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रिप्रोडक्शन चैप्टर पढ़ाते वक्त मैडम ने कहा, “खुद पढ़कर समझ भी लेना”

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार-Flickr

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार-Flickr

समय बदल रहा है और यही आज की मांग भी है। आज कई वर्जनाएं हैं, जिन्हें तोड़ने की ज़रूरत महसूस की जा रही है और जब-तब तोड़ा भी जा रहा है। जैसे- माहवारी को लेकर फैले भ्रम को अब तोड़ा जाने लगा है।

पहले इस मुद्दे पर बात करना ना घरों में ठीक माना जाता था और ना ही घर के बाहर। आज कितने ही संस्थान इससे जुड़े मिथकों पर बात कर इसे आसान बना रहे हैं। सरकार द्वारा कई तरह के कैंपेन चलाए जा रहे हैं, जो माहवारी में पैड्स, मेन्स्ट्रुअल कप, टैंपून और सोशल टैबूज़ पर बात कर रहे हैं।

इन सब पर दबी ज़ुबान में ही सही, मगर बात होने लगी है। वहीं, सेक्स एजुकेशन के नाम पर आज भी माँ-बाप, शिक्षक और बच्चे कतराते नज़र आते हैं। सुरक्षित यौन सम्बन्धों के लिए कितने ही कैंपेन चलाए जा रहे हैं।

भारत में आज भी इस विषय पर बात करना गंदा माना जाता है और यदि आप जिज्ञासावश कोई सवाल करते हैं, तब चुप कर दिया जाता है। मुझे अब भी याद है कक्षा आठ का चैप्टर 9 “रिप्रोडक्शन”। जिसे हर बच्चे को पढ़ाया जाना चाहिए मगर हमें उस तरीके से नहीं पढ़ाया गया।

वैसे भी शायद ही किसी क्लास में आज इस बारे में खुलकर बात की जाती होगी। क्या एक शिक्षक या अभिभावक के तौर पर इन चीज़ों के बारे में बच्चों को विस्तार से नहीं बताया जाना सही है?

रिप्रोडक्शन मतलब जीवन चक्र, पेड़-पौधें बता दिया गया

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

 

जब हमारी क्लास में रिप्रोडक्शन चैप्टर की शुरुआत की गई, तब हम छात्रों के चहरों पर जिज्ञासा के भाव तो ठीक-ठीक याद नहीं मगर अपने शिक्षक के चेहरे पर घबराहट के भाव अब भी याद हैं।

वो भी तब जब पढ़ने वाली सारी छात्राएं (लड़कियां) थीं और पढ़ाने वाली महिला शिक्षक। हमें इस टॉपिक के शुरू में बस इतना ही समझाया गया कि रिप्रोडक्शन मतलब जीवन चक्र पेड़, पौधे, मनुष्य सबकी उत्पत्ति और उसके बाद कह दिया गया आप खुद समझ लें।

मुझे अब भी ठीक से याद है, जब क्लास में किसी ने पूछा कि यह होता कैसे है, तो मैडम की खीझ भरी आवाज़ थी, “बस होता है, मुझे नहीं पता कैसे। खुद पढ़ लेना और समझ भी।”

उसके बाद कुछ पूछने का प्रश्न ही खत्म हो गया था। इतनी समझ और हिम्मत कोई जुटा ही नहीं पाया कि पूछ सके जब पढ़ना ही नहीं है, तो इस चैप्टर को किताब में रखना क्यों?

और यदि उस जगह शिक्षक कोई पुरुष होते, तब माहौल का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। ज़ाहिर है हमें पाठ पढ़ाया ही नहीं जाता। सेक्स एजुकेशन को लेकर विश्व स्वास्थ्य संगठन ने निर्देश जारी किया है 12 वर्ष और उससे अधिक आयु वाले बच्चों को स्कूल में सेक्स एजुकेशन दिया जाना ज़रूरी है।

सेक्स एजुकेशन पर बात करना कल भी बेहद ज़रूरी था और आज इसकी ज़रूरत और भी ज़्यादा है, क्योंकि पहले सिर्फ अनभिज्ञता थी, अब इंटरनेट की दुनिया ने इसमें कौतूहल उड़ेल दिया है।

एक सर्वे के अनुसार जिन बच्चों को शिक्षक द्वारा स्कूल में सेक्स एजुकेशन दी गई है, वे सही उम्र में जाकर शारीरिक सम्बन्ध बनाते हैं और वह भी सुरक्षित तरीके से।

सेक्स शब्द सुनकर ही या तो हम चुप हो जाते हैं या चुप करा दिए जाते हैं

प्रतीकात्क तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

सेक्स एजुकेशन कोई गंदी बात नहीं, बल्कि एक चिकित्सा निर्देश है, जिसमें यौन गतिविधियां, शारीरिक सरंचना शामिल होती हैं। किशोरवस्था में व्यक्ति अपने शरीर, उसकी गतिविधियों में बदलाव महसूस करता है। सेक्स एजुकेशन का लक्ष्य ऐसी शिक्षा देना है, जिससे व्यक्ति अपने जीवन में एक स्वस्थ्य निर्णय ले सके।

लेकिन हमारे देश में इस पर कोई जानकारी किशोर लड़के-लड़कियों को नहीं दी जाती है। इसे एक गैरज़रूरी या शर्म का मुद्दा मानकर छोड़ दिया जाता है। वहीं, सेक्स एजुकेशन उन्हें गुमराह होने से रोक सकती है और इसकी सही जानकारी बहुत हद तक सेक्स एब्यूज़ और मानसिक विकृतियों को कम कर सकता है।

स्कूलों और घरों में इस पर बात नहीं की जाती है। घरों में इस तरह का माहौल होता है कि माता-पिता से कभी भी इससे सम्बंधित प्रश्न नहीं पूछा जा सकता है। एक लड़का-लड़की में जहां इसकी स्वस्थ्य समझ विकसित करनी चाहिए, वहीं घरों में ऐसा माहौल बना दिया जाता है कि ऐसे किसी मुद्दे को सुनकर ही असहज माहौल कायम हो जाता है।

सेक्स एजुकेशन ही किशोरों को शरीर की सही जानकारी दे सकती है

स्कूल की लड़कियां, प्रतीकात्मक तस्वीर

लड़का-लड़की दोनों को ही एक दूसरे से जुड़ी सही जानकारी होनी चाहिए। उदाहरण के तौर पर लड़कियों के लिए भी पीरियड्स एक प्राकृतिक बात है। यह सिर्फ उन्हें ही नहीं, बल्कि लड़कों को भी पता होना चाहिए। किसी भी प्रश्न का उत्तर सीधे तौर पर उन्हें दिया जाना चाहिए।

गर्भावस्था, यौन संचारित रोग (STD) और एचआईवी को लेकर जागरूकता लाने के लिए सेक्स एजुकेशन बहुत ज़रूरी है। इसकी सही जानकारी युवाओं को अधिक ज़िम्मेदार बनाएगी।

सेक्स एजुकेशन के माध्यम से बच्चों को बलात्कार, मारपीट, यौन शोषण और यौन सहमति की जानकारी दी जाए लेकिन सेक्स एजुकेशन को संस्कारों से जोड़ना किशोर, युवाओं को उसकी जानकारी से अनभिज्ञ रखना उनकी जिज्ञासा को बढ़ाता है और सही जानकारी के आभाव में वे मैगज़ीन, इंटरनेट के माध्यम से इस विषय को अपनी तरह से लेने लगते हैं।

महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की एक रिपोर्ट कहती है, “50% लड़के-लड़कियां सेक्स एजुकेशन के आभाव में अपनी युवा अवस्था में सेक्शुअल एब्यूज़ का शिकार होते हैं।”

बच्चों, किशोर, युवाओं को इसकी जानकारी घरों में उतने ही सहज ढंग से दी जानी चाहिए जैसे उनसे और मुद्दों पर बात की जाती है। मैं कोई कहानीकार नहीं हूं लेकिन अक्सर ही मुझे कोई छोटी-बड़ी बात, अनुभव याद आया जाया करते हैं।

बात कक्षा सात की रही होगी मगर मेरे साथ पढ़ने वाली एक लड़की, जो कि विवाहित थी। इतनी कम उम्र में सेक्स एजुकेशन के नाम पर तो बिलकुल भी हमें ढंग से कोई जानकारी नहीं दी जाती है। उस उम्र में उसका कहना कि मुझे अपने ससुराल से डर लगता है। मैं वहां जाती हूं, तो मेरे वो (पति) मुझे अजीब ढंग से छूते हैं।

मैं नहीं जानती कि यह बात मुझे आज कैसे याद रह गई लेकिन क्या यह हम सबकी ज़िम्मेदारी नहीं बनती कि इस बात को घरों में संस्कार के नाम पर दबाना नहीं, बल्कि ज़िम्मेदारी के नाम पर बताना शुरू करें ताकि बच्चे भ्रमित ना हों।

नोट: सृष्टि तिवारी Youth Ki Awaaz इंटर्नशिप प्रोग्राम जनवरी-मार्च 2020 का हिस्सा हैं।

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