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कैसे आरक्षण एक मूल अधिकार ना होते हुए भी संविधान के मूल में समाया है?

सुप्रीम कोर्ट के एक ताज़ा फैसले ने सरकारी नौकरियों में आरक्षण के मूल प्रावधान पर सवालिया निशान लगा दिया है। कोर्ट ने कहा है कि नौकरियों में आरक्षण कोई मूलभूत अधिकार नहीं है और अगर सरकार ने नौकरियों में और पद्दोनीतियों में आरक्षण नहीं दिया है, तो उसे आरक्षण देने पर बाध्य नहीं किया जा सकता है।

कोर्ट ने यह भी कहा कि राज्य सरकार चाहे तो अनुचित जाति और जनजाति को आरक्षण देने से इनकार भी कर सकती है और यह पूर्णतः सरकार के विवेक पर निर्भर है। इस फैसले ने भारत में आरक्षण के मूल संवैधानिक प्रावधान पर सवाल खड़ा कर दिया है।

आरक्षण के लिए प्रदर्शन

कहीं स्पष्ट नहीं है कि आरक्षण एक मूल अधिकार है

भारतीय संविधान के तीसरे भाग के Article 16 (4) के तहत नौकरियों में आरक्षण सम्बंधित प्रावधान हैं लेकिन पूरा का पूरा भाग 3 ही मूल अधिकारों से संबंधित है, इसलिए मान लिया जाता है कि आरक्षण एक मूल अधिकार है।

वैसे तो यह कहीं स्पष्ट नहीं है कि आरक्षण एक मूल अधिकार है, परन्तु आप संविधान की उदार व्याख्या करें तो समझेंगे कि आरक्षण का अधिकार बराबरी के अधिकार में निहित है और आरक्षण बराबरी के लिए अपवाद नहीं, बल्कि बराबरी का ही विस्तार है।

पूरा विपक्ष (काँग्रेस सहित) आरक्षण के मुद्दे पर भाजपा सरकार की नीयत पर सवाल खड़े कर रहा है लेकिन इस मामले की तह तक जाएं, तो यह मामला सिवाए राजनीति के कुछ भी नहीं है।

आरक्षण ना देने के फैसले की पृष्ठभूमि

यह मामला 2012 में उत्तराखंड सरकार द्वारा लिए गए एक फैसले से संबंधित है। तात्कालिक काँग्रेस सरकार ने यह फैसला लिया कि राज्य में जन-सेवाओं के सारे पद पर उम्मीदवारों को कोई भी आरक्षण दिए बिना भरे जाएंगे।

हाई कोर्ट ने जब सरकार के इस फैसले को रद्द करने का आदेश दिया, तो इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने वाली सरकार भाजपा की थी। यानि दोनों ही मौकों पर आरक्षण नहीं देने का फैसला करने वालों में भाजपा और काँग्रेस दोनों शामिल हैं।

आरक्षण की मांग

राजनीतिक फायदे और नुकसान के लिहाज़ से देखा जाए, तो आरक्षण एक संवेदनशील मुद्दा है। सुप्रीम कोर्ट में मुकदमा जीतने वाली उत्तराखंड की सरकार भाजपा की है। यह एक ऐसा मुकदमा होगा जिसके जीतने से भाजपा सरकार ठीक से खुश भी नहीं हो पा रही होगी।

सड़क से लेकर संसद तक आंदोलन

भाजपा के घटक दलों ने जिस प्रकार से लोक सभा और राज्य सभा में इस फैसले के खिलाफ मोर्चा खोला है, उससे यह बात तो तय है कि केंद्र सरकार के पास विकल्प बहुत सीमित हैं।

जो विकल्प सरकार के पास बचे हैं, उनमें से पहला विकल्प यह है कि सरकार सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले को चुनौती दे, परन्तु इस रास्ते में एक पेंच भी है। कोर्ट ने यह कहा है कि अगर सरकार आरक्षण नहीं देना चाहती है, तो आंकड़ों की शक्ल में पुख्ता आधार पेश करे।

राष्ट्रीय जनता दल ने केंद्र सरकार से आग्रह किया है कि सरकार कोर्ट के इस फैसले के खिलाफ कोई कदम उठाए, नहीं तो वे सड़क से लेकर संसद तक आन्दोलन करेंगे।

इस मामले में सरकार की राय भी विभाजित है। भाजपा की घटक दल लोक जनशक्ति पार्टी ने भी इस फैसले का विरोध किया है। केंद्र सरकार इस मुद्दे को लेकर सावधानी बरत रही है। लोक सभा में बयान देते सामाजिक न्याय मंत्री थावरचंद गहलोत ने सिर्फ इतना कहा है कि भारत सरकार इस पर उच्च स्तर पर विचार कर समुचित कदम उठाएगी।

अब आगे यह देखना दिलचस्प होगा कि केंद्र सरकार सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के खिलाफ याचिका दायर करती है या नहीं।

मज़बूत हो चुकी जनजाति अवसरों को हथिया रही है

पिछले कुछ वर्षों के अंदर जनजाति वर्ग के अंदर एक ऐसा वर्ग खड़ा हो चुका है, जो क्रीमी लेयर में आ चुका है। अन्य पिछड़े वर्ग के लिए तो क्रीमी लेयर का प्रावधान है, प्रांत अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है।

अब यह आम शिकायत है कि शैक्षणिक रूप से मज़बूत हो चुकी जनजाति आबादी अब भी मिलने वाले अवसरों को हथियाते जा रहे हैं। लेकिन मुश्किल यह है कि राजनीति के चलते इस बारे में ना कोई राजनीतिक दल सवाल करता है और ना तो कोई नेता।

अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और आरक्षण का लाभ ले रहे तबके के बारे में एक विस्तृत अध्ययन किए जाने की ज़रूरत है। ताकि यह साफ हो सके कि आरक्षण का वास्तविक लाभ शोषित वर्ग को मिल भी रहा है या नहीं। तब जाकर ही पूरे समाज को राष्ट्र की मुख्यधारा में लेन में मदद मिलेगी, जो आरक्षण की मूल भावना भी है।

 

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