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“कौन तय करेगा कि दिल्ली की जनता समझदार है और बिहार की नहीं”

मनोज तिवारी और अरविंद केजरीवाल

मनोज तिवारी और अरविंद केजरीवाल

अब तक हुए सभी चुनाव अमूमन चर्चा में रहे हैं मगर दिल्ली के चुनावों को लोगों ने विशेष तवज्जो दी है। इस चुनाव की एक खास बात रही कि इसमें कहीं ना कहीं शिक्षा और स्कूलों की बात घेरे के आसपास चक्कर लगा गई।

यकीनन यह सुखद है लेकिन इस चुनाव के बहाने, शिक्षा, शिक्षित और अशिक्षित की अवधारणा की पड़ताल करने पर हमें उत्साहित होने के कम ही अवसर मिलेंगे।

चुनाव में बीजेपी समर्थकों से कोई उम्मीद करना विशुद्ध बेवकूफी ही होती मगर जिन चुनावी पार्टियों के लोग भाजपा के विरोध में थे, चाहे केजरीवाल समर्थक हों या काँग्रेस के समर्थक, उनकी बातें यही संकेत देती हैं कि चुनाव आते-जाते रहेंगे, पार्टियों की हार-जीत होती रहेंगी मगर देश में जो वर्चस्ववादी वर्गों के मूल्य हैं, वे अक्षुण्ण रहेंगे।

भारत जैसे देश में अशिक्षित कौन हैं?

अरविंद केजरीवाल। फोटो साभार- सोशल मीडिया

शिक्षा का मुद्दा केंद्र में रहना चाहिए मगर शिक्षा से जुड़े मुल्यों और बहसों पर कभी बात ही नहीं होती है। मसलन, आप समर्थकों का कहना है कि दिल्ली को पढ़ा-लिखा मुख्यमंत्री चाहिए, अनपढ़ जाहिल लोग देश को बर्बाद कर देते हैं। भाजपा अनपढ़ों की पार्टी है, जो खुद अनपढ़ हैं, वे शिक्षा का महत्व क्या जानेंगे?

जो लोग खुद को बदलाव के लिए काम करने वाला बताते हैं, वे लोग भी मोदी, योगी और भाजपा के ज़रिये अशिक्षित लोगों के लिए अपनी धारणा प्रतिबिंबित कर रहे हैं।

भारत जैसे देश में शायद उन्हें ही अशिक्षित का तमगा दिया जाता है, जो देश की मेहनतकश आबादी का बड़ा हिस्सा हैं, जो गरीब हैं, जिनमें दलित, मुस्लिम और आदिवासी जैसे हाशिए पर खड़े लोग शामिल हैं जिन्हें शिक्षा से वंचित रखा गया है।

अशिक्षित होना किसी का भी स्वैच्छिक चयन नहीं होता है मगर जिस तरह लोग इन्हें बार-बार अनपढ़-जाहिल कह रहे हैं, वह बताता है कि जिन्हें शिक्षा सहज ही उपलब्ध है, उन्हें पता ही नहीं चल पाता कि स्कूल जाना और शिक्षा पूरी करना एक प्रकार का विशेषाधिकार है।

अगर कोई अशिक्षित है, तो इसके लिए राज्य अपराधी है

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

ऐसा लगता है जैसे लोग आसानी से अशिक्षित लोगों को अनपढ़, जाहिल और बेवकूफ बताकर उन्हें कमतर साबित करने में एक प्रकार के आनंद का अनुभव करते हैं। गाहे-बगाहे अलग-अलग मौकों पर अलग-अलग तरीकों से अशिक्षित लोगों का उपहास करके, उन्हें कमतर साबित करके, लोग राज्य को बेदाग बरी कर देते हैं।

राज्य पर कभी आरोप नहीं लगता है कि किस प्रकार उसने अपनी षड्यंत्रकारी नीतियों, कार्यक्रमों और तमाम तरीकों से लगातार इतनी बड़ी आबादी को शिक्षा प्राप्त करने से वंचित रखने की कोशिश की है। जब तक अशिक्षित रहना किसी का स्वैच्छिक चयन ना हो, तब तक उसके अशिक्षित होने के लिए राज्य अपराधी है।

इन चुनावों में कई बार दिल्ली की जनता की तुलना बिहार की जनता से करके बताया जाता रहा है कि दिल्ली की जनता पढ़ी-लिखी है, इसलिए समझदार है लेकिन पढ़े-लिखे होने और समझदार या तार्किक होने को एक समान समझना कम-से-कम अपने देश मे मूर्खतापूर्ण ही है।

हमारी शिक्षा व्यवस्था ने प्रचलित मान्यताओं, मूल्यों और विश्वासों को चुनौती देने का काम कभी नहीं किया है। ऐसा तय नहीं है कि पढ़-लिख लेने से लोगों में साम्प्रदायिकता, जातिवाद और गैरबराबरी में विश्वास कम हो जाए।

फिर भी कभी जनता के बहाने, तो कभी नेता के बहाने अशिक्षित लोगों को निम्न दर्जे़ का व्यक्ति साबित करने में कहीं कोई देरी नहीं की जाती है और भाजपा जैसी ज़हरीली विचारधारा रखने वाली पार्टी के कोर वोटर कौन हैं, ये उच्च जाति और उच्च वर्ग समूह से ताल्लुक रखता है, जिसका देश के सभी बड़े सत्ता प्रतिष्ठानों पर कब्ज़ा है।

ये सबसे पढ़े-लिखें लोगों में से हैं, जो गैर-बराबरी में इस हद तक यकीन रखते हैं कि बराबरी का सपना भी इन्हें डरावना महसूस होता है। ये लोग अशिक्षित नहीं हैं। जो लोग मेहनतकश हैं और जिनके शोषण की बुनियाद पर यह सारी व्यवस्था टिकी हुई है, उन्हें बार-बार कमतर साबित करने का प्रयास किया जाता है।

जो लोग इनकी मेहनत की कीमत पर जीवन की सारी सुविधाओं का उपभोग कर रहें हैं, उन पर हमेशा चुप्पी यही बताती है कि शिक्षा को बहस का केंद्र बनाए जाने की आवश्यकता तो है मगर उससे भी पहले और उससे भी ज़रूरी है कि शिक्षा, शिक्षित और अशिक्षित जैसे मूल्यों पर बहस कर इनका फिर से परिक्षण कर इन्हें पुनर्परिभाषित किया जाए।

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