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लोक गायन से राष्ट्रीयता की भावना जागृत करने वाले बिहार के रसूल मियां

20वीं सदी के उत्तरार्ध में पूरा भारत गुलामी से उबरने की जद्दोजहद में लगा हुआ था। उस समय देश के अलग-अलग हिस्सों से लोक कलाकार अपनी कला व लोक गायन के माध्यम से लोगों के बीच राष्ट्रीयता की भावना जागृत करने के लिए पुरजोर कोशिश कर रहे थे।

इसी बीच बिहार के गोपालगंज स्थित जिगना गॉंव में सन 1872 के आसपास रसूल मियां का जन्म हुआ, उनका पूरा परिवार रंगमंच से बहुत पहले से ही जुड़ा हुआ था।

रसूल के पिता फतिंगा अंसारी जो मार्कस लाइन स्थित कोलकाता छावनी में अंग्रेज़ों के यहां बावर्ची का काम करते थे, वहीं दादा व चाचा जाने-माने संगीतकार हुआ करते थे। माना जाता है कि संगीत उन्हें विरासत में ही मिली हुई थी।

उनकी प्रारंभिक शिक्षा गॉंव से शुरू हुई और गरीबी के हालात ने उन्हें उच्च शिक्षा हासिल करने का मौका ही नहीं दिया, जिसके कारण उनकी पढ़ाई बीच में ही छूट गई। लेकिन कुदरत ने रसूल मियां के कंठ में संगीत पैदा कर दिया, जिसको संवारने और कविता लिखने की तालीम उन्होंने अपने गॉंव के बैजनाथ चौबे, गिरिवर चौबे और बच्चा पांडे से पाई थी।

बिहार से कोलकाता मज़दूरों का पलायन

कहते हैं, ‘कला ही एक ऐसी शिक्षा है, जो किसी भी परिस्थितियों में फलने-फूलने को तैयार रहती है।’ कुछ ऐसा ही रसूल मियां के साथ हुआ। उन्हें लोक कला की दुनिया ने भोजपुरी के शेक्सपियर भिखारी ठाकुर के समतुल्य लाकर खड़ा कर दिया, वजह वह उर्दू-भोजपुरी मिश्रित भाषा में कविताएं व गीत लिखा करते थे।

भोजपुरी भाषी लोगों के बुलावे पर वह कोलकाता में ही रंगमंच का आयोजन भी करते थे, जिन्हें बिहार से आए कामगार मज़दूर खूब पसंद करते थे। इस कारण रसूल मियां का मन भी लोक गायन के क्षेत्र में बसता चला गया, जिसमें वह पुरबिया तान में गीत सुनाकर लोगों का मन मोहित कर डालते थे।

भारतीय राष्ट्रीयता का प्रभाव लोक गायन पर भी पड़ा

जहां एक और महात्मा गॉंधी के नेतृत्व में सन 1917 ई० में ‘चंपारण सत्याग्रह’ का आंदोलन सफल रहा, तो वहीं पूरे भारत में आंदोलन का सिलसिला चल पड़ा, उनमें रसूल मिया भी एक थे। उन्होंने कोलकाता में राष्ट्रीय भावना को जागृत करने के लिए लोक गीत लिखा तो अंग्रेज़ों ने उन्हें कोलकाता के जेलों में डाल दिया। उस वक्त कोलकाता की गलियों में रहने वाली नर्तकियों ने अपने जेवर बेचकर उन्हें छुड़ाया था।

वह उन दिनों एक डायरी में अपने गीतों को लिखकर रखने लगे थे, जो कि बाद के दिनों में उनके परिवार को मिला।

गुमनाम चेहरा का विस्मृत होना

देश को आज़ाद कराने में जितना हिंदुओं ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया, उतनी ही भूमिका मुस्लिम भाइयों ने भी निभाई थी। तभी तो रसूल मियां के गीतों में अल्लाह, राम-सीता, कृष्ण भक्ति,वेद ,पुराण की झलक दिखाई पड़ती है। खासकर, मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री रामचंद्र की ‘राम का सेहरा’, जिसमें उन्होंने राम को केंद्र मानकर गीत लिखा है।

लेकिन आज़ादी मिलते ही हम सब धर्म के आधार पर दो फांक में बंटने लगे, जिसके कारण दो नए राष्ट्र हिंदुस्तान व पाकिस्तान का उद्भव हुआ।फिर समय ने करवट ली और तीसरा राष्ट्र बांगलादेश सन् 1971 में बना। फिर भी रसूल मियां को वह सम्मान नहीं मिल पाया, जो एक गीतकार को मिलना चाहिए।

गॉंधी के गीत ने रसूल को वापस बुलाया

बिहार में लोक गायन का सिलसिला बहुत ही पुराना रहा है, जिसे खासकर ग्रामीण क्षेत्रों के लोग पसंद करते हैं। पुरबिया गीत जिसे भिखारी ठाकुर ने लिखा था, जिसको कल्पना पटवारी, भोजपुरी की देवी आदि ने पुरबिया स्वर से लोगों के बीच पहुंचाने का काम किया।

लेकिन रसूल मियां के द्वारा लिखे गए गीतों को जीवंत बनाने का काम प्रसिद्ध लोक गायिका चंदन तिवारी कर रही हैं। जब 1948 ई० में राष्ट्रपिता महात्मा गॉंधी की हत्या कर दी गई, इसका प्रभाव रसूल मियां के ऊपर भी पड़ा। उनके रंगमंच की टीम ने शोक व्यक्त किया, जिससे आहत होकर उन्होंने एक गीत लिखा, जो वर्तमान संदर्भ में भी प्रासंगिक माना जा रहा है-

‘के हमरा गॉंधी के गोली मारल हो, धमाधम तीन गो/

कल्हीये आज़ादी मिलल,आज चलल गोली/

गॉंधी बाबा मारल गइले देहली के गोली हो,धमाधम तीन गो…

गॉंधी के विचारों से प्रभावित रसूल मियां की मृत्यु 80 वर्ष की आयु में सन् 1952 ई० में हो गई।

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आलेख संदर्भ- लोकरंग-1(2009) -सुभाष कुशवाहा के शोध पत्र से

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