Site icon Youth Ki Awaaz

रांची कोर्ट द्वारा ऋचा भारती को कुरान बांटने के फैसले पर जब भीड़ ने मचाया था उत्पात

फोटो साभार- सोशल मीडिया

फोटो साभार- सोशल मीडिया

झारखंड की राजधानी रांची का पिठोरिया गाँव अचानक उस वक्त सुर्खियों में आ गया था, जब 15 जुलाई को सिविल कोर्ट ने अपने एक फैसले में अजीबो गरीब तर्क दिया था।

सोशल मीडिया पर एक धर्म विशेष के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी करने वाली 19 वर्षीय ऋचा भारती को इस शर्त पर जमानत मिली थी कि उसे कुरान की पांच प्रतियां बांटनी पड़ेगी।

हालांकि भारती को बाद में रांची की सिविल कोर्ट से ही बड़ी राहत मिल गई थी। जज मनीष कुमार सिंह की अदालत ने अपनी शर्त को वापस ले लिया था, जिसके तहत जमानत के बदले ऋचा को कुरान की पांच प्रतियां बांटने का आदेश था।

क्या थे सज़ा के मायने

फोटो साभार- सोशल मीडिया

धर्म के आधार पर देखा जाए तो जज एक हिन्दू थे। 5 व्यक्तियों को कुरान बांटने की सज़ा में कोई गलती दूर-दूर तक नज़र नहीं आती है। हां, बेहतरी की गुंज़ाइश है, जो हमेशा हर जगह होती है। शायद कुरान के साथ गीता, रामायण या महाभारत बांटी जा सकती थी या शायद बौद्ध या जैन धर्म की किताबें भी।

सज़ा यह भी हो सकती थी कि उसे कुरान पर पीएचडी करने के लिए सरकार सारी सुविधाएं प्रदान करें और इसी तरह की सज़ाएं बाकी धर्म के कट्टर व्यक्तियों को भी मिले। इन सब से बेहतर सज़ा ये होगी कि उसे चार्ल्स डार्विन या रेने डी कर्टेज़ के सिद्धांतों पर पीएचडी करने की सुविधाएं सरकार उपलब्ध कराती।

वैसे गाँधी जी हर दूसरे व्यक्ति को गीता बांट दिया करते थे और उन्हें कट्टर हिन्दू, मुसलामानों का हमदर्द भी कह दिया जाता था। वहीं, कुरान बांटने के नाम पर भीड़तंत्र ने काफी उत्पात मचाया।

भारत देश में हिन्दू बहुसंख्यक हैं और बहुतों को लगता है कि वर्तमान सरकार हिंदुत्ववादियों की है। पिछले कुछ सालों में सरकार बहुसंख्यकों के दिमाग में यह ठूंसने में सफल हुई है कि हिंदुत्व ही हिन्दुवाद है।

तब सवाल यह उठता है कि क्या इसलिए हिन्दुओं की धार्मिक भावनाएं आहत होने की खबरें रोज़ आती हैं? शब्द “धार्मिक भावना” बहुत सुना जाता है लेकिन “धार्मिक मस्तिष्क” कभी नहीं सुना है मैंने, ऐसा क्यों?

तो क्या अगर यह कहा जाए कि इंसान जैसे ही धार्मिक होता है, वैसे ही “मस्तिष्क” धर्म गुरुओं की दुकान पर बेच आता है? तब यह भी सवाल उठेगा कि मेरे इस सवाल से किसी की धार्मिक भावना आहत हो गई तो? आखिर भावना भी तो दिमाग में बसती है दिल में नहीं।

सोशल मीडिया की यह कैसी आज़ादी

प्रतीकात्मक तस्वीर।

अभिव्यक्ति का नया नवेला माध्यम यानी सोशल मीडिया से पहले लोगों को या तो अखबार में लेख लिखवाने पड़ते थे या फिर मंच पर जाकर लोगों के आमने-सामने अपनी बात रखनी पड़ती थी। तब ज़्यादातर इंसान ऐसा कोई कदम उठाने से पहले बहुत तैयारी करता था। अब ऐसा नहीं है, अब तो हर कोई इस सोशल मीडिया के माध्यम का उपयोग करता है। 

अब होता यह है कि ज़्यादातर लोग इस माध्यम का उपयोग अपरिपक्वता और बिना तैयारी के करते हैं। इसे बचपना भी कहा जा सकता है लेकिन बचपना जब धार्मिक हो जाए, तो भारत देश को कुछ ज़्यादा ही तकलीफ होती है।

बाकी हर चीज़ में इस प्रकार का बचपना तो समाज में चलता है। सोशल मीडिया पर यह बचपना बढ़ रहा है और खतरनाक भी हो रहा है। ज़्यादातर लोगों को “राय “और “आदेश”, “समझाने” और “भड़काने” की भाषा में क्या अंतर होना चाहिए, यह पता ही नहीं है। 

भारत में बचे-खुचे लोकतंत्र को भीड़तंत्र में बदलने के लिए योगदान बढ़ता जा रहा है। पहले सोशल मीडिया को आज़ादी की तरह देखा गया लेकिन अब फिर इस आज़ादी पर लगाम लगाने की ज़रूरत पड़ने लगी है। हमारे समाज की अपरिपक्वता ने हमें सोशल मीडिया की आज़ादी के लिए नालायक साबित कर दिया है।

आज कल लोग “भारतीय संस्कृति” में भी भ्रमित हैं। भाई, कौन सी वाली भारतीय संस्कृति, नागालेंड वाली या बिहार वाली या कश्मीर वाली या अखंड भारत वाले पाकिस्तान वाली या कर्नाटक वाली?

Exit mobile version