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नज़रिया बदलो, हालात जरूर बदलेंगे

अक्षय कुमार एक फिल्म लेकर आ रहे हैं जिसका नाम है पैडमैन …पैडमैन फिल्म कोई कल्पना नहीं है ..ये किसी के वास्तविक जीवन से जुड़ी और रची बसी कहानी है और ये सच्ची कहानी है, अरूणाचलम मुरूगनाथम की। पैडमैन फिल्म किसी तरह से कल्पना हो भी नहीं सकती है क्योंकि हम जिस समाज में रहते वहां ये कोई कल्पना नहीं कर सकता कि एक पुरूष महिलाओं के पीरियड्स से जुड़ी समस्या को लेकर समाज के सामने उसके खोखले और दकियानुसी विचारों के आगे ढाल बनकर खड़ा हो जाएगा। मुरूगनाथम ने महिलाओं को समझाया कि वो उस चीज के लिए शर्मिंदगी महसूस करती है जो बहुत ही सामान्य है .. इसमें शर्म करने जैसा कुछ नहीं है..जरा सोचिए हम ऐसे सामाजिक परिवेश में जी रहे हैं जहां महिलाओं पर इतना सामाजिक और पारिवारिक दबाव होता है कि वो अपने स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं को भी नजरअंदाज कर देती है..नजरअंदाज क्या उन्हें तो इसका भी अधिकार नहीं है कि वो कुछ बोल सकें…. परम्परा के नाम पर चुप रहना और चुपचाप सब सहना ये तो भारतीय महिलाओं को सिखाया जाने वाला प्राथमिक पाठ होता है इसमे गलती किसी की नहीं है…ये तो सदियों से परम्परा चली रही है जिसका बोझ महिलाएं ढोती आ रहीं हैं…जैसे पीरियड्स में मंदिर नहीं जाना,घर से बाहर नहीं जाना, रसोईघर में नहीं जाना..ये कैसी दकियानूसी सोच है जो महिलाओं को अछूत बना देती हैं।

 

इसी सोच के सामने अरूणाचलम मुरूगनाथम ने एक लड़ाई लड़ी.. उन्होंने महिलाओं को उनके स्वास्थ्य के प्रति जागरूक किया ..वो महिलाएं जो माहवारी शब्द को सार्वजनिक तौर बोल भी नहीं सकती थी उनको खुले मंच पर ये समझाया कि सैनेटरी पैड इस्तेमाल करना उनके स्वस्थ जीवन की लिए कितना जरूरी है इतना ही नहीं उन्होंने कम लागत वाली सैनेटरी पैड बनाने वाली मशीन का भी आविष्कार किया जिसके लिए उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया गया है। धीरे –धीरे महिलाएं जागरूक हो रही हैं लेकिन स्थिति अब भी गंभीर है। नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 2015-16 की एक रिपोर्ट के मुताबिक शहरों में तो 77.5 प्रतिशत महिलाएं सैनेटरी पैड का इस्तेमाल करती है..लेकिन ग्रामीण इलाकों में 48 प्रतिशत महिलाएं ही सेनेटरी पैड का इस्तेमाल करती है..ये जानकर हैरानी होगी कि कुछ महिलाओं की हालत तो इतनी दयनीय है कि उन्हें इस्तेमाल करने के लिए कपड़ा भी नहीं मिलता है, वो पीरियड्स के दौरान राख या रेंत का उपयोग करती हैं…

 

कैसे बदलेंगे हालात?  शुरूआत सोच बदलने से हो सकती है पहले तो ये सोच बदली जाए की पीरियड्स या माहवारी कोई छूत की बीमारी नहीं और न ही इसमें शर्मिंदगी की कोई बात है..मैं एक लड़की हूं और मैने ये देखा है, समझा है और अब मैं जानती भी हूं कि मैने अपने ज़िदगी के कई साल ये सोचकर बीता दिये कि कुछ चीजे जो महिलाओं से जुड़ी है वो खुलकर नहीं बोली जा सकती है।  मैं या मेरे जैसी कई लड़कियां ऐसी ही होगी जो सैनेटरी पैड ये सोचकर खरीदने नहीं गई होंगी कि दुकान वाले भईया क्या सोचेगें?? या अगर किसी ने देख लिया तो वो क्या सोचेगा?..ये सोच बदलने की जरूरत है,बहुत जरूरत है .. पहली बार इस मसले पर खुले मंच पर अपने विचार रख कर मैने ये शुरूआत कर दी है।

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