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LGBTQ+ समुदाय ने हर तरीके से मुहब्बत के मायने समझाएं हैं

जब कोई इंसान समान लिंग के इंसान के प्रति यौन और रोमांचपूर्वक रूप से आकर्षित होते हैं तो वह समलैंगिकता कहलाए जाते हैं। पुरुष जो अन्य पुरुषों के प्रति आकर्षित होते है उन्हे ‘गे’ और महिला जो अन्य महिला के प्रति आकर्षित होती है उन्हें ‘लेस्बियन’ कहा जाता है। जो महिला और पुरूष दोनों के प्रति आकर्षित होते है उन्हें ‘ उभयलिंगी या बायसेक्शुअल’ कहा जाता हैं।

लेस्बियन, गे, ट्रांसजेंडर , बायसेक्सुअल लोगो को मिलाकर LGBT समुदाय बनता है। एक ऐसा समुदाय जिसने समाज में अपनी पहचान बनाने के लिए बहुत संघर्ष किया और अभी भी यह संघर्ष जारी है।

समलैंगिकता और इतिहास

खजुराहो मंदिर की मूर्तियां।फोटो साभार: सोशल मीडियाअधिकतर लोगों का कहना है कि ये विषय अभी कुछ दशक में ही भारत में आया इससे पहले ये अस्तित्व में ही नहीं था ।जो पूर्ण रूप से सही नहीं है क्योंकि प्राचीन काल(1526 ई.-1858 ई.) की कई मुर्तिया( खजुराहो मंदिर), पुस्तकें, और बहुत सी नकाशिया समलैंगिक गतिविधियों के बारे में बताती है ।

जो ये साबित करता है कि ये कोई पश्चिमी सभ्यता से अपनाया हुआ विषय नहीं है समलैंगिकता प्राचीन काल से भारत की सभ्यताओ में था। 1858 ई. के बाद जब अंग्रेज़ो ने भारत में अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया उसके बाद से ही आधिकारिक रूप से समलैंगिकता को आपराधिक आरोप माना जाने लगा। 1860 में धारा ‘377’ लागू किया गया।

इस कानून के अनुसार “जो व्यक्ति अपनी इच्छा से किसी आदमी -औरत या जानवर के साथ अनैसर्गिक शारीरिक संबंध रखेगा उसे आजन्म कारावास की सज़ा या दस वर्ष का कैद भी हो सकता है”। उस समय लोगों में जागरूकता कम थी इसलिए मजबूरन लोगों को ये कानून मानना पड़ा। उस समय बहुत लोगों के ऊपर इस कानून का दुरुपयोग भी किया गया।

बीसवीं सदी में समलैंगिकता पर प्रकाश डालने वाली किताबें और नाटक

इस्मत चुगताई द्वारा लिखी गई किताब “लिहाफ़” फोटो साभार : सोशल मीडिया

समलैंगिकता का विषय मुख्य रूप से चर्चा में बीसवीं सदी के बाद आया। इस समय बहुत सी शानदार किताबे और नाटक लिखे गए ।जिनमें समलैंगिकता का वर्णन किया गया।

1941 में आई ‘इस्मत चुगताई’ की उत्कृष्ट रचना “लिहाफ़”(इसी कारण से ये पुस्तक काफ़ी विवादों में भी घिरा रहा), 1978 में ‘शकुंतला देवी’ द्वारा लिखी गई पुस्तक “द वर्ल्ड ऑफ बायसेक्शुअल” पहली ऐसी पुस्तक जिसने भारत में इस विषय पर गंभीर रूप से प्रकाश डाला।

1981 में ‘विजय तेंदुलकर’ द्वारा लिखा गया मराठी नाटक “मित्राची गोश्त”(लेस्बियन थीम प्ले), 1985 “अनामिका” आदि जैसी गाथाओं और किताबों ने , ना केवल समलैंगिकता को गंभीरता से लोगों के सामने रखा बल्कि इसके कारण इस समुदाय को कितना भेदभाव , कष्ट झेलना पड़ता है यह भी बताया।

समलैंगिकता कोई मानसिक विकार नही

समलैंगिकता को पूरे विश्व में लोग अप्राकृतिक और एक मानसिक विकार के तौर पर देखते थे। 1973 में अमेरिकन मनोवैज्ञानिक संस्था ,1992 में WHO( विश्व स्वास्थ्य संगठन) ने इस बात की पुष्टि की यह एक मानसिक रोग नहीं है। व्यक्ति विशेष का यह निजी फैसला हैं कि वो किसके प्रति आकर्षित होते है यह किसी भी प्रकार का मानसिक विकार और अप्राकृतिक नहीं है।

T.S Satyanarayan Rao, K.S. Jacob(Department of Psychiatry,JSS Medical college, Mysore, Karnatak, Department of Psychiatry, Christian Medical college , Vellore, India) ने अपने रिपोर्ट(होमोसेक्शुएलिटी एंड इंडिया) में बताया कि मानव लैंगिकता बहुत जटिल और विविध है।

उन्होंने कहा,

समलैंगिगता किसी प्रकार का मानसिक रोग नहीं है लेकिन ऐसा होने से समाज इस समुदाय के लोगो के पहचान पर सवाल  उठाती है। जिससे अधिकतर समलैंगिक लोगों को मानसिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। उन्होंने यह भी कहा ‘ हमें उनकी यौन अभिविन्यास के बजाय लोगों की मानवता पर ध्यान देने की आवश्यकता है’।

पहचान की लड़ाई

1980 के बाद से समलैंगिकता भारत में ‘पहचान का विषय’ बन गया। इसको अप्राकृतिक के साथ अपराध भी माना जाता था और जो व्यक्ति समलैंगिक होता था उससे लोग घृणा करते थे। इसी डर से व्यक्ति समाज में अपनी पहचान छुपाते थे पर नब्बे के दशक से लोगो में ये डर धिरे-धीरे खत्म होने लगा।

समलैंगिकता अवैध और आपराधिक दोष न माना जाए इसके लिए लोगों ने धारा 377 के विरुद्ध बगावत शुरू कर दिया। बहुत से संस्थाओ,सरकारी गैर सरकारी संगठनों (नाज़ फाउंडेशन, नेशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गनाइजेशन, लॉ कमीशन ऑफ इंडिया, नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन ऑफ इंडिया आदि)ने LGBTQ+ समुदाय का इस लड़ाई में साथ दिया।

2001 में समलैंगिक लोगों के लिए आवाज़ उठाने वाली संस्था नाज़ फॉउंडेशन की ओर से धारा 377 को हटाने के लिए हाई कोर्ट में जनहित याचिका दाखिल किया गया। कहा गया कि यह कानून संविधान के आर्टिकल 14-15(समानता का अधिकार), आर्टिकल 19(अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) और आर्टिकल 21(जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता) की अवहेलना करता है।

12 सालों के अथक प्रयासों के बाद इस मामले में रोजाना सुनवाई शुरू की गई। 11 दिसम्बर 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने फिर से इसे अपराध करार दिया। फिर इस आदेश पर रिव्यु पेटिशन डाला गया और आखिरकार 6 सिंतबर 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला लिया और कहा कि समलैंगिकता कोई अपराध नहीं है और धारा 377 को खारिज कर दिया गया।

सुप्रीम कोर्ट के बेंच में शामिल ‘जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़’ ने कहा “भारत के यौन अल्पसंख्यक नागरिकों को छुपाना पड़ा, LGBT समुदाय को भी दूसरों की तरह समान अधिकार है, यौन प्राथमिकता के अधिकार से इंकार करना निजता के अधिकार को देने से इंकार करना है”।

पहचान की लड़ाई में इस समुदाय के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा कई ऐतिहासिक फैसले लिए गए 15 अप्रैल 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया की अब से सभी आधिकारिक दस्तावेजों में पुरुष -महिला के साथ तीसरा लिंग भी शामिल होगा । ये फैसला ऐतिहासिक था क्योंकि पहली बार LGBT समुदाय को आधिकारिक तौर पर पहचान मिली।

मदुरई में आयोजित की गई प्राइड परेड। फोटो साभार: सोशल मीडिया

377 को हटाने के संघर्ष के दौरान पूरे देश में LGBT की क्रांति फैली थी । लोगों को साथ जोड़ने और अपने आप को प्रकट करने के लिए LGBT समुदाय ने कई प्राइड परेड निकाले। 29 जुलाई 2012 को मदुरई में पहली बार LGBTQ रेनबो फेस्टिवल मनाया गया। उसके बाद चण्डीगढ़ 2013 , गुजरात में अक्टूबर 2013, राजस्थान मार्च 2015 आदि जगह प्राइड वॉक हुई जिससे पूरे देश को इस आंदोलन से जोड़ा गया।

377 के हटने के बाद समलैंगिक समुदाय द्वारा निकाली गई प्राइड परेड। फोटो साभार: सोशल मीडिया

व्यक्ति की पहचान उसके कार्यो से होनी चाहिए लिंग से नहीं और व्यक्ति किसे अपना साथी बनाना चाहता है, यह उसका निजी निर्णय है और कोई भी निर्णय अप्राकृतिक नहीं हो सकता क्योंकि “love is love”। यह बात LGBTQ+ समुदाय को समझाने में कई साल लग गए।

आज भी इतने संघर्षों के बाद इस समुदाय को वो इज़्ज़त नही मिलती जो हर व्यक्ति का अधिकार है। जब हम हमारे आस पास देखते है ,तो ज़मीनी हकीकत मालूम पड़ती है। भले ही सरकार अब इस समुदाय पर विशेष ध्यान देने लग गई है इनके हित के लिए कई कार्य शुरू कर दिए है पर जिस इज़्ज़त और सम्मान के लिए इन्होंने इतना संघर्ष किया क्या आज भी समाज उनको वो प्रदान करता है? क्या आज भी समाज बिना झिझक के समलैंगिकता को अपनाता है?

आधिकारिक तौर पर यह जंग जरूर जीत ली गई है परंतु सामाजिक तौर पर अभी भी बहुत संघर्ष करना है। जिस दिन समाज में इनको अपनी पहचान छुपानी ना पड़े। इनकी पहचान इनके कार्यो से हो लिंग से न हों और जिस दिन ऐसा सम्भव हो जाएगा समाज इनको बिना झिझक के और पूरे इज्ज़त के साथ अपना लेगा और उस दिन असल मायने में इस समुदाय की जीत होगी।

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