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कमला चौधरी: जिन्हें साहित्य के साथ-साथ राजनीति ने भी भुला दिया

भारतीय समाज में महिलाओं की स्थिति को लेकर हमेशा से सामाजिक प्रथाओं का जकड़न रहा हैं। इस जकड़न को ढीला करने या जकड़न से मुक्त करने की कोशिशें समाज-सुधारकों और लेखकों ने भी किया हैं। कमला चौधरी उन महिला समाज-सुधारकों और लेखिकाओं के सूची में से हैं जिन्होंने महिलाओं के जीवन के स्तर में सुधार लाने के लिए सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक स्तर पर प्रयास किया।

दुभार्ग्य से कमला चौधरी के बारे में अधिक जानकारी में अधिक जानकारी ही नहीं अधिक तस्वीर तक उपलब्ध नहीं है। उत्तरप्रदेश के लखनऊ में 22 फरवरी 1908  को डिप्टी कलेक्टर पिता राय मनमोहन दयाल के घर पैदा हुई कमला।

लड़की होने के कारण पढ़ाई-लिखाई करने के लिए उनको परिवार में काफी संघर्ष करना पड़ा। अलग-अलग शहरों में पली-बढ़ी कमला ने पंजाब विश्वविधालय से हिंदी साहित्य में रत्न और प्रभाकर की उपाधि पंजाब विश्वविधालय से हासिल की। साहित्य के प्रति उनकी रूची स्कूली जीवन के समय से ही थी।

महिलाओं के सामाजिक स्थिति के बारे में लेखन भी उन्होंने स्कूली जीवन के समय शुरु कर दिया था। 1927 को कमला का विवाह जे.एम. चौधरी से हुआ और वह कमला चौधरी हो गई।

साहित्यक सफर

हिंदी साहित्य से अपने प्यार को लेकर कमला चौधरी ने महिलाओं के आंतरिक दुनिया के चारों तरह घूमने वाली कहानियों पर लिखना शुरू किया। उनके विषय विशिष्ट रूप से नारीवादी रहे और उन्हें आकर्षक और बोल्ड माना जाता था। उनके लेखन में उनके दौर की महिलाओं के सामाजिक-सांस्कृतिक स्थितियों का पता चलता है जिसका प्रभाव बचपन से ही उनके जीवन पर भी पड़ता रहा।

लैंगिक भेदभाव, विधवापन, महिला इच्छाओं, महिला मजदूरों के शोषण और महिलाओं के मानसिक स्वास्थ्य पर प्रभाव जैसे विषयों पर कमला चौधरी का लेखन देखने को मिलता हैं। उनके लेखन में महिलाओं के जीवन से जुड़ी वह सच्चाई देखने को मिलती हैं

हालांकि विषयों के संवेदनशीलता के बाद भी उनके लेखन साहित्य को उस दौर में अधिक प्रमुखता नहीं मिली। उन्माद (1934), पिकनिक (1936) यात्रा (1947), बेल पत्र और प्रसादी कमंडल उनकी प्रमुख रचनाएं हैं।  फिर भी उन्होंने महिलाओं के जीवन में सुधार के लिए एक सामाजिक कार्यकर्त्ता के रूप में कार्य करना जारी रखा।

राजनीतिक सफर

कमला चौधरी का राजनीतिक सफर 1930 से शुरू हुआ, अपने पारिवारिक परंपरा को तोड़ने हुए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए। महात्मा गांधी के शुरू किए गए सविनय अवज्ञा आंदोलन से देश के आजादी मिलने तक कमला चौधरी देश के स्वतंत्रता संग्राम के संघर्ष में कारावास तक का सफर किया।

कमला चौधरी

1947 के बाद, उन्होंने भारत के संविधान बोर्ड के एक निर्वाचित सदस्य के रूप भारत के संविधन को प्रारूपित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसका गठन 1950 में हुआ। बाद में, 1952 उन्होंने भारत की प्रांतीय सरकार के सदस्य के रूप में कार्य किया, अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के पचासवें सत्र में, वह वरिष्ठ उपाध्यक्ष थी।

अपने पूरे राजनीतिक करियर के दौरान वह उत्तर प्रदेश राज्य समाज कल्याण सलाहकार बोर्ड की सदस्य होने के अलावा ज़िला काँग्रेस कमेटी, शहर काँग्रेस कमेटी से लेकर प्रांतीय महिला काँग्रेस कमेटी के विभिन्न पदों पर काम करती रहीं।

1962 में, वह हापुड़ से आम चुनाव जीतीं और तीसरी लोकसभा की सदस्य बनीं, उस दौर में हापुड़ लोकसभा में गाजियाबाद के क्षेत्र में आते थे। एक सांसद के तौर वे पांच साल लोकसभा में काफी मुखर रहीं।

एक समाज सुधारक के रूप में, दिल के बहुत करीब होने का कारण महिलाओं का उत्थान था, कमला चौधरी ने लड़कियों की शिक्षा के लिए सक्रिय रूप से काम किया। 1970 में उनका निधन मेरठ में हुआ। एक लेखिका और राजनीतिक कार्यकर्त्ता रूप में उनका जीवन बेमिसाल रहा फिर भी उनकी साहित्यिक उपेक्षा ही नहीं, राजनीतिक उपेक्षा भी निराशा पैदा करती है।

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