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यहां पुरुष पानी ढोने के लिए रखते हैं एक से ज़्यादा पत्नियां

कतरा-करता मिलती है

कतरा-कतरा जीने दो

ज़िन्दगी है पीने दो

प्यासी हूं मैं प्यासी रहने दो…

सबसे पहले तो हमें यह फिर से समझना होगा कि पानी के बिना इस धरती पर जीवन संभव नहीं है। जब पानी नहीं था, तब इंसान नहीं था तो अगर पानी नहीं होगा, तो हम भी नहीं होंगे।

कुदरत ने हमें जिन नेमतों से बख्शा है, उनमें पानी काफी अहमियत रखता है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि सदियों से सभ्यता का विकास नदी, तालाब व झीलों के किनारे ही शुरू था, गुलज़ार साहब का कलाम यहां मौजू है-

ओ माझी रे,

अपना किनारा

नदियां की धारा है…

धीरे-धीरे जनसंख्या में इज़ाफा हुआ और हमने पानी की बर्बादी करनी शुरू कर दी। दुनिया के तमाम मुल्कों ने मुख्तलिफ तरीकों से इसमें योगदान दिया। हमें लगने लगा कि गुसलखाने में लगे बम्बे के पीछे कोई खज़ाना है, बस चाबी घुमाई और बेहिसाब पानी हमारी बाल्टी में भरता रहा लेकिन हम भूल गएं कि हमारा मुकाबला कुदरत से है। कुदरत कभी भी हमारे बाल खींचकर कपड़े फाड़ सकती है।

भारत में पानी की कमी और बहु पत्नी प्रथा का संबंध

बात अगर भारत जैसे विकासशील देश की की जाए, तो यहां हालात काफी गंभीर हैं। राजस्थान, महाराष्ट्र, बिहार, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक इत्यादि तमाम राज्यों में पानी को लेकर हाय तौबा मची ही रहती है लेकिन सबसे संजीदा मसला यहां महाराष्ट्र में प्रचलित एक कुप्रथा का है, जिसे हिंदी में ‘बहु पत्नी प्रथा’ और अंग्रेज़ी में Polygamy कहते हैं।

यहां इन औरतों को वॉटर वाइफ या ठेठ बोली में ‘पानी वाली बाई’ कहा जाता है। इन औरतों की हाथों की लकीरें पनघट की रस्सियां खा जाती हैं, जिसकी जितने दावेदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी। पानी की कमी की वजह से सिर्फ पानी ढोने के लिए यहां एक से ज़्यादा पत्नियां रखने का प्रचलन है। अशिक्षा की वजह से ग्रामीण भारत के ये बड़े परिवार पानी के लिए खून तक बहाने को मजबूर हैं।

एक-एक औरत मीलों का फासला तय करके पानी का इंतज़ाम कर पाती हैं। अगर किसी वजह से वह नहीं जा सकीं, तो चूल्हा जलना असंभव। फिर पति अगर निखट्टू निकला तो शामत।

जहां एक ओर यह प्रचलन महिलाओं के प्रति समाज का उदासीन रवैया दिखाता है, वहीं पितृसत्तात्मक मूल्यों को भी बढ़ावा देता है।
नई दिल्ली स्थित संस्था IDEI के एक अनुमान के मुताबिक,

पानी की कमी में कार्बन उत्सर्जन का रोल

समाचार संस्था रॉयटर्स के मुताबिक महाराष्ट्र के तकरीबन 19000 गाँवों में पीने योग्य स्वच्छ जल का संकट मुंह बाए खड़ा है। तलाश करने पर इसकी जड़ें कहीं-ना-कहीं कार्बन उत्सर्जन से उलझी हुई दिखाई पड़ती हैं।

बढ़ता हुआ तापमान वाष्पीकरण की प्रक्रिया को तेज़ कर देता है, जिससे झीलों व ग्लेशियरों में पीने लायक पानी घटने लगता है। कहानी और खराब तब हो जाती है, जब अतिवृष्टि की वजह से बाढ़ आने लगती है। इन सभी समस्याओं के मूल में कार्बन उत्सर्जन कहीं-ना-कहीं शामिल है। कार्बन उत्सर्जन धरती के तापमान को बढ़ाने में अहम भूमिका निभाता है और धरती का बढ़ा तापमान आगे चलकर वाष्पीकरण की प्रक्रिया के लिए ज़िम्मेदार होता है।

जीवाश्म ईंधन का बढ़ता उपयोग और पानी की समस्या

इंटरनेट के ज़माने में कक्षा पांच के बच्चों को भी पता होता है कि ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन जीवाश्म ईंधन की बेतहाशा उपभोग से होता है, जो धरती का तापमान बढ़ाने में अहम भूमिका निभाता है।

जीवाश्म ईंधन का उदाहरण प्राकृतिक गैस, करोड़ों वर्ष पहले निर्मित हुए हैं, जो मुख्यतः नदी या झील के बहुत नीचे होते हैं। यह उच्च ताप और दाब के कारण ईंधन बन जाते हैं। हम वाहनों में धड़ल्ले से जीवाश्म ईंधन का उपयोग कर रहे हैं, जो पृथ्वी के तापमान बढ़ाने का काम कर रहा है। परिणाम, प्रदूषण और जलवायु परिवर्तन के रूप में देखने को मिल रहा है। इसके परिणाम में कुछ स्थानों पर अधिक बारिश और कुछ स्थानों पर सूखे की स्थिति देखने को मिल रही है।

इसके साथ ही ऊर्जा के निर्माण में पानी का धड़ल्ले से उपयोग हो रहा है। कई ऊर्चा के स्त्रोत की निर्माण प्रक्रिया में भाप प्रक्रिया का इस्तेमाल होता है, जिसमें बड़ी मात्रा में पानी को भाप बनाया जाता है और इस तरह पानी का धड़ल्ले से दोहन होता है, इसका उदाहरण- हाइड्रो पावर जैसे ऊर्जा के स्त्रोत हैं।

हमने इतना पानी पी लिया है कि अब हमारे पेट में मरोड़ उठने लगी है और डकार से कार्बन निकलने लगा है। दिन-ब-दिन कार्बन उत्सर्जन पानी सोखता जा रहा है। ज़मीन के नीचे दफन पानी की कब्र हमने ज़मीन के ऊपर बना दी है।

सरकारें अपने पिटारों में हर गैर ज़रूरी वादों का गुच्छा लिए घूमती हैं लेकिन मजाल है कि बिजली, पानी, सड़क, साफ हवा वगैरह-वगैरह पर कुछ सिक्के गिरा दें। फिलहाल हमारे कानों पर जूं रेंग नहीं रही है, रहा सवाल अपने मुस्तकबिल का तो भई अगली पीढ़ी है ही बोटी का बकरा बनने के लिए।

This post has been written by a YKA Climate Correspondent as part of #WhyOnEarth. Join the conversation by adding a post here.
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