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शाहीनबाग का अंत। अपने आप खड़ा हुआ अपने आप खत्म

हाथ कंगन को आलसी क्या पढ़े लिखे को फ़ारसी क्या।

आप सोच रहे होंगे यह बात का और शीर्षक का क्या संबंध। संबंध है। क्यूंकि जिस नागरिकता संशोधन कानून को लेके मुस्लिम समाज के कुछ लोग पिछले ८२ दिनों से दिल्ली के शाहीनबाग इलाके में धरने पर बैठे थे वह आज एकदम सिकुड़ कर सिर्फ चंद लोगो का रह गया।

दिल्ली चुनावो से पहले शुरू हुए इस आंदोलन ने देश विदेश में काफी प्रसिद्धि कमाई। अपनी जूठी बातो को सरकार से मनवाने के लिए इन्होने काफी दबाव डाला। यहाँ तक की इनलोगो ने मोदीजी और शाहजी को कहा की वह शाहीनबाग आये और उनसे बात करे।जब उच्चन्यायालय द्वारा एक ३ सदस्यों की मध्यस्थी पैनल को भेजा तो कोई बात करने को राजी नहीं। मतलब इनको भी पता था की आंदोलन एक नाटक है।

दरअसल शाहीनबाग आंदोलन न होक कुछ राजनीतिक पार्टिया और कुछ विचारधारा की वर्चस्व जमाये रखने का जरिया बन गया। इनको कुछ ज्यादातर पढ़े लिखे फ़िल्मी सितारों, कुछ भूतपूर्व सरकारी कर्मचारी और विपक्ष के कथित नेताओ का साथ मिला। कुछ मीडिया हाउस ने भी इन्हे ज्यादा तव्वजो दी। जिससे इनको ज्यादा प्रसिद्धि मिली। जबकि हकीकत तो यह थी की यह एक पिकनिक स्पॉट था। रोजाना ५०० रुपये और बिरयानी में शिफ्ट में धरना होता था। यह इतने ही सच्चे होते तो सरकार के साथ जाके बात करते। इनको सिर्फ देश का माहौल बिगाड़ना था जो काफी हद तक कामियाब हो गया था।

हलाकि इनके इतने दबाव और अड़ियलपन के बावजूद सरकार का कोई भी मंत्री नहीं आया। जो सही है। जब बार बार यह भरोसा दिलाया गया था की यह कानून नागरिकता देने का है लेने का नहीं इसके बावजूद इसका चलते रहना संदेहास्पद था। जो एक ग़हरी साज़िश के चलते चलाया जा रहा था। संविधान को ही खतरे में डाला इन्होने जो इसको बचाने की बात करते थे। न सरकार न उच्चन्यायालय पर भरोसा।

इनके प्रायोजकों को भी पता था की यह एक गैरसंवैधानिक और गैरकानूनी है। इनको इतना भरोसा नहीं था की उनको इतनी प्रसिद्धि मिलेगी लेकिन चंद सत्तालालची राजनीती पार्टिया और चंद कथित धर्मरक्षको ने इसे बनाये रखा। इनको साथ भी चंद मीडिया हाउस का मिला।

हलाकि धीरे धीरे इनको मिल रही तव्वजो बंध हो गयी और जिसके चलते प्रायोजकों को भी लगने लगा की अब इसको खत्म करना होगा क्यूंकि सरकार ने भी साफ़ साफ़ कह दिया की वह न तो इस कानून को वापिस लेगी न किसी के जाके बात करेगी। जब अपनी बात न बनती दिखी और फंडिंग भी कम होती गयी तो इन प्रदर्शनकारियों के लिए खाना पिने का इंतजाम और रोज का भत्ता देना महंगा पड़ने लगा। साथ ही साथ जो तामजाम किया था उसका पैसा भी देना था।

मतलब न दाल गली न माल मिला। ऊपर से इज्जत गयी वह अलग। तो ज्यादा बेइज्जत न होकर इन्होने चुपचाप आंदोलन को बंध करना ही मुनासिफ माना।

चलो अच्छा है। जो हुआ सो हुआ। इनकी नौटंकी आख़िरकार खत्म।

टिपण्णी: मुफ्तखोरी और सीनाजोरी ज्यादा नहीं चलती। सच सच होता है और जुठ ज्यादा नहीं टिकता

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