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वे कौन हैं जो उग्र राष्ट्रवाद के ज़रिये युवाओं को बंदूक उठाने पर मजबूर कर रहे हैं?

नजफगढ़ में अमित शाह ने कहा,

8 फरवरी को आपका एक-एक वोट यह बता देगा कि आप शाहीन बाग वालों के साथ हैं या भारत माता के सच्चे सपूतोंं के साथ हैं।

मेरा मानना है कि इस तरह के बयानों से अब हमें डरने की ज़रूरत है। क्योंकि भारतमाता के सपूतों ने पिछले दो दिनों में जिस तरह से शाहीन बाग एवम जामिया के छात्रों पर गोलियां चलाई हैं और जिस तरह से पुलिस तमाशबीन बन, हाथ बांधे यह सब देखती रही, उससे यह प्रतीत हो रहा है कि इस तरह के जघन्य अपराध अब देश के लिये न्यू नॉर्मल बन गए हैं।

हिंसा को सराहना की पोशाक 

एक खास बात जो इस तरह के पूरे प्रकरण में देखी जा रही है वह ये कि गोली चलाने वाला पुलिस की मौजूदगी में गोली चला रहा है और बिना भागे खुद को पुलिस के गिरफ्त में कर रहा है।

इसकी दो वजहें हैं जिसे हमें समझने की ज़रूरत है।

इस तरह की अप्रिय घटना घटित होने के बाद सोशल मीडिया पर कुछ और भी बेहद अजीब देखा जा सकता है। जिसे अगर कोई शब्दावली देनी हो तो उसे ‘वैचारिक दरिद्रता’ कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

शाहीन बाग

आज सोशल मीडिया पर एक खास तबका हिंसा करने वालों के समर्थन में उनका आराध्य बन गया है और उनके कुकर्मों को किसी खास धर्म से जुड़े व्यक्ति की हत्या का बदला लेने के रूप में कर रहा है।

उग्र राष्ट्रवाद और धर्मांधता का दौर

आज हम ऐसे समय में जी रहें हैं, जहां युवाओं के हाथ में कलम की जगह पिस्तौल तो कभी रॉड नज़र आ रहे हैं। हमें यह सोचना होगा कि आखिर ऐसी कौन सी प्रभावी शक्ति है, जो उन्हें उग्र राष्ट्रवाद और धर्मांधता का रूप लेकर युवाओं को बंदूक उठाने पर मजबूर कर रही है?

जवाब की तलाश में हिटलर के प्रचार मंत्री डॉक्टर जोसेफ गोएबेल्स को पढ़िये। ज़हर उगलने वाले नेता हर रोज़ इडियट बॉक्स (टीवी) में या वायरल रेक्टैंगल (मोबाईल) में नज़र आ जाते हैं, जो प्रत्येक दिन एक ऐसा नैरेटिव सेट करते हैं, जो परोक्ष रूप से यह बताता है कि समाज में धर्म युद्ध का एलान हो चुका है।

आज आर्थिक बजट से ज़्यादा ज़रूरत इस देश को सामाजिक बजट की है, जहां समाजिक सजगता के नाम पर पढ़े लिखे और मानसिक रूप से दुरुस्त लोग आवंटित किए जाएं, जो कि यह सुनिश्चित करें कि किसी बच्चे का धर्म के नाम पर या राष्ट्र के नाम पर मानसिक दोहन ना हो ताकि कोई और गोपाल और विनय इस समाज को ना मिले।

 

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