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“मुझे समझ आया कि धर्म को अफीम क्यों कहा जाता है”

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

उस समय की बस कुछ धुंधली यादें ही हैं, जब पहली बार इस कथन को पढ़ा, “धर्म जनता की अफीम है।” उस वक्त बड़े ध्यान से कार्ल मॉर्क्स को रट लेता था। उस कच्ची उम्र में ना तो समाज की समझ थी और ना ही धर्म की। कार्ल मार्क्स मेरे लिए एक नाम से ज़्यादा कुछ नहीं थे।

कॉलेज के दिनों में कॉर्ल मार्क्स को भी थोड़ा पढ़ने और समझने का अवसर प्राप्त हुआ। मैं उन दिनों सोचता था कि कार्ल मार्क्स ज़रूर बहुत बड़ा नास्तिक औप अधर्मी व्यक्ति रहा होगा, वरना कोई क्यों धर्म की तुलना अफीम से करेगा।

मेरे लिए कार्ल मार्क्स की बात महज़ एक वाक्य था, क्योंकि अब तक यह किताबों और किताबों से निकलकर मेरे मस्तिष्क में घर कर चुका था और व्यावहारिकता से इसका कोई सीधा संबंध मैं स्थापित नहीं कर पाता था।

हाल के वर्षों में इस्लामिक आतंकवाद, हिन्दू राष्ट्र, राम मंदिर और बाबरी मस्जिद विवाद, काफिर , धार्मिक जिहाद, धर्मांतरण, धार्मिक कट्टरपंथी और हाल के दिनों में इज़ाद हुए भगवा आतंकवाद जैसे शब्दों का कार्ल मार्क्स के कथन के साथ थोड़ा बहुच सामंजस्य बैठा पाया और महज़ एक बहुत छोटी समझ विकसित कर पाया कि क्या धर्म सच में अफीम है?

धार्मिक वर्चस्व की लड़ाई

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

बात जब हम नशे या ज़हर की करते हैं, तो उसके उपयोग के बाद वास्तव में हम अपने वास्तविक पहचान को खो देते हैं और धर्म रूपी इस नशे का गुलाम बन जाते हैं। वरना क्यों एक आम इंसान आतंकवादी संगठनों का हिस्सा होगा? धार्मिक नारों और धर्म के वर्चस्व के लिए तथा उस अदृश्य ईश्वर, अलाह, स्वर्ग और जन्नत पाने की चाह हज़ारों लोगों की हत्या कैसे कर देगा।

धर्म के ज़िंदाबाद के नारे लगाकर लोगों को मौत की घाट कैसे उतार देगा? कोई क्यों किसी को काफिर कहकर गोलियों से छलनी कर देगा? कोई क्यों जिहाद के नाम पर खुद को बम से उड़ा लेगा और मासूमों का हत्यारा कहलाएगा?

कोई क्यों बाबरी मस्जिद और राम मंदिर के खातिर मरने-मारने पर उतारू हो जाएगा? कोई क्यों किसी का धर्मांतरण करवाएगा?

कोई क्यों जय श्रीराम के नारे के लिए किसी की हत्या कर देगा? कोई क्यों अपने आस-पड़ोस के लोगों को आतंकवादी और भगवा आतंकवादी कहकर संबोधित करेगा?

वास्तव में ये लोग अपनी वास्तविक पहचान खो चुके हैं और अफीम रूपी धर्म के शिकार बनकर धार्मिक वर्चस्व की लड़ाई का हिस्सा बन चुके हैं। ये मानसिक रोगी बन चुके हैं, जो सच में इनकी वास्तविक पहचान नहीं है। इनकी वास्तविक पहचान तो एक आम इंसान के रूप में था, जो दूसरों को भी महज़ एक इंसान ही समझता है।

हमारे वास्तविक धर्म और राजनीति के ठेकेदारों ने अफीम रूपी धर्म की इस नकारात्मक ताकत को बेहत्तर ढंग से पहचाना और अपने मंसूबों की पूर्ति के लिए इसका बेहतर उपयोग करना सिखा।

धर्म के ठेकेदारों में मसीहा की तलाश

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

इन ठेकेदारों ने कभी राम नामक तो कभी अल्लाह नामक अफीम की घुट्टी पीलाकर हमें हमारे वास्तविक पहचान से दूर कर गया और हम उनके साथ चलने को विवश होते चले गए। हम रोटी, कपड़ा और मकान से ज़्यादा धर्म को महत्वपूर्ण समझने लगे। हम विज्ञान और आधुनिकता के इस दौर में धर्म और धर्म के ठेकेदारों में अपना मसीहा तलाशने लगें।

कभी राम तो कभी अल्लाह, कभी साधु-संतो, तो कभी पीर-फकीरों में हमारी समस्याओं के समाधनकर्ता तलाशने लगे। रोटी के लिए पसीने से ज़्यादा धर्म के नाम पर खून बहाना ज़्यादा बेहत्तर समझने लगे। धार्मिक और उन्मादी नारे हमारे रगों में दौड़ते रक्त की बूदों की गति बढ़ाने लगे।

इन सब के बीच हमने ताकतांत्रित मुद्दों धर्म की वास्तविकता का खूब दोहन किया और इनका गला घोंट दिया। हम सत्ता तक पहुंचने का एक माध्यम मात्र रह गए। धर्म के नशे में चूर हमारे लिए रोटी, कपड़ा, मकान,संविधान, शिक्षा, स्वास्थ्य, आपसी प्रेम, भाईचारा और परिवार से परे धर्म हमारे लिए प्राथमिक मुद्दा हो गया।

धर्म और राष्ट्रवाद

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

हम धर्म के नाम पर कई हिस्सों में बंट गए और इसी के आधार पर पाटिर्यों और नेता रूपी मसिहाओं को समर्थन देने लगे। आज हुआ यह कि छोटे से छोटे और बड़े से बड़े चुनाव में बड़े नेता से लेकर गली के कार्यकर्ताओं के लिए मुद्दों से ज़्यादा अपनी धार्मिक पहचान बताना और दिखाना उनकी प्राथमिकता में शामिल होता है।

अफीम के नशे में चूर हमारे पागलपंती का दूसरा अध्याय शुरू होना अभी शेष था। इस दूसरे अध्याय में अफीम के थोड़े कड़वे घूंट पिलाए गए, जिसमें धर्म को राष्ट्रवाद से जोड़ दिया गया और दूसरे धर्म के उपर वर्चस्व कायम कर धर्म के नाम पर राष्ट्र बनाने को सर्वोपरि कर्तव्य के रूप में पढ़ाया जाने लगा और खुद को राष्ट्रवादी साबित करने की होड़ लग गई। कुछ का शौक तो कुछ की मजबूरी!

वर्चस्व की इस लड़ाई में एक-दूसरे के लिS हमारी नफरतें बढ़ने लगीं।अपने मित्र और पड़ोसियों पर हमारी शक की निगाह गहराती चली गई, हम उन्हें कभी अपना दुश्मन तो कभी देशद्रोही समझने लगे।

यकिन मानिए वह दिन दूर नहीं, जब हमें धर्म के ठेकेदारों और अपने मसीहा के रूप में चुने हुए नेताओं के कहने पर ऐसे दुश्मन और देशद्रोहियों को खत्म करने को अपना परम कर्तव्य समझने लगेंगे, जिसकी छिटपुट शुरुआत हो चुकी है।

अब हमें कलम ना पकड़कर बंदूक पकड़ने की सीख दी जा रही है, कभी जिहाद के नाम पर तो कभी राष्ट्रवाद के नाम पर। हो सकता है कि मैं अपनी समझ का अंशमात्र ही लिख पाया हूं और मेरी समझ भी कुल का एक नगण्य अंश रहा हो। किन्तु कार्ल मार्क्स के उपर्युक्त कथन के वास्तविकता के प्रति अब मैं पूरी तरह आश्वस्त हूं और उसे अपनी आखों के सामने व्यवहारिक रूप में देख और समझ सकता हूं।

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