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“हम गाँधी के विचारों को काफी पीछे छोड़ चुके हैं”

जामिया में गोली चली

जामिया में गोली चली

अभी हाल ही में हमने गाँधी की पुण्यतिथि के रोज़ अहिंसा के नाम पर बड़ी-बड़ी बातें की मगर क्या वाकई में गाँधी जी के बताए रास्ते पर चलने के लिए हम तैयार हैं? इस देश का राजनीतिक और सामाजिक आदर्श 30 जनवरी, 1948 को अपने तमाम स्वप्न अधूरे छोड़कर और आहत होकर इस दुनिया से चला गया था।

आज के दौर में जब यह तारीख फिर से सामने आती है, तो बुनियादी सवाल यह उठता है कि क्या गाँधी ने इसी देश की कल्पना की थी? हालांकि अगले ही क्षण दिखता है कि वैमनस्यता तो स्वयं गाँधी भी देख चुके थे, फिर भी एक बार को लगता है कि ‘रामराज्य’ यह तो नहीं था।

क्या भारत अहिंसा का देश है?

महात्मा गाँधी। फोटो साभार- सोशल मीडिया

वर्तमान ‘रामराज्य’ तो गाँधी के ‘रामराज्य’ की तुलना में कहीं भी नहीं है। गाँधी के मूलभूत दर्शन में सत्य और अहिंसा सदैव केंद्र में रहे। असहयोग आंदोलन जब देश भर के लोगों का समर्थन प्राप्त कर रहा था, उस दौरान भी ‘चौरी-चौरा’ वाली घटना के बाद उनका आंदोलन वापस ले लेना उस मूलभूत सिद्धांत की आत्मा को बचाने जैसा था।

परन्तु समकालीन भारतीय सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य में क्या यह कहा जा सकता है कि भारत अहिंसा का देश है?

थोड़ा रुककर सोचने पर मालूम होता है कि हम गाँधी के विचारों को काफी पीछे छोड़ चुके हैं। एक के बाद एक घट रही घटनाएं हमें आदिम अवस्था की ओर धकेलने के अलावा कुछ नहीं कर रही हैं।

मॉब लिंचिंग की घटना हो अथवा किसी आरोपी को भीड़ द्वारा मार दिया जाना हो, फेक एनकाउंटर की घटना हो या विश्वविद्यालयों के भीतर सरकार के आदेश पर हिंसात्मक गतिविधियों को अंजाम देना हो, यह सब इस बात को और अधिक पुख्ता करता है कि हम अहिंसात्मक देश में नहीं रहते।

इस देश में राष्ट्रीय राजधानी में स्थित एक विश्वविद्यालय में शांतिपूर्ण प्रोटेस्ट के दौरान छात्रों पर पुलिस भीषण लाठीचार्ज और आंसू गैस के गोले छोड़ती है, वहीं उसी जगह फिर से एक प्रोटेस्ट के दौरान कट्टा लहराते और ‘तुम्हें आज़ादी दूं’ जैसे नारों के बीच पुलिस कुछ नहीं करती है। इसी बीच एक स्टूडेंट चोटिल हो जाते हैं।

न्याय के नाम पर रेप सर्वाइवर के साथ ठगी

कुलदीप सेंगर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

इस देश में रेप के आरोपी, सर्वाइवर के घर वालों को मार-पीट कर परेशान कर रहे हैं मगर न्याय के नाम पर उनके साथ सिर्फ ठगी हो रही है, क्योंकि आरोपी की राजनीतिक साख मज़बूत है। वहीं, दूसरी ओर इस देश का एक धड़ा ‘त्वरित निर्णय’ पर जश्न में डूबा हुआ है।

यहां राजनीतिक गतिविधियों में संलग्न लोग ‘देश के गद्दारों को-गोली मारो सालों को’ जैसे नारे लगाकर चले जाते हैं और दूसरे लोग उनको डिफेंड करने में लग जाते हैं। इसी दौरान उनके समर्थक लाठी, डंडे, गुंडे, कट्टा लेकर यूनिवर्सिटीज़ में घुस जाते हैं और आज़ादी देने की हिमाकत करने लगते हैं।

लिंचिंग को जायज़ ठहराने वालों के लिए देश में यदि गाँधी को याद करने के दिन गोडसे को याद किया जाए, तो निश्चित रूप से कोई बुराई नहीं है, बल्कि समझना पड़ेगा कि यह लम्बे समय तक मीडिया व समाज की उपेक्षा का परिणाम है।

आंदोलनों और शांतिपूर्ण जमावड़ों को सरकारी तंत्र वाला तितर-बितर करते हुए, निर्दोष लोगों पर लाठीचार्ज और देशद्रोह का मुकदमा लगाया जाना साफ तौर पर स्पष्ट करता है कि हम अहिंसात्मक देश में नहीं रहते हैं।

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