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“औरत की ना में क्या पुरुषत्व के अहंकार को सीधा लात मारने की ताकत होती है?”

औरतों को ना कहने का अधिकार नहीं है, क्योंकि उनकी ना में छिपी है पुरुषत्व के अहंकार को सीधा लात मार देने की ताकत, जो आदमी को कतई बर्दाश्त नहीं (ऐसा आदमी सोचता है)।

मगर क्या वाकई किसी भी मुद्दे, बात, बहस, समर्थन, असमर्थन, शारीरिक, मानसिक, पसंद या नापसंद पर एक औरत की ना का सीधा मतलब पुरुषत्व के माथे पर बल देने का सीधा मकसद है? सोचिए और खुद को जवाब दीजिए।

फोटो सोर्स: अर्पिता विश्वास / फेमिनिज़्म इन इंडिया

खैर, औरत की ना में छिपी हो सकती है उसकी अपनी खुशी या थोड़ी सी दाईं तरफ की करवट। औरत की ना में छिपे हो सकते हैं ऑफिस के स्ट्रेस, जो शायद किसी फाइल के गुम हो जाने से उसकी कई दिनों की मेहनत खा गए।

उसकी ना में हो सकता है घर, दफ्तर और बच्चों को संभालते-संभालते टूटी देह की अंगड़ाइयां, जिसे वह अपनी पाजेब की रिंगटोन से साला बार-बार इसलिए अनदेखा कर रही है, क्योंकि ये तो साला बजने ही है और मुझे नाचते जाना है, क्योंकि इसी को वो जीवन मान बैठी है।

ऐसे पुरुष जो अपनी बेल्ट खोलते वक्त औरत के पेटिकोट का नाड़ा ढूंढते हैं, उन्हें या तो याद नहीं होता या वे रखना ही नहीं चाहते हैं कि जिन औरतों के पेटिकोट का नाड़ा अपनी जगह नहीं होता, उन औरतों की नींद के हिस्से में करवटें भी नहीं आती हैं।

हां, वही औरतें, जिन्हें 40-45 के पार तुम थुलथुला करार देकर दस्तख्त कर देते हो ऐसे हज़ारों दस्तावेज़ कि जिनपर साफ-साफ तुम रोज़ तीर फेंकते हो, मोटी, थुलथुली, कमर का कमरा, टीपिकल औरत, बेख्याल, बेपरवाह और ना जाने क्या-क्या।

मगर सुनो, इन सबके बीच क्या कभी तुम देखते हो, जब रीढ़ की हड्डी उसके टखने तक आकर दुहाई देती है एक पल आराम का, जिसे घर, गृहस्थी, काम-काज सब थोड़ा-थोड़ा रोज़ खा रहे हैं?

फोटो प्रतीकात्मक है।

क्या इन सबके बीच तुम नोटिस करते हो, उसकी मांग का सिंदूर, जो पसीने में तार होकर जब माथे तक आता है तो अपनी कलाइयों से बेपरवाह वो सरका देती है वापस उसे मांग तक, क्योंकि धर्म कहता है कि कुछ भी हो जाए चेहरे की तिलमिलाहट से कतई ज़्यादा ज़रूरी है, वह लाल रंग।

एक औरत की ना में छिपी होती होगी वह पेट की और पूरे शरीर की तनी हुई नसें, जो तीन दिन उसे लाल करके जाती है, हर बार आने का फिर वही वादा करके। जिस आह के इंतज़ार में तुम उसे नोचकर खा जाने का सोच रहे होते हो, उससे लाख गुना ज़्यादा वो अपनी नाड़ी में दबाकर चीख रही होती है, उन तीन दिनों में मगर उसकी आह तुम्हारी हवस से अलग है रे महान पुरुष, जिसे तुम नाटक करार देने से कतई बाज़ नहीं आते।

मगर इसके इतर जब औरत छाती फाड़कर हंस दे,
बेजान रीढ़ पर भी एक छोटी सी खुशी देखकर पुरज़ोर खड़ी हो जाए,
समंदर के पानी को घुटनों या उससे ऊपर तक नंगे पैरों से पाक कर दे,
जिसे तुम क्लिवेज़ कहते हो, छाती के उस हिस्से को ना ढक पाए,

गली के क्रिकेट में छोटू से बल्ला लेकर जड़ दे चौका,
रिक्शे से उतरकर थाम ले चार पहियों का स्टेरिंग
या दो पहियों वाली फटफटिया के नशे में होले मलंग
तब औरत की ऐसी मलंग जीने वाली हां, पुरुषत्व की छाती फाड़ कर रख देती है…
(ऐसा भी आदमी ही सोचता है) वाह रे पुरुष वाह।

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