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उदयपुर की ग्रामीण महिलाओं में होने वाली परदे की बीमारी क्या है

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

समाज ने प्रजनन से जुड़ी बीमारियों को “गुप्त रोग” या “परदे की बीमारी” कह दिया। इसका असर यह पड़ा कि महिलाएं दर्द सहने के बावजूद इसे किसी को बता नहीं पाती हैं। आलम यह होता है कि लगातार इन परेशानियों का सामना करते-करते वे टूट जाती हैं।

शहरों में फिर भी दर्द से जूझ रही महिलाओं के लिए स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच बनी है मगर गाँवों और आदिवासी इलाकों में महिलाएं अस्पताल तक चली भी जाएं, तो वहां महिला डॉक्टर नहीं मिलतीं। ऐसे में वे अपनी “परदे की बीमारी” बता नहीं पाती हैं। तो पहले इन हालातों से जूझती महिलाओं के कुछ केस पर नज़र डालते हैं, जिन्हें अभी हाल  ही में पत्रिका अखबार में प्रकाशित की गई थी।

पहला मामला

कवड़ी बाई बीते एक वर्ष से दिनभर घर के बाहर एक बिस्तर पर लेटी रहती हैं। कमर के नीचे होने वाले तेज़ दर्द की वजह से पूरी रात उसके घर वाले परेशान रहते हैं। घरवालों का कहना है कि उम्र के इस पड़ाव में ज़्यादातर औरतों में “परदे की बीमारी” सामान्य है।

वे इसे बीमारी से ज़्यादा “ऊपरी प्रकोप” मानते हैं। जबकि कवड़ी बाई को पेशाब में तेज़ जलन होती है और तेज़ बदबूदार “पस” जैसे पीला पानी।

दूसरा मामला

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

नाथी बाई तीन बेटियों की माँ हैं, जिनकी उम्र 40 साल है। वह लगभग 2 वर्षों से गुप्त रोग से परेशान थीं। उनका पति गोपाल सिंह सूरत में किसी दुकान पर काम करता है। वह साल में 2-3 बार ही गाँव आ पाता है। पिछले साल जब वह आया, तो तेज़ दर्द से तड़पती नाथी बाई को वह उदयपुर सरकारी अस्पताल ले गया।

डॉक्टर ने दवाई लिखकर उन्हें वापस भेज दिया। दवाई से परेशानी घटने के बजाय और बढ़ गया। नाथी अपनी नंद को लेकर फिर से उदयपुर अस्पताल आई। इस बार भी उसे दवाई देकर भेज दिया गया।

2 महीने पहले जब नाथी तीसरी बार उदयपुर गई, तो उसे बताया गया कि उसके बच्चेदानी में गांठ हैं। तत्काल उसकी बच्चेदानी ऑपरेशन करके उसे बाहर निकालना पड़ेगा। 11 दिन भर्ती रहकर नाथी अभी अपने गाँव लौटी ही हैं। सब कुछ फ्री होने के बावजूद इस बीपीएल परिवार के अस्पताल में इलाज और दवाई पर उसके 7 हज़ार रुपये खर्च हो गए।

तीसरा मामला

तुमड़ी बाई (30 वर्ष) पिछले 6 महीने से पेट के नीचे तेज़ दर्द और जलन  से परेशान हैं। दुखद तो यह है कि वह किसी को बता नहीं पा रही हैं। उसका पति कालवाड़ (गुजरात) में रसोइए का काम करता है और घर में कोई और है नहीं, जिसकी मदद से वह उदयपुर जाकर इलाज करवा पाए।

आखिर औरत की हैसियत क्या है? 35-55 की उम्र में कोई औरत अपनी प्रजनन आयु को पार करने के बाद क्यों इतना दर्द सहने को मजबूर हो जाती है? कोई महिला डॉक्टर क्यों नहीं मिलती उन्हें जो बता सके कि आखिर इस मर्ज़ का इलाज क्या है?

उदयपुर के अधिकांश सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्रों में गायनोक्लोजिस्ट नदारद

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- सोशल मीडिया

उदयपुर में कुल 29 CHC संचालित हैं। इन सभी CHC के लिए गायनोक्लोजिस्ट के पद स्वीकृत हैं लेकिन आज तक इनमें से अधिकांश CHC ने अपनी स्थापना से किसी गायनोक्लोजिस्ट की शक्ल तक नहीं देखी। ज़्यादातर CHC केवल एक-एक मेडिकल ऑफिसर के भरोसे चल रहे हैं।

उदयपुर शहर से केवल 35 किलोमीटर दूर महाराणा प्रताप की राजतिलक स्थली के रूप में विख्यात गोगुन्दा तहसील के भी यही हाल हैं। सवा दो लाख की आबादी वाले गोगुन्दा में 49% आदिवासी हैं।

54% घरों के पुरुष कमाई के लिए महीनों बाहर रहते हैं। गोगुन्दा के हर एक गाँव में ऐसी सैकड़ों महिलाएं “परदे की बीमारी” से ग्रस्त मिलेंगी मगर किसी को अपनी हालत बयान नहीं कर पातीं। कुछ नाथी बाई जैसी महिलाएं भी हैं, जो हिम्मत करके उदयपुर तक पहुंचती भी हैं मगर वहां उनके साथ होने वाले व्यवहार और खर्चे से बुरी तरह टूट जाती हैं।

उदयपुर की गायनोक्लोजिस्ट ने क्या कहा?

प्रतीकात्मक तस्वीर। फोटो साभार- Flickr

उदयपुर की एक गायनोक्लोजिस्ट कहती हैं,

ब्लॉक CHC में कोई महिला डॉक्टर जाने को तैयार नहीं है। एक तो वहां सुविधाओं की कमी है और कोई “इंसेंटिव” भी नहीं है। ऐसे में सिटी एरिया छोड़कर कोई महिला डॉक्टर क्यों जाना चाहेगी?

मादा गाँव की सक्रीय स्वास्थ्य कार्यकर्त्ता सुन्दर बाई कहती हैं,

चीन के एक वायरस के लिए पूरी दुनिया चिंता से मरी जा रही है किन्तु देश के जिस एक “अनदेखे” वायरस ने पूरे समाज और चिकित्सा विभाग को घेर रखा है, उस पर कोई बात ही नहीं करता है। क्या महिलाओं की बस इतनी ही इज्ज़त रह गई है कि वे अपने दर्द को “परदे” में ही सहती रहें?

सायरा गाँव की ANM विमला का कहती हैं,

यहां 35 से 55 साल की हर तीसरी महिला को इस परेशानी से जूझना पड़ता है। विडम्बना देखिए कि शर्म के मारे महिलाएं खुलकर सामने नहीं आतीं और मर्ज़ बढ़ता ही जाता है।

भारत का संविधान प्रत्येक नागरिक को बेहतर स्वास्थ्य देने का वादा करता है। गोगुन्दा की इन महिलाओं की स्थिति को देखते हुए हमारी मांग है कि स्वास्थ्य एवं चिकित्सा विभाग जल्दी से जल्दी वहां महिला गायनोक्लोजिस्ट को पदस्थापित करें।

यह भी तय करें कि कम से कम 2 साल तक चिकित्सक का वहां से तबादला नहीं होगा। अगर इसके लिए कुछ “इंसेंटिव” तय करना पड़े, तो वह भी करें। हम यह भी चाहते हैं कि गोगुन्दा में पंचायत स्तर पर स्वास्थ्य कैंप लगाकर ऐसी महिला मरीज़ को अस्पताल से भी जोड़ा जाए

क्योंकि हर महिला का अपना अस्तित्व है, अपना हक है, अपना सम्मान है। अगर वे खुद उठ खड़ी नहीं हो पा रही हैं, तो हमें आगे आना होगा और उन्हें उठ खड़े होने में मदद करनी होगी, इसके लिए आपका साथ चाहिए।

संदर्भ- पत्रिका

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