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“मेरे माता-पिता के इंटर कास्ट प्रेम विवाह से मैंने क्या सीखा”

प्रतीकात्मक तस्वीर।

प्रतीकात्मक तस्वीर।

1980 के दशक के कहीं बीच में मेरी माँ, जो कि एक बड़े शहर में रहती थी, अपनी एक सहेली के साथ रात को बाहर गई। दरअसल, माँ की वह सहेली अपने किसी जान- पहचान वाले लड़के के साथ मेरी माँ को सेट करना चाहती थी। वो लड़का अपने रूम-मेट को भी साथ ले आया था।

शायद मोरल सपोर्ट के लिए या फिर इसलिए कि दोनों लड़के एक-एक लड़की के साथ डेट कर पाएं। मेरी माँ को वह लड़का तो पसंद नहीं आया मगर हां उसका रूम-मेट काफी प्यारा लगा।

मेरी माँ ने अपनी सहेली को कहा कि वह उस रूम-मेट तक यह बात पहुंचा दे कि वो उससे किसी कैफे में मिलना चाहती है और बस दो हफ्तों में ही, वे दोनों एक-दूसरे को समझने लगे, प्यार करने लगे और उन्होंने शादी करने का फैसला भी कर लिया।

प्यार में अंधे, दोनों यह सच्चाई नहीं देख पाए कि वे अलग-अलग जाति, समुदाय और देश के अलग हिस्सों से आते हैं और यह भी कि मेरी माँ उम्र में पापा से बड़ी थी। ये सब चीज़ें उनके लिए कोई मायने नहीं रखती थीं लेकिन मेरी माँ के माता-पिता उस समय आग-बबूला हो गए, जब उन्हें यह पता चला कि मेरी माँ किसी दूसरी जाति के लड़के को डेट कर रही है।

मेरी नानी रोने लगी, नाना ने धमकी दी कि अगर मेरी माँ का बॉयफ्रेंड कभी भी उनके घर आया, तो वो उसे गोली मार देंगे। (वो यूं ही नहीं कह रहे थे, उनके पास बंदूक थी) मेरी नानी ने मेरी दादी से मुलाकात की और उन्हें मनाने की कोशिश की कि वह इस शादी के लिए ना कर दें।

मुझे पता चला कि मेरी दादी इस रिश्ते से खुश नहीं थीं, फिर उन्होंने ऐसा कुछ कहा जो आज उनके गुज़रने के 15 साल बाद भी मेरे दिल को छू जाता है। (जबकि उनके साथ जुड़ी यादें बहुत अच्छी नहीं रही हैं।) उन्होंने कहा था, “हम अपने बेटे को खोना नहीं चाहते हैं।” मेरी माँ के माता-पिता को शायद ऐसा कोई डर नहीं था। उन्होंने मेरी माँ को परिवार से अलग कर दिया।

कैसे गुज़रा मेरा बचपन?

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Vi

जब मैं छोटी थी, मैंने अपना बचपन मानो एक अजीब से दोतरफा माहौल के बीच में बिताया। माहौल का एक हिस्सा मेरे दादा-दादी के साथ था, जो हमारे ही साथ रहते थे और मेरा काफी ख्याल रखते थे लेकिन मेरी माँ को लेकर काफी मतलबी थे और उन पर अत्याचार भी करते थे।

दूसरा हिस्सा मेरे नाना-नानी थे, जो अपनी गैर-मौजूदगी में और भी मौजूद से लगते थे। ऊपर से भिन्न समाज, भाषा, जाति और आगे जाकर घर और पड़ोस के भिन्न माहौल। खासकर तब जब मेरे माँ-पापा कुछ सालों के लिए अलग हो गए थे। कभी-कभी स्कूल में भी मज़ाक में मैं खुद ही अपने आप को एक म्यूटेंट (अजीब तबदीली से बना हुआ जंतु) बुलाती थी, ताकि कोई मुझसे मेरे परिवार के बारे में ज़्यादा सवाल ना पूछे।

मेरे दादा-दादी से भाषा और संस्कृति से संबंधित किसी भी विवाद से बचने के लिए, मेरे माँ-पापा ने इन सब चीजों को हमसे दूर ही रखा। घर में हम सिर्फ इंग्लिश में बात किया करते थे, ना कोई त्यौहार मनाते थे और ना ही किसी तरह के रीति-रिवाज़ मानते थे। मेरे एक साथ कई तरह के बैकग्राउंड से होने की वजह से लोगों को लगता था कि मैं एक समझदार, शांत और कई भाषाएं बोलने वाली लड़की होउंगी।

लेकिन इसके विपरीत, मैं भाषाओं में कमज़ोर हूं और अभी भी कई बार मुझे ऐसा लगता है कि मैं कोई घुसपैठिया की तरह ही हूं। यहां तक कि मैं दावा ही नहीं कर सकती कि संस्कृति या रीति-रिवाज़ की कोई भी जड़ मेरे में मौजूद है।

लेकिन बिना किसी परंपरा के साथ बड़े होने का मतलब यह भी था कि हम खुद ही कुछ नई मज़ेदार परंपराएं बना सकते थे। म्यूज़िक सुनकर या म्यूज़िक वीडियोज़ देखकर वक्त बिताने का यह हमारा तरीका था। रविवार की सुबह का मतलब था एम.टी.वी. (MTV) शुरू करके 1993 में आए इन्फॉर्मर की धुनों पर अपने आप कुछ शब्द डालकर साथ साथ गाना।

क्योंकि हम वैसे भी उन गीतों के शब्द नहीं समझ पाते थे। मुझे याद है कि जब मैं छोटी बच्ची थी, तब मैं और मेरे पापा पूरी रात, खेल-खेल में सर पटककर मेटालिका  का गाने सुनते थे, फिर अगले दिन गर्दन के दर्द के साथ रहना पड़ता था। हमारा जीवन हमेशा आसान नहीं था और बचपन में मैंने कई नापसंद, उथल-पुथल वाले और दुःख से भरे अनुभव सहे।

जब मैं नि:शब्द हो जाती थी

मेरा मानना है कि बचपन में दुःख और उथल-पुथल सबको मिलता है। इसके बावजूद मेरे बचपन की सबसे अच्छी यादें उन चीज़ों से जुड़ी हैं, जो हम साथ किया करते थे। जैसे कि मेरी माँ के कैसेट के साथ-साथ मेरा गाना गाना या वो समा, जब वो भी अपने घरेलु काम को ब्रेक देकर हमारे साथ नाचने लगती थीं।

बचपन में जब भी कोई मुझसे पूछता था कि मैं कहां से हूं, तो मुझे बहुत दुख होता था क्योंकि मेरे पास कोई सीधा जवाब नहीं होता था। (और ऐसा आज भी है)। लेकिन मैंने यह कभी नहीं चाहा कि मेरा किसी और किस्म का परिवार हो। मेरे माता-पिता ने प्यार के लिए जो भी किया, मेरे मन में उसकी अहमियत है।

मेरी माँ के छोटे से समुदाय के लोग आज भी उनके बारे में कहते हैं कि वह एक दूसरे समुदाय के लड़के के साथ भाग गई। जबकि वह भागी नहीं थी, बल्कि उनके परिवार ने शादी में शामिल होने से मना कर दिया था। इस कलंक के धब्बे बहुत हद तक हल्के हो चुके हैं लेकिन पूरी तरह से गायब नहीं हुए।

अक्सर जब कोई मेरे माँ-पापा के बारे में पूछता था, तो मैं यही सुनती थी, “ओह, लौ मैरिज आ?” मेरे व्यक्तित्व की जब-जब बात हुई है, इन बातों का ज़िक्र निकला है। मानो लोगों का इस पर टिपण्णी करना बनता है, भले ही वह उस शादी को स्वीकारें नहीं।

14 साल की उम्र में, जब मैं परिवार के एक शादी में गई थी, तब मेरे एक चचेरे भाई ने अपनी एक दोस्त को मेरी सिचुएशन समझाने के लिए “मडब्लड” (Mudblood- यानी जिसका खून मिक्स्ड दलदला है) शब्द का सहारा लिया। यह शब्द हैरी पॉटर किताब का एक शब्द है, जिसका इस्तेमाल अलग-अलग समुदाय के माता-पिता होने वाले किसी जादुई व्यक्ति के लिए गाली के रूप में किया गया है।

अब मैं उन बातों से नाराज़ नहीं होती हूं

ना जाने क्यों, उस समय मुझे इस बात पर बहुत मज़ा आया। ऐसा लगा मानो यही एक शब्द है, जिसे हर कोई तुरंत समझ सकता है और जिससे मेरा पूरा वर्णन हो सकता है। (उसमें छुपे नस्लवादी भाव को मैं उस समय समझ नहीं पाई) आज भी मेरे कुछ चचेरे भाई-बहन इस शब्द का प्रयोग यह बताने के लिए करते हैं कि मेरे माता-पिता मिश्रित जाति के हैं। हालांकि मुझे इस बात से नाराज़ होना चाहिए लेकिन सच यही है कि मैं नाराज़ नहीं होती हूं।

“याव (कौन सी) जाति?” यह एक ऐसा सवाल था, जो हर जगह मेरा पीछा करता था। मैं आमतौर पर जवाब में “कोई जाति नहीं” या “अंतर-जाति” कह देती थी, क्योंकि मुझे पता ही नहीं था कि दूसरा क्या जवाब देना है। (बदकिस्मती से, हर किसी ने तो ‘हैरी पॉटर’ नहीं पढ़ा था, इसलिए “मडब्लड” शब्द का प्रयोग भी कोई काम का नहीं होता)

मैं यह कैसे मान सकती थी कि मैं थोड़ी सी ब्राह्मण हूं, जबकि मुझे पता था मेरे पिता के ब्राह्मण रिश्तेदार मेरी माँ के हाथ का बना खाना भी नहीं खाते थे।

ठीक वैसे ही मैं इस बात पर भी कैसे गर्व कर सकती थी कि कूर्ग से ताल्लुक रखने वाले मेरी माँ के मांसाहारी समुदाय के कई सदस्य दूसरे समुदाय के लोगों के प्रति खुल्लम-खुल्ला दकियानूसी सोच ज़ाहिर करते थे और भले ही उनका कोई संगठित धर्म ना हो लेकिन कुछ लोग अपने मतलब के लिए कभी खुद को उच्च जाति का बताते थे और कभी कुछ खुद को अनुसूचित जनजाति का!

मेरे कई वर्ष तो यही सोचते हुए बीत गए कि लोगों के सामने मैं खुद को कैसे पेश करूं और यह कि वो मेरे बारे में क्या सोचते होंगे और मुझे किस नज़र से देखते होंगे? मैं यह कोशिश करती रहती थी कि अपनी उथल-पुथल भावनाओं को, अपने गुस्से को, अपनी शर्म को किसी तरह संभाल लूं। कौन नहीं चाहता कि बिना किसी विवाद या झगड़े के अपनापन मिल सके लेकिन मैं खुद को उन समुदायों से कैसे जोड़े रखना चाहूंगी, जो मुझे अपना मानते ही नहीं?

मुझे मेरी माँ के आत्मविश्वास पर आश्चर्य होता था

एक समय ऐसा भी था जब मुझे लगता था कि मेरे रिश्तेदार तो मुझे प्यार नहीं ही करते हैं, फिर मैं कैसे अपने को स्वीकारुं, अपने से प्यार करूं। लेकिन आपको पता है ना कि ये गुस्सा, शर्म, भावनाओं के उबाल और बाकी ऐसी चीज़ें, समय के साथ कम होती जाती हैं।

मेरे पास इसकी एक थ्योरी है। पूरी तरह से अवैज्ञानिक कि ऐसा क्यों हुआ। उम्र और समझदारी के बढ़ने और थेरेपी करवाने से शायद इसका कुछ सम्बन्ध हो लेकिन मुझे लगता है कि कुछ और है, जिससे मुझे काफी हद तक सुकून मिला और वह है रोमांस।

मुझे अपनी माँ के आत्मविश्वास पर आश्चर्य होता है। उन्होंने कैसे इतनी कम उम्र में यह तय कर लिया कि जो प्यार उनके अपने परिवार ने उन्हें नहीं दिया, उसकी भरपाई मेरे पिता के मिलने वाले प्यार से हो जाएगी?

उन्होंने कैसे इतना बड़ा रिस्क लिया कि अगर उनकी शादी सफल नहीं रही, तो उन्हें पूरी दुनिया में अकेले ही रहना पड़ेगा और कैसे उन्होंने अपने माँ-बाप के प्रति किसी भी तरह के गुस्से को पाले बिना, अपनी पिछली ज़िन्दगी को छोड़कर एक नई ज़िन्दगी में कदम रखा? यह जानते हुए भी कि उनके माँ-बाप के सख्त रवैये के कारण ही वह उनसे अलग होने के लिए मजबूर हुई थी।

खासकर इसलिए, क्योंकि मुझे आज भी अपनी माँ की ओर से इस बात को लेकर बड़ा गुस्सा आता है। मेरे पेरेंट्स के बीच का रिश्ता परियों की कहानी जैसी तो बिल्कुल नहीं है, फिर भी मेरी माँ अभी भी शादी के अपने शुरुआती रोमांस की जब बात करती है, तो हमेशा की तरह बिल्कुल एक सपने जैसे, बड़े प्यार और कोमलता के साथ उस समय को याद करती है।

एकदम शालीनता के साथ! मुझे लगता है यह एक वजह है कि मुझे खुद के फैसले लेने या उन फैसलों की असफलता से बिल्कुल डर नहीं लगता है। हालांकि मुझे यह पता है कि अगर मैं किसी ऐसे लड़के के साथ रिश्ता जोड़ती हूं, जो मेरे माँ-पापा को पसंद नहीं होगा, फिर भी वे मुझसे रिश्ता नहीं तोड़ेंगे और ना ही मुझे अकेला छोड़ेंगे।

लेकिन साथ-साथ मुझे इस बात पर भी यकीन है कि अगर उन्होंने ऐसा कर भी दिया, फिर भी मैं अपने आप को आखिरकार संभाल लूंगी और यह इसलिए क्योंकि मैंने उनसे ही सीखा है कि प्यार है ही इतनी कमाल की चीज़ है, जिसके लिए मुश्किलें उठाना लाज़मी है।

जब मुझे प्यार हुआ

फोटो साभार- Vi

जब मुझे फाइनली प्यार हुआ और मेरे पहले सीरियस रिश्ते की शुरुआत हुई, तब सब कुछ बड़ा अच्छा और नया लग रहा था। जैसे कि मैं अपनी ज़िंदगी की उन्हीं पुरानी चीज़ों को देख रही थी लेकिन एक नया चमकीला चश्मा डालकर। एक ऐसा कोई था जो मेरे प्लस पॉइंट और मेरी खामियों, दोनों समेत मुझे प्यार करता था, जो पब्लिक में मेरा हाथ पकड़ना चाहता था। जो अपनी पहचान के हर एक से मुझे मिलवाना चाहता था।

मेरे वजन, मेरे रूप, मेरी उपलब्धियां, इन सबको लेकर मेरे डर कम हो गए मगर गायब नहीं हुए। होते भी कैसे, साल दर साल एक-एक करके यह जमा हुए थे लेकिन कुछ समय के लिए मेरे आत्म-संदेह पर लगाम लग गया था। अब इससे क्या फर्क पड़ता था कि मैं फलां समुदाय से थी या नहीं थी।

अब तो हमने प्यार से बने एक बेहतरीन नए दो लोगों के समुदाय की स्थापना की थी और मैं उसकी को-फाउंडर यानी सह-संस्थापक थी। बेशक सब कुछ वैसा नहीं होता है, जैसा मैं और आप सोचते हैं। मैंने तय कर लिया था कि मैं कभी शादी नहीं करूंगी। इसकी दो वज़हें थीं, जिनसे मैं बचना चाहती थी।

जैसे कि जाति या समुदाय द्वारा पहचान मिलना, पितृसत्ता की सेवा और अपनी माँ के उन अनुभवों को वापस से जीना जो अत्याचारी ससुराल वालों के साथ उन्होंने झेले थे। मगर मुझे धीरे-धीरे मेरे बॉयफ्रेंड की बात समझ आने लगी। वह कहता था कि वो नहीं जानता अपने परिवार के दबाव में शादी करने का विरोध कैसे किया जाए।

उसका बचपन मेरे बचपन से बिल्कुल ही अलग था। वो पहले एक गाँव में पला-बढ़ा और बाद में एक टीयर-2 शहर में रहा। उसकी बोलचाल की भाषा इंग्लिश नहीं है और उसका परिवार भारत के एक हिंसक सांप्रदायिक बेल्ट में बसा गहरा रूढ़िवादी और धार्मिक परिवार है। हालांकि जब तक उसने शादी का टॉपिक नहीं उठाया था, ये चीज़ें मुझे परेशान नहीं कर रही थीं।

मुझे नहीं लगता है कि  मैंने या इस पार या उस पार किस्म का कोई फैसला लिया। अगर मैंने कहा होता कि मैं उससे शादी नहीं करूंगी, हमारा रिश्ता खत्म नहीं होता। मुझे तो ऐसा ही लगता है। मैं देख सकती थी कि वो अपने माता-पिता के शादी को लेकर बढ़ते दबाव के साथ संघर्ष कर रहा था। अपने समुदाय या जाति से बाहर किसी के साथ डेटिंग करना उन्हें नागवार लगता था और वो उसे घर से बाहर भी निकाल सकते थे।

फिर उसके अपने ख्याल भी थे, जो उसकी परवरिश के अनुकूल थे कि सीरियस रिश्ते और शादी का एक गहन सम्बन्ध है। इस तनाव से भरे माहौल में भी उसने शादी को लेकर मेरी चिंताओं को गंभीरता से लिया। हमने शादी ना करने की संभावनाओं के उपर भी बात की, क्योंकि हम वैसे भी एक साथ ही रह रहे थे। हालांकि हम यह भी जानते थे कि उसके माता-पिता के लगातार विरोध का उस पर और आखिर में हम दोनों पर गहरा असर पड़ेगा।

मैंने शादी करने का निर्णय लिया

फोटो साभार- Vi

मुझे नहीं लगता है कि उस वक्त तक मैंने इन चीज़ों पर उतनी स्पष्टता से सोचा था लेकिन शायद जब मैंने उसे मेरी खातिर कड़े कदम उठाने और उनके परिणाम भुगतने को तैयार देखा, तो मैं भी तत्पर हो गई और एक दिन मैंने शादी के लिए हामी भरकर सिर्फ उसे ही नहीं, बल्कि खुद को भी हैरान कर दिया, फिर उसके परिवार से मिलने के लिए भी तैयार हो गई।

यहां मेरे लिए संदेह की भरमार थी, क्योंकि जहां मैं खराब से खराब चीज़ की उम्मीद कर रही थी, वहां सब उल्टा ही हो रहा था। मैं  हर बार गलत साबित हो रही थी। मेरे पार्टनर के पिता, जिन्होंने महीनों तक इस रिश्ते पर नाराज़गी दिखाई और लोग क्या कहेंगे की दुहाई दी, आखिरकार एक दिन हमारे रिश्ते के साथ समझौता कर बैठे।

जब उसका परिवार पहली बार मुझसे और मेरे माता-पिता से मिलने आया, तो मैं घबरा रही थी क्योंकि मुझे लगा था कि चीज़ें और बिगड़ेंगी लेकिन हमारी पहली बातचीत असल में अच्छी ही रही और जब हमारी शादी हो गई, तब वहां के लोगों के बर्ताव को लेकर मैंने अपने मन को पहले से ही कड़ा कर लिया था। वजह वे अनुभव थे, जो मेरी माँ और उनके ससुराल वालों के बीच चलती आ रही कड़वी बहस से मिले थे।

हालांकि मेरे साथ कुछ उल्टा ही हुआ। उसके परिवार में मुझे पूरी गर्मजोशी और स्वागत के साथ अपनाया गया। मैं एक कूल, आज़ाद बड़े शहर की लड़की थी, जो यह मानती थी कि अगर आप उदार हैं, तो आप अच्छे हैं और अगर आप धार्मिक और रूढ़िवादी हैं, तो बुरे हैं।

आज मैं उन रूढ़िवादी, जातिवादी और धार्मिक लोगों के बीच थी जो बदलने के लिए तैयार थे! और वो लोग इस बात का सम्मान करते थे कि मेरे पास अपनी खुद की राय और मान्यताएं हैं, जो कि उनसे अलग हैं।

गौर से देखें तो, मुझे आश्चर्य नहीं होना चाहिए, क्योंकि मेरा जीवन तो वैसे भी दिमाग घुमाने वाले विरोधाभासों से भरा हुआ है। चीज़ें हमेशा ऐसी रही हैं और ऐसी ही रहेंगी। मेरे पापा के माता-पिता ने उनकी शादी को मंज़ूरी तो दे दी लेकिन मेरी माँ को दुखी कर के रख दिया। हां, इस लड़ाई के कुछ सालों बाद, मेरी दादी के मरने से कुछ पहले, अचानक ही, वह और मेरी माँ पुरानी बातें पीछे रखकर ना जाने कैसे दोस्त बन गए।

जातिवाद को करीब से देखा

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

मेरी माँ, एक आधुनिक शहर की लड़की, जो हिंदू धर्म का अपमान करती है और जाति में विश्वास नहीं करने का दावा करती है, उन्होंने घरेलू कामगारों (नौकरों) के लिए हमेशा हमारे घर में अलग बर्तन रखे।

दूसरी तरफ मेरी सास, गर्व से भरी ब्राह्मण, ऐसा करने के बारे में सोच भी नहीं सकती हैं।  मेरे परिवार में हम गले नहीं लगते हैं लेकिन मेरे पति के परिवार में मर्द-मर्द, औरत-औरत, मर्द-औरत सब गले लगते हैं, प्यार करते हैं और ना जाने कितनी बार किस्स करते हैं।

अगर मेरी ज़िन्दगी अलग होती और मेरे पेरेंट्स की शादी पारंपरिक तरीके से हुई होती और मेरे परिवार के बारे में उठे हर सवाल का सीधा जवाब मेरे पास होता, तो क्या मैं अपनी ज़िंदगी और प्यार को लेकर यही फैसले लेती, जो मैंने आज लिए हैं?

शायद हां, या शायद ना लेकिन मुझे लगता है कि जिस दिन मेरे पेरेंट्स ने शादी करने का फैसला लिया, उसी दिन से कई घटनाओं का क्रम शुरू हुआ और इन घटनाओं ने ही मुझे जिंदगी की खासमखास गड़बड़ियों को अपनाने और उनके बीच रास्ता बनाने के लिए तैयार किया है। इसने मुझे जितने जवाब दिए हैं, उससे अधिक मेरे पास सवाल हैं, खासकर यह कि क्या मैं जाति और समुदाय से परे होकर मेरे पेरेंट्स के प्यार करने के फैसले और वायदे को अपनी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में लागू कर सकती हूं?

इस शातिर सोशल मीडिया के दौर में मेरा ‘चाउ चाऊ’ भात वाला बैकग्राउंड मुझे यह सोचने पर मजबूर करता है कि मैं ऑनलाइन होती पॉलिटिकल या रिलीजियस चर्चाओं का हिस्सा कैसे बनूं और अगर ना बनूं, तो अपनी ज़िन्दगी को ऑफलाइन कैसे करूं। मैंने अभी तक यह नहीं सीखा है कि जाति पर चर्चा करते समय लोगों के अंधे गुस्से से कैसे निपटा जाए या यह कैसे समझा जाए कि वे अगर”सवर्ण” या “इंटरनेट अम्बेडकराइट” जैसे शब्द बोल रहे हैं, तो दरअसल वो आपका अपमान कर रहे हैं।

मैंने अपने जैसे मिक्स्ड जाति वाले लोगों को देखा है। वो अपने ऑनलाइन प्रोफाइल में इस अस्पष्टता को जानबूझकर मिटाने की कोशिश करते हैं, ताकि वे कुछ चुने हुए समूहों के साथ ही पहचान बना सकें।

मैं इस ज़रूरत को पूरी तरह समझ सकती हूं, क्योंकि मैं भी हमेशा एक ऐसे समुदाय के लिए तरसती रही, जो मुझे बिना किसी सवाल के अपनाए। अगर मैं खुद किसी एक समुदाय से जुड़ जाऊं, तो मुझे लगता है कि कुछ मायनों में यह मुझे दूसरे लोगों से उच्च, एक बुद्धिमानी और नैतिकता का दर्ज़ा देगा। वो मुझे प्रामाणिकता और वैधता भी देगा, फिर तो ऐसा करना और भी आकर्षक लगने लगता है।

ऐसी दुनिया में, जहां अब ऊंची जाति का होना हमेशा आपको किसी जांच या निंदा से नहीं बचाता है। मुझे खुद के उस हिस्से से अलग होने की चाह होती है। इस उम्मीद से कि अगर आप ही सबसे बुलंद आवाज़ में जाति की निंदा करो, तो आप पर कोइ उंगली नहीं उठाएगा लेकिन मेरे मन में मेरी पहचान को लेकर अनगिनत सवाल और आशंकाएं हैं और इन्होंने ही मुझे इस रास्ते पर अंधाधुंध जाने से रोका है। पहले मुझे इनसे निपटने की ज़रूरत है। इस बात को और गौर से समझना चाहिए कि मेरी अपनी नज़र में, किसी के साथ बातचीत की शुरुआत अपनी सामाजिक पहचान देकर करना, कहां तक सही है।

ससुराल वालों के साथ वैचारिक मतभेद

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

मेरे ससुराल वालों के साथ, हमारी धारणाओं को लेकर अक्सर विवाद रहता है। चाहे वह मंदिर जाने के बारे में हो, किसे वोट करना है, वो हो, पोते-पोतियों की प्लानिंग हो या मेरे कपड़ों को लेकर कोई बात हो। कभी-कभी, जैसे राजनीति और धर्म के मामले में होता है, हम हमेशा असहमत होते ही हैं और कभी-कभी यह बहस भी बन जाती है।

कभी-कभी तो मुझे लगता है कि उनकी धर्म को लेकर जो गहरी सोच और निष्ठाएं हैं, उनकी वजह से वे यह मान चुके हैं कि मेरा दरअसल धर्म से कुछ लेना-देना ही नहीं है।  हालांकि इन सभी असहमतियों और तनाव वाले बहस के बाद भी मेरे ससुराल वाले ना ही मुझसे बात करना बंद करते हैं और ना ही मुझे चाहना।

मैं जानती हूं कि मैं सच में कुछ खास हूं और भाग्यशाली भी, क्योंकि कई दूसरी अंतर-जातीय रिश्तों के विपरीत, मुझे मेरे घर में हिंसा का कोई डर नहीं है और मैंने भी कोशिश की है कि जितनी शिद्दत से हो सके, उतना मैं भी उनको प्यार करूं। हां, उनकी राजनीतिक पसंद को किनारे करके।

यह कहना शायद आम हो गया है कि निजी मामला भी राजनीतिक होता है लेकिन यह फिर भी सच है। एक ही घर में  निजी और राजनीतिक, दोनों पहलूओं से समझौता करना कभी-कभी तकलीफ भी दे सकता है और कभी गंदा मोड़ भी ले सकता है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि मैं अपनी बात नहीं बोलूंगी, क्योंकि मुझे लगता है कि यह कोशिश कभी-कभी हर तरह से अपने को लायक साबित करती है।


Vi द्वारा लिखित

लाबोनी रॉय द्वारा चित्रित

Vi 30 साल की हैं. जिन्हें पढ़ना बहुत पसंद है।

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