मुझको मत बचाना तुम
कितने उदाहरण दूं,
कब तक वही बात मैं दोहराऊं,
ऐसा कौन सा गान,
जिसे मैं गाऊं
कि निस्संदेह हिन्दुस्तानी कह लाऊं।
जाने कौनसी गैल चुनूं,
किस दिशा में जाऊं
कि शक के इस चौराहे पर
फिर दोबारा नहीं मैं आऊं।
सत्तर वर्ष बीत गए,
अब भी शंका बाकी है
भारत वर्ष में कितने रीत रहें,
अब भी आशंका बाकी है।
हुकुमत को चाहिए प्रमाण,
सवाल मत उठाना तुम
चाहे अब पारित हो कोई विधान,
सत्ता को नतमस्तक हो जाना तुम।
सैंतालीस को कहना भूल,
ऐहिकता को ठुकराना
गाँधीजी ना लौटे थे स्वदेश,
ऐसा पाठ पढ़ाना तुम।
शांतिरंग की चादर लेना,
उस पर रक्त बिछाना तुम,
झंडा एक बनाकर, उसको
नये राष्ट्रपिता के हाथों में रख देना तुम।
अनेकता में से एकता हटवा कर,
एकरूपता का मंत्र सिखाना तुम
गर वजह हूं मैं विविधता की,
मुझको मत बचाना तुम।
मेरे अस्तित्व से हैं वे परेशान,
या धर्मांधों के आकर्षण की खातिर
उन्होंने खोजा ये नया समाधान
जो नागरिकता की मांग कर रहे हैं वे निशान
उनके मंसूबों की ढ़ाल बन जाना तुम।
मौजूदगी पर ता-उम्र देता रहूँ सफाई,
ऐसी पंक्ति में मुझको शामिल करना तुम
निर्णायक हो ये संघर्ष तुम्हारा,
ध्रुवीकरण को मूल बनाना तुम
अबकी बार, मुझको मत बचाना तुम।
अश्फाक उल्ला, मौलाना,गफ्फार, कलाम
सबके किस्से दफनाना
मुझको पहले कासिम, गजनी
फिर बाबर की औलाद बताना तुम।
रहे गुलिस्तां में केवल एक रंग,
अब ऐसा राष्ट्र बनाना तुम
भगत सिंह थे नास्तिक,
बेरंग हुए वे तो
लखपत का अंधियारा उन्हें,
फिर दिखलाना तुम।
कोई कितने भी जतन लगाए,
मुझको मत अपनाना तुम
बेचैनी उनको होती है रंगों से,
खुद को भी वर्णान्ध बताना तुम।
देखना मुझे घरों से ले जाते,
गालियों में नज़र चुराना
पर, चौक पर हो इकठ्ठा
तालियां बजना तुम
मुझको मत बचाना तुम।
जब हो जाए गिनती पूरी,
सेल्युलर को खूब सजाना तुम
एक एक कर धकेलना भीतर,
धरती और नर्क को जोड़ता,
द्वार बनाना तुम।
परिवार हुआ मेरा,
तो गिनती कहीं ना बढ़ जाये
जनता का कर कहीं,
नवविधान का ये अवैध,
ना खा जाये
मुझको पहले घर,
फिर परिवार से अलग करना तुम।
बच्चे बचपना ना कर बैठें,
उद्यमी है शोर ना कर बैठें,
ऐतिहातन,
उनको कुछ रोज़ भूखा रखवाना तुम,
ना वाल्मीकि हैं, ना आश्रम है
औरतों को भी,
संकरी कोठरी में बंद करवाना तुम।
फिर मुझको सेलुलर की देकर वर्दी,
नए लोक के कायदे समझना तुम,
जेल में मुफ़्तखोर ना बन जाऊं,
कोई कठिन,
कष्ट देई काम बताना तुम।
शर्त हो अन्न के दाने दाने पर,
संदेश हर दीवार पर लिखवाना तुम
“श्रम उचित रहा दिन में, अगर,
तभी रात का भोजन लेने आना तुम”।
ऐसा हो परिवेश वहां का,
कि काल भी ना लेने आ पाये,
देख कर दुर्दशा मानवता की,
वह भी मन ही मन थर्राये
यह रोज़ देख कर भी,
अनदेखा करना तुम,
मुझको मत बचाना तुम।
काल कोठरी, मैं कब तक सह पाउंगा,
निसन्तान,
बिना वैदेही कैसे चिरकाल बिताऊंगा
एक दिन तोड़ सलाखें,
आज़ादी की ओर कदम बढ़ाऊँगा
नयी सेल्युलर की कूद दिवारें,
हिन्दुस्तान की ओर दौड़ लगाऊंगा
उठाना तुम पिस्तौल वही,
जो गाँधीजी के लहू में रंगी है
हर सके सभी अपवाद,
लौह के उस ढंग की है
पुरानी है, एका एक ना चल पाएगी
मरम्मत कर, पहले उसको ठीक करना तुम।
घृणा को कूट-कूट कर चूरा करना,
नफरत का एक मंजन लेना,
रगड़ रगड़ घिसना चूरे से,
उसको धीरे-धीरे फिर चमकाना तुम।
गोली भरना,
आंख खोलना सिर्फ एक
फिर मेरी रफ्तार भांपना तुम
निशाना रख भारत की ओर,
मुझको भगोड़ा कह, फिर चिल्लाना तुम।
निहत्था जान मुझे,
हाथ तुम्हारे कांपे ना,
व्यर्थ मेरे कारण,
अंतःकरण तुम्हारा जागे ना
“निशाना है हुकूमत का,
तू तो केवल प्यादा है
हुकुम परस्ती ही,
अब तेरी मर्यादा है”
खुद को बार बार,
बस यही याद दिलाना तुम।
फिर, हाथों को करना अचल
जे़हन पर मेरे बुलेट चलाना तुम,
एक अकेली गोली,
मेरे विचारों को आहात न कर पायेगी,
मेरी सोच की गहराई का पता नहीं पायेगी,
दूसरी बार,
फिर और एक बार ट्रिगर दबाना तुम।
इकट्ठा करना सबको,
उनसे शाबाशी पाना तुम
मेरा उपनाम नहीं था कागज़ में,
इसलिये,
मेरी हत्या को वध बतलाना तुम।
सिफारिश लगाना ऊपर तक,
ताकि वीरता पदक हो छाती पर
कोई सही कहे या गलत, पर
मुझको मत बचाना तुम।
मेरे पार्थिव को रखना चौराहे पर,
और जय का जयघोष लगाना तुम।
भव्य बनाना मंच एक,
उसपर काल नचाना तुम,
हो हर्षोल्लास सब ओर,
आयोजन कुछ यूं करवाना तुम।
सब घेर कर शोर मचायें ,
ऐसा माहौल जमाना तुम
नाम भले हो कुछ भी मेरा,
मुझको मत दफनाना तुम,
जो नफ़रत की चिंगारी छिपी हुई है भीतर,
उसको लौ देकर ज्वाला कर लेना तुम
देना मुखाग्नि ऐसी,
कि सिर्फ, राह स्वर्ग की पाऊं,
जाना चाहता हूं बैकुंठ,
कहीं जन्नत में ना खो जाऊँ
अंतिम याचना यह पूरी करना,
ताकि स्वयं श्री राम से मिल पाऊं,
व्योम द्वार पर रहूं पाड़ा
जब तक दर्शन न पा जाऊं,
सवाल जो घूम रहे मन ही मन,
मिलूं स्वयं, जवाब उन्हीं से पाऊँ
भारत माता का,
जो भी हरण करता है,
वह भेष बदल कर,
साधू बनकर जीता है
क्या वानर गण आपको ये ख़बर नहीं देते है,
हनुमान को भेज आप ही क्यों नहीं सुध लेते हैं?
देश की दिशा और दशा देख,
आप क्यों नहीं मृत्युलोक को आते हैं?
क्या है मेरे रक्त में ऐसा,
जिसे बहाकर सब आपको विजयी बताते है?
क्या ऐसा देखा राम राज्य कभी,
जहांं निर्दोषों के बंदी शिविर भी होते हैं?