के हाथ में ही मौजूद है। यह ज्ञान, गुज़रे 5 से 6 सालों में घर घर से निकल रहा है। हम डिजिटल इंडिया के दौर में जी रहे हैं, तो ज्ञानी बनने के लिए मेहनत क्यों करें? डिग्री तो है ही और तर्क डिजिटल इंडिया रोज़ सुबह सुप्रभात करते हुए दे जाता है।

सरकार ने भी गली गली यूनिवर्सिटी खोल कर खूब सहयोग किया है। इतनी यूनिवर्सिटी  70 सालों में भी नहीं खुल पाईं। ये महान काम सिर्फ और सिर्फ सदी के महान दल और उसके नेता ही कर सकते हैं। इन यूनिवर्सिटीज़ में पढ़ने या ज्ञान लेने के लिए आपके पास वैसे तो किसी डिग्री की आवश्यकता नहीं है लेकिन आप डिग्री धारक हैं तो सोने पर सुहागा। बचा खुचा काम पहचान की राजनीति कर देती है।

बस आपके हाथ में एक स्मार्ट फोन होना चाहिए और वाट्सएप-फेसबुक इनस्टॉल होना होने के साथ ऑपरेट करने आना चाहिए। मिल गया आपको एडमिशन वाट्सएप-फेसबुक यूनिवर्सिटी में, और आप कुछ ही घंटों में आप महान ज्ञानी बन गये। पहचान की राजनीति का डिजिटलाईज़ेशन भी हो गया।

गुडमॉर्निंग मैसेजेज़ की क्रोनोलॉजी

सुबह सुबह जो गुड मॉर्निंग मैसेज आते हैं, सवाल ये है कि सारे मैसेज आते कहां से हैं? उन मैसेजेज़ का सोर्स क्या है? सच्चाई कितनी है? ये बात डिग्री धारक जानने की कोशिश नहीं करते हैं, क्योंकि गुड मॉर्निंग मैसेज दो तरीके से आते हैं। पहले में महान नेता ने मुस्लिम की कोई पोल खोल दी या सबक सिखा दिया। अजब बात ये है के ये सब ज़ी न्यूज़, रिपब्लिक इंडिया, न्यूज़18 इंडिया, इंडिया टी वी यानी गोदी मीडिया को नहीं दिखता।

व्हाट्सएप की तस्वीर

जबकि ऐसी खबरों को तो सदी की सबसे बड़ी न्यूज़ बनना चाहिए, जिन्हें ब्रेकिंग से लेकर प्राइम टाइम तक कवरेज मिलनी चाहिए। ऐसी न्यूज़ गोदी मीडिया से कैसे बची रहती हैं? जबकि वाट्सएप और फेसबुक पर वायरल होजाती हैं। Alt News करती रहे सच्चाई का पता, डिग्री धारक तो उसी को सच मानेंगे जो वाट्सएप-फेसबुक यूनिवर्सिटी से प्राप्त होता है।

दूसरे किस्म के मैसेज में महान सरकार की उपलब्धियां आती हैं। हालांकि सरकार की यह उपलब्धियां ज़मीनी सच्चाई से कोसों दूर होती हैं। खुद सरकार मानती है कि बस डिग्री धारक वाट्सएप फेसबुक पर ज़्यादा भरोसा करते हैं। सही बात है पहचान की राजनीति भी कुछ होती है के नहीं।

गुडमॉर्निंग मैसेजेस में लॉजिक बनाम झूठ

अब इसका असर देखिये, ट्रिपल तलाक लागू होने से पहले और लागू होने के बाद सारी मुस्लिम औरतें इन डिग्री धारकों की बहनें थीं, इनकी चिंता, इनके भविष्य की चिंता इन डिग्री धारकों को जीने नहीं दे रही थीं। चैन नहीं लेने दे रही थीं लेकिन अब शाहीन बाग  और दूसरे राज्यों में CAA, NRC या NPR में प्रदर्शन करने वाली महिलाओं का महिमामंडन करने में एक कदम पीछे नहीं हैं। वजह? सुबह सुबह जो गुड मॉर्निंग मैसेजेस आते हैं।

खुद कहीं नहीं गये होंगे लेकिन शाहीन बाग में बिरयानी कौन दे रहा है, कहां से दे रहा है, कैसे दे रहा है, फण्ड कहां से आ रहा है? इन प्रश्नों की पूरी जानकारी है, ऐसी जानकारी जो सरकार खुद नहीं जानती इन्हें घर बैठे बैठे पता चल गई। ये शब्द अगर डिग्री धारकों ने पढ़ लिए तो PFI, AAP, कॉग्रेस से जुड़ा होने का इलज़ाम अलग।

प्रतीकात्मक फोटो

दरअसल ये सभी एकजुटता भूल गये हैं, ये लोग भूल गये हैं कि कैसे मुहल्ले के सभी लोग पैसे इकट्टा करके कोई धार्मिक या सांस्कृतिक आयोजन करवाते थे या हैं। समय और परिस्थिति के हिसाब से ये डिग्री धारक अपना नज़रिया बदलते रहते हैं। ऐसा इसलिए नहीं के ये तार्किक रूप से सोच सकते हैं, बल्कि इसलिए क्योंकि इनकी राजनीतिक पहचान को कभी ये सूट करता है और कभी नहीं। ऐसा इस लिए है कि यह तबका फैक्ट, लॉजिक और झूठ में अंतर नहीं कर पाता।

मैसेजेस देख कर उन्हें लगता है देश में सब चंगा सी

इस तरह के मेसेजेस पढ़कर या कोई विडियो देखकर, इनकी पहचान को थोड़ी राहत मिलती है जो इनके तीव्र एवं तीक्ष्ण बुद्धि को सूट करता है, यही वजह है कि सुबह शाम आने वाले मैसेजेज़ से इन्हें लगता है देश में सब चंगा सी। जिससे इन्हें शांति और चिंता दोनों एक साथ मिलती है। शांति मन और दिमाग को, चिंता देश और हिन्दुओं की। अब हिन्दू कहां से आ गये, यही सवाल आ रहा होगा “डिग्री धारक” दिमाग में?

कई मैसेज हैं जो सन 2016 से लगातार सर्कुलेशन में हैं, चाहे वह किसी मदरसे की बात हो, चाहे मुस्लिम समुदाय के खिलाफ ज़हर उगला जा रहा हो, चाहे राजपूत राजाओं या मराठा, सिक्ख राजाओं और मुस्लिम राजाओं के मध्य सत्ता के लिए संघर्ष हों, या फिर सरकार को महान बताने वाले काम हों जो 70 सालों में नहीं किये जा सके।

इन मैसेजेस को भेजने वाले ऐसे भेजते हैं जैसे खुद फील्ड सर्वे के बाद जानकारी इकट्ठा करके, कई महीनों की रिसर्च के बाद भेज रहे हैं। इसे देखकर डिग्री धारक का दिमाग शांत हो जाता है और उन्हें लगता है आज कुछ महान काम किया है।

दूसरी श्रेणी के लोग इन मैसेजेस को लेकर क्या सोचते हैं

दूसरी श्रेणी के व्यक्ति फेसबुक और व्हाट्सएप को सिर्फ एक एप या सोशल नेटवर्किंग साईट ही मानते हैं, जहां सूचनाओं का आदान प्रदान अच्छे तरीके से किया जा सकता है। उनकी नज़र में एप के द्वारा सरकार की नीतियों की आलोचना की जा सकती है, किसी से एक सार्थक बहस करके प्रजातंत्र को मज़बूती दी जा सकती है, सरकार से सवाल पूछे जा सकते हैं, पुराने दोस्तों को खोजा जा सकता है, किसी दूर रहने वाले दोस्त-अहबाब का हालचाल लिया सकता है।

बस ऐसे ही नागरिकों से किसी भी सरकार को सबसे ज़्यादा डर लगता है। अब मैं इस बात की भी व्याख्या नही करूंगा, क्योंकि जो दूसरी श्रेणी के व्यक्ति या छात्र हैं, उन्हें व्याख्या की ज़रूरत भी नहीं है। वह समझ गये होंगे और प्रथम वर्ग यानी डिग्री धारक पढ़ तो लेंगे लेकिन समझेंगे वही जो पहचान की राजनीति ने भरा है।

अब अगर आप प्रथम वर्ग के छात्र या व्यक्ति से कुछ डिबेट कर रहे हैं तो सावधान हो जाइये हो सकता है आप वाट्सएप-फेसबुक, फेक न्यूज़, फॉरवर्डेड फेक मैसेज पर आंख बंद करके यकीन करने वाले किसी टॉपर से बात कर रहे हों। ऐसे व्यक्ति या छात्र अति योग्य होते हैं। जहां दूसरी श्रेणी के व्यक्ति या छात्र वर्षों की मेहनत के बाद किसी एक विषय पर कुछ जान पाते हैं और फिर भी उन्हें लगता है कि अभी बहुत कुछ जानना बाकी है।

वहीं दूसरी ओर वाट्सएप-फेसबुक यूनिवर्सिटी, फेक मैसेज पर आंख बंद करके यकीन करने वाले छात्र या व्यक्ति कई विषयों में पारंगत होते हैं। इन्हें भारतीय राजनीति के हर मुद्दे की गहराई समझ आती है। ये विदेश नीति के विशेषज्ञ होते हैं, इन्हें हर धर्म के बारे में ज्ञान होता है। इन्हें ट्रम्प, पुतिन, मोदी, नेहरु, गांधी, बोस, भगत सिंह, अम्बेडकर, ज्योतिबा फुले, सावित्री बाई फुले, चाणक्य, प्लेटो, अरस्तु, कार्ल मार्क्स, विवेकानंद इत्यादि पर कुछ ही घंटों या मिनटों में एक बायोग्राफी लिख सकते हैं।

वर्तमान सरकार अगर वाकई में भारत को विश्व गुरु बनाना चाहती है तो उसे ऐसे सभी डिग्री धारक व्यक्तियों या छात्रों को विश्व के हर राज्य में बसा देना चाहिए। यही नहीं वहां की नागरिकता भी उन्हें दिलवानी चाहिए। बस शुरुआत पाकिस्तान भेजने से करें।

ये मुल्क एक सर दर्द है, रोज़ कुछ ना कुछ करता है और इस मक्कार देश को यही प्रथम वर्ग के डिग्री धारक व्यक्ति या छात्र कुछ ज्ञान दे सकते हैं। आखिर मोदी जी अकेले कितना करें? इन डिग्री धारक छात्रों या व्यक्तियों का देश के लिए कोई कर्तव्य है कि नहीं?

दूसरी श्रेणी के छात्र या व्यक्तियों पर ऊंगली मत उठाइए

दूसरी श्रेणी के लोग अकसर ही सरकार के विरोध में लगे रहते हैं। उन्हें इतना गहन और गूढ़ ज्ञान नहीं होता, उनका तो बस एक ही इलाज है, लाठी चार्ज या आजकल सीधे पिस्तौल लेकर जाइये गोली मारिये। इस से बेहतर है कि वह जहां ज्ञान हासिल करते है उन सब शैक्षणिक संस्थाओं को बंद करवा दीजिये। क्योंकि यहां कोई फीस वृद्धि का विरोध कर रहा है।

हालात तो ये हैं कि किसी यूनिवर्सिटी में पुलिस जबरन घुस के बिना वजह तोड़ फोड़ से लेकर छात्रों पर हमला तक करती है। जो जावेद अख्तर को जवाब देती है कि पुलिस बिना आज्ञा लिए कहीं भी घुस सकती है।

यही जबरन घुसने वाली पुलिस JNU में नहीं जाती, वहां प्रशासन की आज्ञा का इंतजार करती है। वहां जावेद अख्तर को दिए कानून के ज्ञान को भी भूल जाती है और गुंडों को सेफ पैसेज भी देती है। सुना है शरजील इमाम को बड़ी जल्दी पकड़ लिया लेकिन JNU के हमलावरों का प्रूफ मिलने के बाद भी खोज नहीं पाई। अब डिग्री धारक पुलिस को महान बतायेंगे लेकिन समस्या दूसरी श्रेणी से है जो सवाल खड़ा कर देंगे।

प्रथम श्रेणी के लोगों द्वारा JNU पर हमला

अब JNU पर ये डिग्री धारक हमला करते हैं, न न जाकर नहीं, सिर्फ वाट्सएप-फेसबुक पर। क्योंकि इन डिग्री धारकों का मानना है कि JNU के छात्र 10 रुपए में ही रहना चाहते हैं 300 नहीं देंगे। हद तो ये है कि किसी कांचा इलाहिया (Kancha Ilaiah) का फोटो JNU का छात्र बताकर वायरल किया जाता है और ये मान लेते हैं कि JNU में मां बाप बेटा बेटी सब पढ़ाई कर रहे हैं वह भी इनके दिए टैक्स से।

अब सवाल है कि टैक्स कितना देते होंगे ये डिग्री धारक? क्योंकि इन्हें पता ही नहीं है कि JNU, Jamia, DU के दूसरी श्रेणी के छात्र सिर्फ फीस वृद्धि का विरोध नहीं कर रहे हैं।

चलिए फीस पर बता देता हूं कि ये फीस 10 रूपये या 300 रूपये नहीं है। बिना बढ़ी हुई फीस JNU में 27600 से 32000 तक है और फीस वृद्धि होती है तो ये 55000 से 61000 तक हो जाएगी। गरीब कैसे पढ़ेंगे, हमारे प्रधान सेवक गरीब हैं और गरीबों के खिलाफ कोई नियम आने पर चुप, क्यों हैं? बस यही तार्किक सवाल पूछ लिया इन दूसरी श्रेणी वालो ने।

कहां एक तरफ प्रथम वर्ग के डिग्री धारक व्यक्ति या छात्र देश को विश्व गुरु बनाने के लिए सर्वस्व न्योछावर कर रहे हैं और कहां ये दूसरी श्रेणी के व्यक्ति या छात्र सरकार से ही सवाल जवाब कर रहे हैं। वैसे इन डिग्री धारकों ने शिक्षा सब्सिडी वाली ली थी या बिना सब्सिडी के? कितनी फीस दे कर शिक्षा ग्रहण किये होंगे ये डिग्री धारक?

79 वर्षों के इतिहास का वह सत्य जो कड़ुवा है

महंगाई, बेरोज़गारी, बेरोज़गारी की वजह से यूथ की आत्महत्या के मामले, गिरती हुई अर्थव्यवस्था, रूपये का डॉलर के सामने सबसे बुरा दौर, किसानों की आत्महत्या, शिक्षा स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च, NRC, CAA, वर्तमान NPR पर देश की प्रतिक्रिया, धारा 370 और 35a की सच्चाई, ट्रिपल तलाक की असलियत वगैरह वगैरह आज के वह कड़ुवे सच हैं जिनका शिकार शायद ही कोई भारतवासी न हुआ हो।

तो दूसरी तरफ The Print, The Wire, Scroll, News Click, Youth Ki Awaaz, News laundary, Alt News, Indian Democracy आदि जर्नलिज़्म के नाम पर न्यूज़ साईट या लेख-विचार अभिव्यक्त करने की खबरिया साईट देश की अवाम तक उपरोक्त सत्य पहुंचाने में लगी हैं।

भ्रष्टाचार के मामले, रेप के मामले, या हाल में पकड़े गये DSP देवेंद्र सिंह का मामला हो या फिर 2017 में मध्य प्रदेश से ISI के लिए जासूसी करते गये पकड़े गए व्यक्तियों पर सवाल किसने उठाया? बात अगर विफलता की करें तो नोटबन्दी, जीएसटी, उज्ज्वला योजना, स्वच्छ भारत मिशन से लेकर मेक इन इंडिया की विफलता पर भी प्रश्न उठने चाहिए।

देश की वह सभी कम्पनी जिनसे सीधे तौर पर सरकार जुड़ी रही है जैसे पीएमसी बैंक, बीमा कम्पनी, एयर इंडिया का बेचा जाना आदि पर प्रश्न क्यों नहीं और कबतक नहीं उठेंगे। सवाल तो उन मसलों पर भी उठने चाहिए कि कैसे जनता से जुड़ी योजनायें अस्तित्वहीन हो गईं। इन योजानओं में रिटायर्ड बुज़ुर्गों की पेंशन खत्म करने से लेकर, सरकारी गैर सरकारी नौकरियों के खात्मे पर (जो पिछले 45 सालों के सबसे निम्नतर स्तर पर है) खुद को मज़बूत बताने वाली सरकार मुंह क्यों नहीं खोल‌ रही।

सरकार आखिर क्यों कह रही है कि आपका पैसा डूबने नहीं देंगे? वह तो कह रही है कि अगर डूबेगा तो पांच लाख तक दे देंगे। तो साहब  घर में कैश रख नहीं सकते, बैंक में पैसा सुरक्षित नहीं, पेंशन खत्म, बीमा कंपनी कभी भी अपने को दिवालिया घोषित करके हाथ खड़े कर देगी सरकार तब क्या होगा? क्या सरकार तब यह नहीं कहेगी कि टर्म्स एंड कंडिशन पर तो आपने ही साइन किये थे?

आज देश के इन हालातों के मद्देनज़र यदि कोई जागरुकता फैला रहा है तो वह The Print, The Wire, Scroll, News Click, Youth Ki Awaaz, News laundary, Alt News, Indian Democracy आदि खबरिया साइट हैं जो

देश को जागरूक बनाना चाहती हैं। क्योंकि यह सभी प्रजातंत्र को मज़बूत करने का प्रयास कर रही हैं।

भ्रष्टाचार कौन कर रहा है उजागर?

यही नहीं, उपरोक्त सभी साइट भ्रष्टाचार भी उजागर करती हैं, जैसे NULM घोटाला, व्यापम घोटाला, मोदीगेट घोटाला, गौतम अडानी और विलमार पल्स घोटाला, KG गैस घोटाला, गुजरात फिशरीज़ घोटाला, अडानी पॉवर घोटाला, गुजरात स्टेट पट्रोलियम कॉर्पोरशन घोटाला, इंडिगो रिफाइनरी घोटाला, मेट्रो रेल घोटाला, NH24 घोटाला, PDS घोटाला (उत्तराखंड, छत्तीसगढ़), PGI भर्ती घोटाला, MPLAD घोटाला, Kharghar ज़मीन घोटाला आदि।

सोचिए फड़नवीस सरकार का 500 करोड़ का घोटाला, चिकन घोटाला, Cayman Island घोटाला, राष्ट्रीय राजमार्ग घोटाला आदि कब और किस सरकार में हुए? इन सब घोटालों की जानकारी इन्हीं तार्किक न्यूज़ साइट्स से मिली। बाकी काम क्या तो देश की मुख्यधारा की मीडिया पाकिस्तान को सबक सिखाने में व्यस्त है और डिग्री धारक WhatsApp से ज्ञान लेने में।

मज़बूत सरकार के मज़बूत नेताओं पर लगे आरोप

डिग्री धारक इन सभी मामलों को लेकर मज़बूत सरकार के मज़बूत नेता के खिलाफ षडयंत्र होने तक का आरोप लगा देते हैं। उनका मानना है कि ये सरकार एवं इसके नेता इतने ईमानदार हैं कि सभी भ्रष्टाचार मुक्त हैं। ऐसा सिर्फ ये प्रथम श्रेणी के व्यक्ति या छात्र मानते हैं, इसलिए इनकी बातें ही सही तो फिर विमर्श का कोई फायदा कहां?

साथ ही साथ इनकी नज़रों में हिन्दुओं की सरकार बनी है। रही बात दूसरी श्रेणी के व्यक्ति या छात्र की तो वह सभी विरोध करेंगे ही। क्योंकि इन्हें सरकार को चैन से बैठने नहीं देना, भले ये मज़बूत सरकार काम करे या ना करे। आलोचना क्यों हो रही है इसका सटीक जवाब जानना हो तो प्रथम वर्ग के डिग्री धारक व्यक्ति या छात्र से बहस कर लीजिए, जवाब मिल जाएगा। अरे साहब सबके सब सर्वज्ञानी जो हैं।

डिग्री धारकों से अपील

ये जो डिग्री धारक हैं, चलते-चलते सोचा इनसे कुछ अपील कर दूं या कुछ मांग लूं देश के लिए तो शायद दे दें। अभी दो गोली काण्ड हुए हैं, दिल्ली में, एक जामिया के प्रदर्शनकारी छात्रों पर, दूसरा शाहीन बाग के प्रदर्शनकारियों पर। इससे पहले कर्नाटक के एक स्कूल में बाबरी मस्जिद तोड़ने के दृश्य को रीक्रिएट किया गया था।

छोटे बच्चे हैं सब, शाहीन बाग के बच्चे क्या बोल रहे हैं ये सबको पता है, लेकिन बीजेपी की CAA रैली में बच्चे गोली मारने की बात कर रहे हैं। इसपर इन डिग्री धारकों का सीना चौड़ा हो जाता होगा, हो भी क्यों नहीं? ये छोटे बच्चे गद्दारों को जो मारने की बात जो कर रहे हैं। अब दूसरी श्रेणी के व्यक्ति या छात्र बीजेपी की रैली में आये बच्चों की भाषा का विरोध करें तो देशद्रोही, शाहीन बाग के बच्चों पर कुछ बोलेंगे तो दिखावा।

कितना अच्छा हो जब इन डिग्री धारकों के बच्चे कुछ सालों बाद जब घर लौट कर आएं स्कूल से और कहें पापा मैंने आज एक देश के गद्दार को मार दिया। क्योंकि वह मीट लाया था, या प्रेयर कर रहा था, या टोपी लगा रखी थी। डिग्री धारक पापा का सीना चौड़ा होगा या कुछ और सोचेंगे? कुछ और सोचेंगे तो किस बात के लिए आज हल्ला मचा रखा है?

आज अगर बच्चों को सहिष्णुता नहीं सिखाई, आज अगर बच्चों को मानवता नहीं सिखाई, आज अगर बच्चों के कोमल मन में हिन्दू-मुस्लिम का जहर भर रहे हैं, तो कल के लिए आप आज ही तैयार रहिये। तो डिग्री धारकों तय कर लो, अपने बच्चों को किस दिशा में ले जाना है।

सैनिकों की शहादत पर खूब विडियो शेयर करते हैं डिग्री धारक। यही नहीं ये हमला, युद्ध की बात करते हैं। लेकिन सवाल यहां ये आता है कि क्या यही डिग्री धारक अपने खुद के बच्चों को सेना में जाने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। क्या भेजेंगे सेना में? या शहीद देखने के लिए दूसरों के बच्चे ही चाहिए उन्हें? सेना का सम्मान सभी भारतवासी करते हैं, लेकिन सेना का राजनीतिकरण कुछ। सेना के राजनीतिकरण का विरोध अगर दूसरी श्रेणी के व्यक्ति या छात्र कर दें तो वह देशद्रोही।

यह बदलाव हो सकता है, आप तैयार हैं?

एक काम और हो सकता है, सरकार से कहकर कानून में बदलाव लाया जाए कि हर भारतवासी को कम से कम 5 साल सेना में भर्ती होने का कानून बने। वह सभी 6 महीने या एक साल की ट्रेनिंग लें और कर दें हमला पाकिस्तान पर या देश के गद्दारों पर या आतंकवादियों पर, इससे बड़ी राष्ट्रसेवा क्या होगी? अपने मुख्य सैनिक भी सिर्फ आपातकाल के लिए सुरक्षित रहेंगे या कोई बड़ी कार्यवाही के लिए तैयार रहेंगे।

अब अगर डिग्री धारक इसे पढ़ लेंगे तो उनके पास कुछ रटे रटाये शब्द मौजूद रहते हैं, जो वास्तविक रूप में इनको पहचान की राजनीति की वजह से मिलें हैं। ये शब्द रुपी ज्ञान इनको वाट्सएप या फेसबुक से मिला है, तुरंत सवाल खड़ा करेंगे 70 सालों में क्या हुआ, 70 सालों में ऐसा क्यों हुआ, 70 सालों में वैसा क्यों हुआ, 70 सालों में ऐसा क्यों नहीं हुआ जो आज हो रहा है वगैरह वगैरह? वे स्यूडो-सेकुलरिज़्म से शुरू होकर सिख के खिलाफ दंगे और कश्मीरी पंडित पर आकर रूक जाते हैं।

अब अगर ये अहसास दिया जाए के यह आपकी सोच नहीं है ये सोच आपके दिमाग में ज़हर की तरह घोली गई है, इन्हें बताया जाए कि आप तार्किक नहीं हैं, ज्ञान का आभाव है तो फिर बताने वाले ने खुद के पैर को कुल्हाड़ी पर दे मारा। फिर क्या सुनिए अच्छे अच्छे शब्द, जो इनके अपने ओरिजनल होते हैं। डिग्री लेते समय वह इन शब्दों को सुनते हैं, सीखते हैं और इन शब्दों में से कोई नया शब्द ईजाद करते हैं। बोलिए कोई भी सरकार ऐसे नागरिकों पर खुश होगी कि नहीं? गर्व करेगी कि नहीं।

इन 70 सालों की कहानी मैं खुद पिछले 6 सालों से सुन रहा हूं, पता नहीं कब 71, 72, 73, पर आयेंगे, कब इन सालों का हिसाब सरकार से लेंगे? डिग्री धारकों में दिमाग की जगह सुई हो, जो अटकी हुई है।

वह सोच जो प्रथम वर्ग के वंशजों को देशवासियों से अलग करती आई है

चलिए सिख दंगो की बात करते हैं, दूसरी श्रेणी के व्यक्ति या छात्र ये बात अच्छे से जानते हैं कि जब सिख अलगाववादी आंदोलन चल रहा था तब RSS सिखों से चिढ़ी हुई थी। सिख अलगाववादी आंदोलन, हिन्दुओं की हत्या और जगह जगह बम विस्फोट से सबसे ज़्यादा RSS और जनसंघ जो अब भाजपा है, परेशान थे।

कमाल यह है कि जब RSS वालों से पूछा जायेगा कि उस दौरान जो हिन्दू मारे गए उनके लिए उन्होंने 70 सालों में क्या किया? या 71, 72, 73 सालों में क्या किया? कोई जवाब नहीं मिलेगा।

1984 सिख कत्लेआम के दोषियों को सज़ा दिलवाने की मांग

जनाब एल के आडवाणी और श्री अटल बिहारी 3 मई 1984 को दिल्ली में धरने पर बैठे थे। उनके साथ समर्थकों भी मौजूद थे। वह चाहते थे के अमृतसर के गोल्डन टेम्पल में सेना भेजी जाए। अमृतसर के गोल्डन टेम्पल के पास जनसंघ ने ऐसे सभी व्यक्तियों का पूर्ण समर्थन किया था जो गोल्डन टेम्पल के आस पास बीड़ी, पान, गुटखा की दुकानें लगायें और इन पदार्थों को बेचें। ऐसा तब जब वह जानते थे कि सिख धर्म में इन सब पदार्थों के सेवन या धार्मिक परिसर के आस पास बिक्री तक पर रोक है। किया तो किया, कौन आज पूछने वाला है।

बात यहीं नहीं खत्म होती, हरबंस लाल खुराना जो उस वक्त बीजेपी के राष्ट्रिय नेता थे उन्होंने अमृतसर के गोल्डन टेम्पल के एक मॉडल को अमृतसर रेलवे स्टेशन के काफी नज़दीक एक जगह तोड़ दिया था। जब इंदिरा गांधी ने ऑपेरशन ब्लू स्टार किया तब पूरे संघ परिवार ने इसका पूर्ण समर्थन किया था। तब इंदिरा गांधी को आयरन लेडी कहते नहीं थकते थे। लेकिन आज नेहरु से लेकर राजीव एवं इंदिरा गांधी के बिना इनकी राजनीति नहीं चलती, पाकिस्तान के बाद नेहरु और गाँधी परिवार ही इनके निशाने पर रहता है

श्रीमती गांधी की हत्या पर रातों रात काँग्रेस इतने हिन्दू कहां से इकट्ठा कर सकी?

अब दंगो की बात करते हैं, जो दूसरी श्रेणी के व्यक्ति या छात्र हैं, उन्हें पता है कि 80 का दशक आते आते कांग्रेस अपना सांगठित ढांचा खो चुकी थी। उसके कैडर इंदिरा जी की अति केन्द्रीयकरण की नीति से अलग हो चुके थे। देश में क्षेत्रीय दलों का उदय हो चुका था। फिर जब श्रीमती गांधी की हत्या हुई तो रातों रात कांग्रेस इतने हिन्दू कहां से इकट्ठा कर के ले आई। जिसकी ज़मीन ही नहीं बची थी?

तो डिग्री धारकों को बताना चाहूंगा कि RSS के एक नेता हुआ करते थे नाना भाई देशमुख, उन्होंने बकायदा पत्र लिखकर इंदिरा जी की हत्या की निंदा की थी। यही नहीं सिखों के खिलाफ दंगों को सही ठहराया था।

किसी ने खोजबीन की कि RSS क्या कर रही थी सिक्ख दंगो के समय? क्यों देशमुख ने हत्याओं का समर्थन किया? क्यों अडवाणी, अटल चुप रहे इस बयान पर? डिग्री धारक जवाब ले आएंगे, लेकिन दूसरी श्रेणी के व्यक्ति या छात्र कहेंगे कि कांग्रेस और RSS दोनों सिख के विरुद्ध दंगों में शामिल थे। क्या सिख दंगा पीड़ितों को न्याय मिला? कोई नई इन्क्वायरी की गई? जवाब होगा नहीं? क्यों? बस इस लिए दूसरी श्रेणी के व्यक्ति या छात्रों से डर लगता है, खोज कर जो सवाल ले आएंगे।

YKA पर पब्लिश कश्मीरी पंडितों की रिपोर्ट के अनुसार

कश्मीरी पंडितों पर इसी साइट पर एक लेख माुजूद है। वहीं से रिफरेंस ले रहा हूं, “किसी को एक पल में उसके घर से बेघर कर देने का दर्द कश्मीरी पंडितों से ज़्यादा किसी ने शायद ही अनुभव किया हो।”

80 के दशक का अंत और 90 के दशक तक जो दौर चला वह त्रासदी, दुख, अवसाद से भरा था। आतंकवादियों ने कश्मीरी पंडितों को घाटी से भगाया, अत्याचार किया, मार काट की। आज तक कश्मीरी पंडितों को वापस घाटी में बसाने के लिए किसी भी सरकार ने कोई कदम नहीं उठाया। वर्तनान 6 सालों में भी कोई कदम नहीं उठाया गया।

आतंकवाद को कश्मीर में उपजाऊ ज़मीन 80 के दशक में मिली। उस समय केंद्र में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार थी जिसे भारतीय जनता पार्टी ने समर्थन दिया था। जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट जो कश्मीर का आतंकवादी संगठन उसने कश्मीर में आज़ादी का नारा दिया। उन्होंने ही कश्मीरी पंडितों को घाटी से बाहर निकाला।

कश्मीरी पंडित

यह एक पागलपन था, इस पागलपन में सिर्फ कश्मीरी पंडित ही नहीं जो भी भारत के समर्थक थे उन्हें भी मारा गया। दूरदर्शन को सरकार का प्रवक्ता माना जाता था, इसलिए लासा कौल जो दूरदर्शन के निदेशक थे, मार दिये गए। मुसलमानों के धर्मगुरु मीर वाइज़ भी मारे गए क्योंकि उन्होने आतंकवादियों का समर्थन करने से मना कर दिया था।

जज नीलकांत को मारा गया तो उसी समय मौलाना मदूदी भी मारे गए। बीजेपी के टीका लाल टपलू को मारा गया तो नेशनल कॉन्फ्रेंस के मुहम्मद युसुफ भी आतंकवाद की भेंट चढ़े। कश्मीरी पंडितों को मारा गया, सूचना विभाग के निदेशक पुष्कर नाथ हांडू मारे गए, पंडितों के विस्थापन का विरोध कर रहे हृदयनाथ को भी मार दिया गया। इन्हीं के साथ साथ इंस्पेक्टर अली मुहम्मद वटाली, कश्मीर विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर मुशीरूल हक, पूर्व विधायक मीर मुस्तफा, अब्दुल गनी लोन भी आतंकवादियों द्वारा मारे गए।

हज़ारों कश्मीरी पंडितों को मारा गया तो हजारों कश्मीरी मुसलमानों को भी मारा गया लेकिन क्या सारे कश्मीरी मुसलमान कश्मीरी पंडितों के विरोधी थे, ऐसा भ्रम आज फैलाया जाता है? अगर ऐसा ही होता तो घाटी में मुस्लिम आबादी लगभग 96 प्रतिशत थी और कश्मीरी पंडित सिर्फ 4 प्रतिशत।

कश्मीरी पंडितों ने पलायन क्यों किया?

आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि अगर यह दावा सही होता तो कितने कश्मीरी पंडित बच पाते। पलायन क्यों हुआ? जबकि कई जगहों पर मुस्लिम कश्मीरी पंडितों के घरों के बाहर पहरा दे रहे थे। जब आतंकवादियों ने उन मुस्लिम्स को भी मारना शुरू किया जो पंडितों को बचा रहे थे तब कश्मीरी पंडितो ने पलायन शुरू किया।

इस आतंकवादी घटना में हज़ारों मुसलमानों को भी मारा गया। 50 से 60 हज़ार मुसलमान घाटी छोड़ने पर विवश हुए। कुछ हज़ार मुसलमान परिवारों को आतंकवादियों ने बंधक बनाया, उन परिवारों के साथ क्या हुआ आज तक किसी को पता नहीं। जो 50 या 60 हज़ार मुस्लिम कश्मीर से बाहर आए उन्हें शक की नज़रों से देखा गया। हालांकि वह आतंकवाद के दबाव में या सरकारों की बेरुखी से भी कभी विद्रोही नहीं बने।

कश्मीरी पंडितों को तो सरकार की सहानुभूति मिल गई, सरपरस्ती मिल गई लेकिन उन मुस्लिम परिवारों की आवाज़ आज तक कोई नहीं बन पाया। वे पार्टियां भी नहीं जो खुद को मुस्लिम की हितेशी घोषित करती हैं।

कश्मीर से जब कश्मीरी पंडितो का और मुस्लिम परिवारों का पलायन हो रहा था, तब उस दौर में बीजेपी समर्थित विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार थी। बीजेपी ने श्री जगमोहन को कश्मीर का गवर्नर बनाया। कश्मीरी पंडितों को बचाने के लिए न केंद्र में बैठी BJP ने कुछ किया और न ही कश्मीर के राज्यपाल श्री जगमोहन ने। बल्कि इन्होंने कश्मीरी पंडितों का जम्मू पलायन करने में मदद की। जिन कैंपों में कश्मीरी पंडितों को रखा गया उन कैंपों के हालात आज भी बद्दतर हैं। पिछले 6 सालों में भी कोई सुधार नहीं किया गया।

पलायन किए हुए मुस्लिम तो शायद कश्मीर को भूल चुके हैं

जिन कश्मीरी पंडितों का मुद्दा बीजेपी उठाती रहती है, असल में यह समस्या दी हुई इसी दल की है। सवाल कायदे से ये होना चाहिए के उस दौर में बीजेपी एवं RSS क्या कर रहे थे? RSS ने अपने कैडर क्यों नहीं भेजे कश्मीरी पंडितों को बचाने से लेकर आतंकवादियों से लोहा लेने के लिए। जबकि उस समय केंद्र में बी जे पी समर्थित सरकार थी और श्री जगमोहन जो बी जे पी के बड़े नेता थे, कश्मीर के गवर्नर थे?

दूसरी श्रेणी के व्यक्ति या छात्र क्यों हैं सरदर्द

अगर इतने सवाल उठाये जायेंगे तो बताइए दूसरी श्रेणी के व्यक्ति या छात्र सरदर्द हुए कि नहीं? अब डिग्री धारक को ये समझाया जाएगा कि नहीं, अरे यही कि JNU, Jamia, DU को बंद कर देना चाहिए? तो जो तार्किक हैं उन्हें अर्बन नक्सल कहा जाएगा या नहीं?

अंत में डिग्री धारकों से अपील है, तार्किक मत बनिये, कम से कम समझदार तो बन जाइये, कम से कम देश के भविष्य के बारे में सोचिए। कम से कम आज जो सरकार के द्वारा गलत हो रहा है उस पर समर्थन मत दीजिये। तटस्थ ही हो जाइये, साहब तटस्थ होकर भी आप आज देशभक्ति का परिचय ही देंगे, आप कम से कम इस तरह से ही सही देश के काम तो आइए।

हिंदी में लिखे इस लेख को ठीक से पढ़िए। जो लिखा उस पर यकीन न हो तो सत्यता खोजिए। फिर आप इंग्लिश में भी अगर कुछ लिखा गया हो, तुरंत समझ जाएंगे, ज़रूरत इतिहास-राजनीति-अर्थव्यवस्था-समाज को पढ़ने से लेकर समझने की है, न कि हिंदी-इंग्लिश करने की।

आंख बंद करके किसी भी बात पर यकीन मत कीजिए। अपने अंदर के छात्र को ज़िंदा रखिए वरना हिंदी में पढ़कर भी आप डिग्री धारक ही बने रहेंगे और इंग्लिश में लिखा कभी समझ नहीं पाएंगे। तार्किक बनिये, सिर्फ डिग्री धारक नहीं। फुनसुख वांगडू और चतुर रामलिंगम में अंतर कीजिये, और कोशिश करिये के चतुर रामलिंगम ना ही बनें।”

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यह लेख पूर्व में 1 फरवरी 2020 को डॉ अनुराग पांडेय द्वारा “इंडियन डेमोक्रेसी” में  प्रकाशित हुआ है। लेखक अनुराग पांडेय दिल्ली यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

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