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“जामिया की लाइब्रेरी में बैठे स्टूडेंट्स के पास दुनिया का सबसे धारदार हथियार था”

आज सुबह जब फेसबुक खोला तो देखा कि दिल्ली पुलिस द्वारा जामिया के स्टूडेंट्स पर किये हमले का वीडियो ताबतोड़ वायरल हो रहा है। अलग-अलग कैप्शन के साथ इस वीडियो को शेयर किया जा रहा है। कोई कहता है कि “ये फासीवाद की चरम सीमा है”, तो कोई बताता है कि “किस तरह गाँधी के देश में हिंसा आम बात हो गई है”।

एक महाशय इस वीडियो को देखकर काफी उत्साहित हैं, उनका कहना है कि “जिहादियों के साथ ऐसा ही होना चाहिए” और वहीं कुछ दिल्ली पुलिस के कृत्य को देखकर आक्रोशित भी दिखे।

हम सभी जानते हैं  कि दिल्ली पुलिस, केंद्र सरकार या यूं कहें कि मोदी सरकार के अंतर्गत कार्य करती है, जिसमें राज्य सरकार का ज़्यादा बस नहीं चलता है। इसलिए केजरीवाल सरकार के लोग शायद इस बात से आश्वस्त हों कि इसमें उनका कोई लेना देना ही नहीं है।

स्टूडेंट्स निहत्थे नहीं थे

खैर, उन सभी में कुछ ये भी सवाल कर रहे हैं कि कैसे दिल्ली पुलिस “निहत्थे” स्टूडेंट्स पर निर्दयता से लाठियां बरसा रही है। उनसे मैं यह पूछना चाहता हूं कि आप क्या उम्मीद करते हैं, छात्र लाइब्रेरी में AK47 लेकर बैठेंगे?

छात्र लाइब्रेरी में पढ़ने लिखने आते हैं इसलिए आपका यह दावा बिलकुल गलत है कि छात्र निहत्थे थे। मेरे विचार में उन स्टूडेंट्स के पास वह हथियार था, जिसकी धार दासता की सलाखों को काट देती है।

बाबा साहब अंबेडकर ने इसी हथियार के बल पर उन आडम्बरों और अन्याय को चुनौती दी, जिसका शायद आज भी देश में पवित्र परंपरा के तौर पर पालन किया जा रहा है।

यह हथियार वही है जिसके दम पर महात्मा ज्योतिबा फुले ने सत्य शोधक समाज की स्थापना की और सावित्री बाई फुले ने इसी हथियार को महिलाओं तक पहुंचाया, ताकि वे अपने अधिकारों को जान पायें और समानता की भावना का एहसास कर पाएं।

ये हथियार थामे थे स्टूडेंट्स

ये हथियार हैं “किताबें”, जो आम तौर पर लाइब्रेरी में लोग लेकर बैठते हैं। वीडियो में भी एक छात्र अपने हाथ में किताब दिखाकर, पुलिस से बचाव करता दिखाई दिया। उसके हाव-भाव से ऐसा लगा जैसे वह बोल रहा हो कि “मैनें क्या किया? मैं केवल पढ़ ही तो रहा हूं”।

पर लगता है जैसे वह छात्र यह नहीं जानता होगा कि मनुवादियों को उनसे इतनी परेशानी नहीं है जो सड़कों पर नारे लगा रहे हैं, बल्कि ज़्यादा परेशानी उनसे है, जो चारदीवारी के बीच बैठकर पढ़ते-लिखते हैं।

ये परंपरा पुरानी है। इसके प्रमाण हमें मनुस्मृति में भी मिलते हैं, जिसमें एक खास वर्ग के पुरुषों के आलावा बाहुल्य पुरुषों व स्त्रियों को पढ़ने लिखने का अधिकार नहीं था।

खैर, उस काल में इन कानूनों को तोड़ने की सज़ा और भी बर्बर हुआ करती थी। जो भी हो, शिक्षित वर्ग के प्रति सरकार के व्यवहार को देखकर लगता हैं कि “मनुस्मृति” में लिखी उन बातों ने आधुनिकता पा ली हैं, जबकि उनका सार वही पुराना है और उद्देश्य भी।

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