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“असगर वजाहत, शाहीन बाग की महिलाओं को स्वेटर बुनते देखना आपकी पितृसत्तात्मक सोच है”

प्रतीकात्मक तस्वीर।

प्रतीकात्मक तस्वीर।

दो-तीन दिन पहले अपने मित्र प्रोफेसर एस. के. जैन के साथ शाहीन बाग़ गया था। वहां मैंने महिलाओं को बैठे हुए देखा। बड़ी खुशी हुई कि भारत के संविधान को बचाने के लिए महिलाएं इतनी तकलीफ उठा रही हैं। लेकिन यह भी मन में आया कि अगर ये महिलाएं केवल बैठी न रहतीं बल्कि कुछ करती होतीं, जैसे बर्फीले पहाड़ों पर तैनात भारतीय सिपाहियों के लिए स्वेटर या दस्ताने बुनती होतीं तो शायद और अच्छा होता है।

यह टिप्पणी किसी और ने नहीं, बल्कि हिंदी साहित्य में महत्वपूर्ण प्रगतिशील और सिद्धहस्त नाटककार के रूप में प्रतिष्ठित शख्सियत असगर वजाहत ने शाहीन बाग की महिलाओं के बारे में की थी, जिसे लेकर काफी लोगों ने उन्हें आड़े हाथ लिया।

ऐसा कहने पर वह अंधभक्तों के, जिनकी समझदारी का स्तर दकियानूसी परंपराओं और धार्मिक अंधविश्वासों से संचालित होता है और जिनका तार्किकता और वैज्ञानिक टेंपरामेंट से दूर-दूर तक का संबंध नहीं होता है और जो शाहीन बाग में बैठी औरतों को पैसे देकर लाई गई कहते हैं, के बरक्स आकर खडे हो जाते हैं।

ज़िम्मेदारी और संघर्ष की अनूठी मिसाल हैं शाहीन बाग की महिलाएं

शाहीन बाग में सीएए और एनआरसी के खिलाफ प्रोटेस्ट करती महिलाएं। फोटो साभार- सोशल मीडिया

किसी भी सामंती, पुरातनपंथी और दकियानूसी समाज में आम धारणा होती है कि महिलाएं घरेलू काम करती हुई ही अच्छी मानी जाती हैं। शाहीन बाग में औरतें दो महीने से भी अधिक समय से सीएए और एनआरसी के खिलाफ धरने पर बैठी हैं, जो ज़िम्मेदारी और संघर्ष की अनूठी मिसाल हैं। वे अपने घर-परिवार के ज़रूरी काम निबटाकर धरने पर आती हैं।

यह उनकी जीवन से ऐसा तालमेल बिठाने की अनोखी दास्तान है, जिन्हें वे रोज़ लिखती हैं और रोज़ाना नियमित रूप से पुराने अथवा नए ढंग से लिखती हैं, बढ़ाती हैं, बदस्तूर और बेनागा। कुछ को अपनी शिक्षा तो कुछ को अपनी नौकरी से तालमेल बिठाना अथवा उसे दरकिनार करना पडता है, तो कुछ की मजबूरी है कि वे वहीं बैठ अपने दुधमुंहें बच्चे का पेटभर रही हैं और दोहरे संघर्ष के तालमेल की यह दास्तान इस कदर कठिन और निर्मम है कि सर्द दिनों के इस संघर्ष ने एक नवजात की जान भी ले ली।

आने वाली नस्लें शाहीन बाग की महिलाओं को याद करेंगी

शाहीन बाग की महिलाएं। फोटो साभार- सोशल मीडिया

हो सकता है ये घटनाएं आने वाले दिनों में कहानियां बनकर इतिहास में दर्ज़ हो जाएंगी और कहा जाएगा कि उन औरतों में कितना गज़ब का आत्मविश्वास था। उनमें लड़ने का जज़्बा दीवानगी की हद तक था। उन पर कसे गए उन तंजों को भी याद किया जाएगा, जिनमें राष्ट्रवाद के आलंबरदार गिरोह उन्हें किराए पर लाई गई भीड़ बताते रहे और प्रगतिशीलता राष्ट्रवादी होने के मर्ज़ का इस कदर शिकार हो गई कि उन्हें खाली ना बैठ सीमा पर बैठे जवानों के लिए स्वेटर बुनने की सीख देकर चली गई।

यह सीख एक मर्दवादी समाज के बने हुए खांचे से बाहर नहीं निकलकर सोचने वाले सिद्धहस्त नाटककार, सााहित्यकार की सीख थी। यह मर्दवादी समाज के उस मर्द की सीख थी, जो अपने दैनिक संघर्षों के बीच तालमेल से नए भारत का खाका बुनने वाली गृह निर्मात्रियों को कुछ सिखाने लायक समझता ही नहीं है कि वे औरतें हैं।

वे सीख देने की नही सीख पाने की ही हकदार हैं, सदैव, निरंतर। उनसे सीखा नही जा सकता, सिखाना सिर्फ मर्दों का काम है, इंकलाब सिर्फ उनकी जागीर है। संविधान बचाने, लोकतंत्र बचाने की इंकलाबी मुहिम से मर्दवादी समाज के मर्दों का सिंहासन डोलना क्यों शुरू हो जाता है?

शाहीन बाग की औरतों का संघर्ष कोई फैशन नहीं

शाहीन बाग में प्रोटेस्ट के दौरान महिलाएं। फोटो साभार- प्रीति परिवर्तन

शाहीन बाग की औरतों का संघर्ष कोई अभिजात्य बौद्धिक फैशन नहीं, बल्कि अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाते हुए संविधान को बचाने, देश के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को बचाने और देश में कानून के राज के लिए संघर्ष और परिवार और देश के प्रति ज़िम्मेदारियों के बीच तालमेल बनाने का दोहरा संघर्ष है। वे जवानों के लिए स्वेटर बुने या नहीं मगर देश के लिए ज़रूर एक नई क्रान्ति के गीत बुन रही हैं, गा रही हैं।

वे इस नई और एकदम तारोताज़ा भूमिका में देश की एकता-अखण्डता को बचाती हुई सिपाही ही हैं परंतु त्रासदी यह है कि पुरूष सत्तात्मक सोच गाहे-बगाहे सभी को अपनी ज़द्द में ले लेती है। चाहे वह कोई प्रतिष्ठित प्रगतिशील साहित्यकार ही क्यों ना हो, किसी को नहीं छोडती है।

महिलाओं पर सवाल खड़े करना कोई नई बात नहीं

शाहीन बाग की महिलाएं।  फोटो साभार- सोशल मीडिया

अनेकों ऐसे उदाहरण हैं कि बड़े नामचीन साहित्यकार और बुद्धिजीवी वर्गों का प्रतिनिधित्व करने वाले लोग नारी समानता की स्थापित जुमलेबाज़ी करते हुए महिलाओं के सर्वांगीण विकास की बातें तो करते हैं, उनके लिए श्रम की उचित मज़दूरी की बात भी करते हैं, काम के घंटे तय करने की बातें करते हैं, अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के औचित्य और प्रासंगिकता पर लंबी तकरीरे झाड़ते हैं।

मगर घर में महिलाएं उनके लिए दिन रात उनकी सेवा, उनके खानपान, उनके स्वास्थ्य और आराम की चिंता में दिन- रात एक किए रहती हैं, उस पर कोई गौर नहीं किया जाता है। उन्हें ना साप्ताहिक अवकाश मिलता है, ना काम के घण्टे तय है और उनके श्रम के किसी भौतिक मूल्य के तो मायने ही नहीं हैं।

महिलाओं को गृहणी के तौर पर ही देखता है यह समाज

प्रोटेस्ट के दौरान शाहीन बाग की महिलाएं

दरअसल, महिला को गृहणी अथवा गृहस्वामिनी का तमगा लगाकर अप्रत्यक्ष रूप से बता दिया जाता है कि तुम समर्पिता, ममतामयी रूप में ही अच्छी दिखती हो, सभी की सेवा करने में ही तुम्हारे सौन्दर्य में चार चांद लगते हैं, लेकिन अखबार बांचती हुई, लेख लिखती हुई, भाषण देती हुई, समाज की अन्य महिलाओं (शिक्षित व अशिक्षित) के अधिकारों की बात करती हुई, उनके पक्ष में आवाज़ उठाती हुई, घर और घर के बाहर देश-समाज में अपने हक पर सवाल पूछती हुई, बहस करने वाली बेबाक राय देती हुई महिलाएं आंखों में किरकिरी बनकर चुभने लगती हैं।

और कब ये बेबाकपन दूसरों को उनके चरित्र पर उंगली उठाने का, उनकी सीमा तय करने का अधिकार दे देता है, पता ही नहीं चलता है और यदि औरतें एक बड़े आंदोलन को नेतृत्व दे रही हों, उसमें शिरकत कर रही हों, संविधान के हक की लडाई लड़ रही हों, तो भला कैसे बर्दाश्त होंगी।

इन कामों की जागीरदारी तो हमेशा से मर्दों के पास रही है। प्रकृति निर्धारित कुछ कामों के अलावा ऐसे कोई काम नहीं हैं, जो महिलाएं नहीं कर सकती हैं, वे कर भी रही हैं। वे अपनी तय सामाजिक सीमाओं को लांघकर उंचा उड़ रही हैं। नए आसमान में उडानें भर रही हैं, वे नेता हैं, लेखक हैं, पायलट, ट्रेन ड्राइवर, युद्ध के मैदान में लड़ रही हैं, चिकित्सक, प्राध्यापक हैं, अन्तरिक्ष यात्री बन रही हैं।

महिलाओं की उड़ान से आखिर किसे है परेशानी?

साहित्यकार असगर वजाहत। फोटो साभार- सोशल मीडिया

वहीं, पुरूषों ने भी उनके पेशों में कदम रखे हैं, वे शेफ हैं, डिज़ाइनर हैं, इंटीरियर डिज़ाइनर हैं, ड्राईक्लीनर हैं और पैसा कमाने के लिए उन मैदानों में उतर गए हैं, जो घर की चारदिवारी में महिलाओं के लिए निर्धारित थे, फिर महिलाओं को स्वेटर बुनने के लिए नसीहत देने, मशवरा देने के प्रगतिशील दुस्साहस के क्या मायने हैं? यह कुछ अनुचित जान पडता है।

दरअसल, बाज़ारी संस्कृति के आधुनिक नागरिक के लिए शाहीन बाग की औरतों का काम अनुत्पादक है। यह कोई आय का ज़रिया नहीं है, बल्कि वक्त का नुकसान भी है और मौजूदा समाज के तय मानदंडों के अनुसार महिला की दो ही श्रेणी हैं। या तो घर में रहकर काम करें अथवा घर से बाहर जाकर धनोर्पार्जन करें।

यह तीसरा काम, समाज बदलने का ठेका तो सरासर मर्दवादी काम है। आप नारे लगाती हुई, तकरीर करती हुई, बेवजह कविता, कहानी कहती हुई सभ्य प्रतीत नहीं होती हैं। अब या तो आप पैसे लेकर बैठी हैं अथवा आप अनुत्पादक काम कर रही हैं, तो खाली बैठी स्वेटर आदि क्यों नही बुन लेती हैं। खाली बैठ अथवा धुम्रपान अथवा मद्यपान करते दुनिया बदलने और चलाने की गप्पबाज़ी और जुमलेबाज़ी करना तो मर्दों का पुश्तैनी कारोबारी हक है।

अब उनकी उड़ान से दोनों ‘‘मर्द‘‘ परेशान हैं। दक्षिणपंथी प्रतिक्रियावादी भी और स्थापित प्रगतिशील भी।

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