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पहले भी की थी गोडसे ने गाँधी को मारने की कोशिश

1944 की बात है एक प्रार्थना सभा के दौरान हालात बद्तर हो गये। एक आदमी हाथ में खंजर लेकर एक संत की तरफ, उसके खिलाफ नारे लगाते हुए दौड़ा,। लेकिन सौभाग्य से मणिशंकर पुरोहित और भिलारे गुरुजी ने उस आक्रमणकारी को रोक लिया। संत ने उसे माफ किया और बात करने के लिये बुलाया लेकिन वह चला गया।

4 साल बाद 30 जनवरी 1948 को वह आदमी फिर उसी संत के सामने आया और इस बार उस संत के ऊपर 3 गोलियां दाग कर उसकी जान ले ली। उस कातिल का नाम था नाथूराम गोडसे और उस माफ करने वाले का नाम महात्मा गाँधी

व्यक्ति मरता है विचार नहीं

महात्मा गाँधी

कुछ मूर्खों को लगता है कि एक इंसान को मार कर पूरी विचारधारा मारी जा सकती है। हालांकि एक इंसान जब एक विचार बनकर लोगों के अंदर चला जाता है, तो मर कर भी वह ज़िंदा रहता है।

इसके अनेकों उदाहरण रहे हैं, फिर चाहे वह महात्मा गाँधी हों, सरदार भगत सिंह हों, नेताजी सुभाषचंद्र बोस हों या फिर चाहे अब्राह्म लिंकन हों। इन सबको जब उनके दुश्मनों ने मारा तो उनको यही लगा कि अब कोई भी इनके विचारों को आगे नहीं बढ़ाएगा लेकिन जल्द ही ये सब गलत साबित हुए।

जहां लिंकन की मौत के बावजूद भी गुलामी के खिलाफ जंग खत्म नहीं हुई, वहीं गाँधी की मौत के बाद में देश में आपसी भाईचारे और आम सुधार जैसे काम नहीं रुके और यहीं गाँधी जीत गए और उन्हें मारने वाला नाथूराम गोडसे हार गया।

गोडसे की क्या हैसियत

गाँधी जी के सामने नाथूराम गोडसे की हैसियत क्या है? इसका अंदाज़ा इस बात से भी चल जाता है कि आज चाहे कोई कितना भी गोडसे भक्त या गाँधी विरोधी क्यों ना हो, वह गोडसे की तारीफ और गाँधी की बुराई नहीं कर सकता है क्योंकि वह ये जानता है कि कातिलों का साथ देने पर या कातिलों की तारीफ करने पर इस देश की जनता उन्हें माफ नहीं कर सकती है।

नाथूराम गोडसे

गाँधी के सामने जिन्ना की यह हैसियत है कि कोई भी हिंदुस्तानी चाहे उसका कोई भी धर्म हो जिन्ना से नफरत करता है लेकिन कोई भी पाकिस्तानी गाँधी से नफरत नहीं करता चाहे उसका धर्म कुछ भी हो।

दुनिया में चाहे स्वर्गीय नेल्सन मंडेला हो, बराक ओबामा हो, डॉ मार्टिन लूथर किंग हो सब गाँधी को मानते हैं ना कि मोहममद अली जिन्ना या नाथूराम गोडसे को। इनके चेले चाहे कितना भी मना कर लें लेकिन वे इस सच को नहीं नकार सकते हैं।

जो अपने दुश्मनों का भी दिल जीत ले वो है महात्मा गाँधी

ब्रिटिश साम्राज्य ने कई सालों तक आधी दुनिया में राज किया। उनके कई दुश्मन बने पर कभी ब्रिटेन ने अपने किसी भी दुश्मन को इतनी इज़्ज़त नहीं दी जितनी इज़्ज़त उन्होंने गाँधी जी को दी।

मुझे फिल्म द लीजेंड ऑफ भगत सिंह का वह सीन याद आता है जब एक ब्रिटिशर कहता है कि “मैं गाँधी जी बड़ी इज़्ज़त करता हूं। सत्य और अहिंसा को अपना हथियार को बनाकर जो लड़े, ऐसा दुश्मन कौन नही चाहेगा”

गाँधी ने अपने दुश्मनों का दिल भी कैसे जीता था, इसका सबसे बड़ा उदाहरण आज ब्रिटिश पार्लियामेंट में दिखता है, जहां सन 2015 में भारत के पूर्व वित्त मंत्री स्वर्गीय अरुण जेटली ने महात्मा गाँधी के पुतले का उद्घाटन किया था। यह पहली बार था जब अपने किसी दुश्मन का पुतला ब्रिटिश पार्लियामेंट के पास लगा, वरना कोई भी देश कभी भी अपने किसी भी दुश्मन की तस्वीर अपने देश में नहीं रखता है। लेकिन अंग्रेज़ों ने उस आदमी की मूर्ति लगाई जो उन लोगों में से एक था, जिसने 33 साल ब्रिटिश शासन की नाक में दम कर रखा था।

गाँधी पर लगे बेबुनियाद आरोप

बहुत लोगों को मैं यह कहते हुए सुनता हूं कि गाँधी ने नेहरू के सामने सरदार पटेल, राजेन्द्र प्रसाद जैसे महानुभाव नेताओं को कम समझ कर उनका अपमान किया पर शायद ये आरोप लगाने वाले ये नहीं जानते हैं किइन दोनों को भारत की आज़ादी की लड़ाई में खड़ा करने वाले भी महात्मा गाँधी ही थे।

एक वक्त ऐसा था जब ये दोनों सियासत में आना ही नहीं चाहते थे। इनकी पहली ज़रूरत अपनी खुद की ज़िंदगी थी। डॉ राजेन्द्र प्रसाद पटना के एक माने हुए वकील थे, जिनकी वकालत का डंका पूरे पटना में बजता था। 1907 की ही बात है, गाँधी के राजनीतिक गुरु प्रोफेसर गोपाल कृष्ण गोखले की मुलाकात राजेन्द्र बाबू से हुई थी।

गाँधी

तब राजेन्द्र बाबू MA कर रहे थे, जो जल्द ही पूरी होने वाली थी। तब प्रोफेसर गोखले ने उन्हें अपनी संस्था सर्वेन्ट्स ऑफ इंडियन सोसाइटी में आने का ऑफर दिया था लेकिन उस वक्त पारिवारिक ज़िम्मेदारी और पढ़ाई का हवाला देते हुए राजेन्द्र बाबू ने आने से मना कर दिया।

फिर 13 साल बाद गाँधी ने आवाहन किया कि सब हिंदुस्तानी अंग्रेज़ों के लिए काम करना छोड़ दें, तो राजेन्द्र बाबू ने अपने भाई और पत्नी को पत्र लिख कर कहा कि मैं भारत की आज़ादी में गाँधी जी के साथ जुड़ना चाहता हूं। कृपया इजाज़त दें।

जब उनकी इजाज़त मिली तब राजेन्द्र बाबू सियासत में आए। सिर्फ राजेंद्र बाबू ही नहीं बल्कि उनके कई मित्र और उनकी तरह पटना के कई माने हुए वकील श्री मज़रुल हक, बिहार केसरी श्री अनुग्रह नारायण सिंह और श्री सचिदानंद सिन्हा भी उनके साथ चल पड़े।

सरदार पटेल अहमदाबाद के माने हुए वकील थे। 1917 में गोधरा में गाँधी जी से एक मुलाकात ने ही उन्हें भारत की अज़ादी का एक सच्चा सिपाही बनाया था। इसका सबसे बड़ा उदाहरण 1918 का खेड़ा सत्याग्रह और फिर 1938 का बारडोली सत्याग्रह बना।

गाँधी की देश भक्ति किसी के प्रमाण की मोहताज ना थी, ना है और ना रहेगी। गाँधी एक इंसान नहीं एक विचार हैं, जो तब तक ज़िंदा रहेंगे, जब तक उन्हें याद रखने वाला एक भी शख्स इस दुनिया में  मौजूद है और उन्हें याद रखने वाले अरबों हैं। उन अरबों को मार पाने की ताकत सिर्फ 3 गोलियों में कहां।

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